Wednesday, June 29, 2016

एक शहर का जन्मः मेरा मधुपुर

1871-शहर-ए-मधुपुर का जन्म


कौन सी परिस्थितियां कौन सा मंजर दिखलाती है यह समझना आसान नहीं है। आखिर जिस शहर-ए-मधुपुर पर हम दिल-ओ-जां से फिदा हैं उसके होने की कहानी हमें पता है? या हमने कभी कयास भी लगाए हैं?

इतिहास या तारीख में झांकें तो एक धुंधली सी तस्वीर उभरती है। एक जंगलों से घिरा गांव। जहां पर आज यह शहर खडा होकर इठला रहा है -वहां घने जंगल थे। महुआ, सखुआ, पियार, शीशम, जामुन, कटहल और पीपल बरगद के घने पेड। पास में बहती नदियां पतरो, अजय, जयंती और कितनी ही जोरिया। जंगल ही जंगल। कहीं कहीं खेत, कुछ कच्ची झोपडियां, कुछ खपरैल की, कुछ ताड़ के पत्तों से ढंके, कुछ पुआल माटी के बने तब के मकान।

जंगल भी ऐसा कि कहीं कहीं सूरज की रौशनी भी छन कर ही आती।

आज का यह गांधी चौक, बावनबीघा, कालीपुर टाउन, पंचमंदिर क्षेत्र, थाना मोड, पथरचपटी, सपहा, चांदमारी, भेडवा नावाडीह से लेकर टिंटहियाबांक से लेकर पटवाबाद तक, जंगल ही जंगल।

आज जंगल इतिहास हो गया और शहर जवां। पर इस शहर के बसने, जंगलों के विनाश और एक नये भविष्य की नयी इबारत लिखने के पीछे असली वजह है बरतानिया हुकूमत का षडयंत्र। उन्हें दरअसल कोई मधुपुर नहीं बसाना था। मधुपुर तो महज एक गांव था जैसे आज साप्तर है या फागो या कुर्मीडीह। पर अंग्रेज बहादुर (!) जब 1855 और 1857 में संताल लडाकों और भारतीय फौजियों के विद्रोह से परेशान हो गये और उनमें हताशा फैलने लगी तब उन्होंने नयी रणनीति बनाई। रेल ब्रिटिश हुकूमत की नयी हथियार बन गयी। ईस्ट इंडिया कंपनी की राजधानी कोलकाता से मुगलों की राजधानी दिल्ली तक रेल की पटरियां बिछने लगी। और यही वह समय था जब रेल को -उसकी पटरियों को वाया मधुपुर गुजरना था।

वर्ष 1871 में मधुपुर के जंगल कटने लगे। धड़ाधड़ पेड काटे और गिराये जाने लगे और कोलकाता-आसनसोल-चित्तरंजन होते ट्रेन की पटरियां मधुपुर में भी बिछाई जाने लगी। अचानक एक गांव हरकत में आ गया। एक रेलवे कांट्रेक्टर नारायण कुण्डू ने मधुपुर में कैंप कर दिया। बाद में उन्होंने 1885 साल में एक अंग्रेज मि0 मोनियर से एक मूल रैयत मौजा ही खरीद लिया। फिर अमडीहा मौजा आदि खरीद कर वे एक जमींदार की हैसियत पा गये। उन्हीं के नाम पर आज भी एक मुहल्ला 'कुण्डू बंग्ला'के नाम से विख्यात है। एक बात यह भी है कि कुण्डू को पेट की बीमारी थी पर मधुपुर के पानी से उनकी वह बीमारी जाती रही और यह भी एक कारण था कि वे यहीं बस रस गये।

1855/1857 में मधुपुर कहीं नजर नहीं आता जबकि 1857 के सैन्य विद्रोह में रोहिणी ने अपना नाम स्वर्णांकित करवा लिया था। सन् 1871 में मधुपुर से गुजरने वाली रेल ने इसे शहर बनने की संभावना से तो जोड दिया पर हकीकतन अंग्रेजों ने मधुपुर को अपनी हुक्मरानी के नये उपनिवेश (काॅलोनी ) के रूप में ढालना शुरू कर दिया था।

यह अलग बात है कि-मधुपुर ने आगे चलकर उसी उपनिवेशवाद से लडाई ठान ली और अपनी एक अलग जानदार और शानदार परिभाषा गढ दी कुछ यूं कि-
"जब चल पडे सफ़र को तो फिर हौसला रखो
सहरा कहीं ,कहीं पे समंदर भी आएंगे।
थोडा सा अपनी चाल बदल कर चलो मिजाज
सीधे चले तो पीठ में खंज़र भी आएंगे।।"


(यह लेख डा0 उत्तम पीयूष की अनुमति से लिया गया है और यह उन्होंने हमारे साझा फेसबुक समूह मेरा मधुपुर में लिखा है)

एक शहर का जन्मः मेरा मधुपुर

1871-शहर-ए-मधुपुर का जन्म


कौन सी परिस्थितियां कौन सा मंजर दिखलाती है यह समझना आसान नहीं है। आखिर जिस शहर-ए-मधुपुर पर हम दिल-ओ-जां से फिदा हैं उसके होने की कहानी हमें पता है? या हमने कभी कयास भी लगाए हैं?

इतिहास या तारीख में झांकें तो एक धुंधली सी तस्वीर उभरती है। एक जंगलों से घिरा गांव। जहां पर आज यह शहर खडा होकर इठला रहा है -वहां घने जंगल थे। महुआ, सखुआ, पियार, शीशम, जामुन, कटहल और पीपल बरगद के घने पेड। पास में बहती नदियां पतरो, अजय, जयंती और कितनी ही जोरिया। जंगल ही जंगल। कहीं कहीं खेत, कुछ कच्ची झोपडियां, कुछ खपरैल की, कुछ ताड़ के पत्तों से ढंके, कुछ पुआल माटी के बने तब के मकान।

जंगल भी ऐसा कि कहीं कहीं सूरज की रौशनी भी छन कर ही आती।

आज का यह गांधी चौक, बावनबीघा, कालीपुर टाउन, पंचमंदिर क्षेत्र, थाना मोड, पथरचपटी, सपहा, चांदमारी, भेडवा नावाडीह से लेकर टिंटहियाबांक से लेकर पटवाबाद तक, जंगल ही जंगल।

आज जंगल इतिहास हो गया और शहर जवां। पर इस शहर के बसने, जंगलों के विनाश और एक नये भविष्य की नयी इबारत लिखने के पीछे असली वजह है बरतानिया हुकूमत का षडयंत्र। उन्हें दरअसल कोई मधुपुर नहीं बसाना था। मधुपुर तो महज एक गांव था जैसे आज साप्तर है या फागो या कुर्मीडीह। पर अंग्रेज बहादुर (!) जब 1855 और 1857 में संताल लडाकों और भारतीय फौजियों के विद्रोह से परेशान हो गये और उनमें हताशा फैलने लगी तब उन्होंने नयी रणनीति बनाई। रेल ब्रिटिश हुकूमत की नयी हथियार बन गयी। ईस्ट इंडिया कंपनी की राजधानी कोलकाता से मुगलों की राजधानी दिल्ली तक रेल की पटरियां बिछने लगी। और यही वह समय था जब रेल को -उसकी पटरियों को वाया मधुपुर गुजरना था।

वर्ष 1871 में मधुपुर के जंगल कटने लगे। धड़ाधड़ पेड काटे और गिराये जाने लगे और कोलकाता-आसनसोल-चित्तरंजन होते ट्रेन की पटरियां मधुपुर में भी बिछाई जाने लगी। अचानक एक गांव हरकत में आ गया। एक रेलवे कांट्रेक्टर नारायण कुण्डू ने मधुपुर में कैंप कर दिया। बाद में उन्होंने 1885 साल में एक अंग्रेज मि0 मोनियर से एक मूल रैयत मौजा ही खरीद लिया। फिर अमडीहा मौजा आदि खरीद कर वे एक जमींदार की हैसियत पा गये। उन्हीं के नाम पर आज भी एक मुहल्ला 'कुण्डू बंग्ला'के नाम से विख्यात है। एक बात यह भी है कि कुण्डू को पेट की बीमारी थी पर मधुपुर के पानी से उनकी वह बीमारी जाती रही और यह भी एक कारण था कि वे यहीं बस रस गये।

1855/1857 में मधुपुर कहीं नजर नहीं आता जबकि 1857 के सैन्य विद्रोह में रोहिणी ने अपना नाम स्वर्णांकित करवा लिया था। सन् 1871 में मधुपुर से गुजरने वाली रेल ने इसे शहर बनने की संभावना से तो जोड दिया पर हकीकतन अंग्रेजों ने मधुपुर को अपनी हुक्मरानी के नये उपनिवेश (काॅलोनी ) के रूप में ढालना शुरू कर दिया था।

यह अलग बात है कि-मधुपुर ने आगे चलकर उसी उपनिवेशवाद से लडाई ठान ली और अपनी एक अलग जानदार और शानदार परिभाषा गढ दी कुछ यूं कि-
"जब चल पडे सफ़र को तो फिर हौसला रखो
सहरा कहीं ,कहीं पे समंदर भी आएंगे।
थोडा सा अपनी चाल बदल कर चलो मिजाज
सीधे चले तो पीठ में खंज़र भी आएंगे।।"


(यह लेख डा0 उत्तम पीयूष की अनुमति से लिया गया है और यह उन्होंने हमारे साझा फेसबुक समूह मेरा मधुपुर में लिखा है)

Monday, June 27, 2016

योग से किसको दिक्कत है?

योग दिवस बिहार में नहीं मनाया गया। कथित सेकुलर साइड के लोगों को लगता है कि योग हिन्दुओं की विरासत है। योग को सिर्फ हिन्दुओं का मानकर इसके कद को छोटा मानना करना होगा। यह ठीक है कि योग हमारी भारतीय संस्कृति की प्राचीनतम पहचान है, और शायद इसलिए सनातन संस्कृति की कुछ पहचान, योग की पहचान से जुड़ी हैं। यह भी ठीक है कि संसार की पहली पुस्तक ऋग्वेद में कई स्थानों पर यौगिक क्रियाओं का उल्लेख है। खासकर, सनातन धर्म में भी योग की मान्यता है, भगवान शिव को योगिराज माना जाता है, तो वहीं, भगवान कृष्ण ने गीता में योग का उपदेश भी दिया है। महावीर जिनेन्द्र और भगवान बुद्ध ने भी योग की साधना की।

तो जब बौद्ध और जैन धर्मों में योग या इसके किसी स्वरूप का जिक्र है, और इन धर्मों के प्रवर्तकों ने योग अपनाया तो इसको किसी एक धर्म से जोड़ना अच्छा नहीं।

लेकिन यह जानना ज़रूरी है कि आखिर यह योग है क्या। योग के बारे में, महर्षि पतंजलि ने कहा हैः चित्तवृत्ति निरोधः इति योगः।

यानी, चित्त की वृत्तियों को खत्म करना ही, योग है।

योग शब्द का मतलब है जोड़ना, संयोग करना, देह और मन को एक साथ एक ही भावभूमि पर लाना। वास्तव में, योग आध्यात्मिक अनुशासन और और बेहद सूक्ष्म विज्ञान पर आधारित ज्ञान है, जो मन और शरीर के बीच अनुशासन स्थापित करता है।

वैसे भारतीय परंपरा में गहरे उतरी हुए योग की भी विभिन्न शैलियां हैं। इनमें ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, पातंजलयोग, कुंडलिनीयोग, हठयोग, ध्यानयोग, मंत्रयोग, लययोग, राजयोग, जैनयोग, और बौद्धयोग जैसी शैलियां शामिल हैं।

लेकिन योग की सामान्य साधना में आम लोग योग का मतलब सिर्फ आसनों से समझते हैं, जबकि आसन तो योग का सिर्फ एक अंग है। योग में, यम, नियम, आसन, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, बंध और मुद्रा जैसी साधनाएं की जाती हैं।

यम यानी जीवन में स्वस्थ रहने के लिए कौन से काम नहीं करने चाहिए, और नियम यानी स्वस्थ रहने के लिए किन नियमों का पालन करना चाहिए। कुर्यात तदासनम् स्थैर्यम् यानी आसन का अभ्यास शरीर और मन को स्थिर बनाने के लिए किया जाता है।

प्राणायाम स्वास और प्रश्वास का सुव्यवस्थित और नियमित अभ्यास है। प्राणायाम का अभ्यास नाक, मुख और शरीर के अन्य छिद्रों और शरीर के आंतरिक और बाहरी मार्गों तक जागरूकता बढ़ाता है।

प्रत्याहार के अभ्यास से व्यक्ति, अपनी इंद्रियों के माध्यम से सांसारिक विषयों का त्यागकर अपने मन और चेतना को केन्द्रीकृत करने की कोशिश करता है।

धारणा का अभ्यास मन के विभिन्न विचारों को एकत्रित करने के लिए किया जाता है, और धारणा की यही अवस्था बाद में ध्यान में बदल जाती है। यही ध्यान चिंतन और एकीकरण की अवस्था आगे चलकर समाधि बन जाती है।

बंध और मुद्राएं प्राणायाम से जुड़ी हैं, और यह उच्च कोटि के यौगिक अभ्यास कहे जाते हैं। यह मुख्यरूप से नियंत्रित श्वसन के साथ विशेष शारीरिक बंधों और मुद्राओं के द्वारा किए जाते हैं।

ध्यान का अभ्यास व्यक्ति को आत्मनिक श्रेष्ठता और उन्नति की ओर ले जाता है और यही योग साधना पद्धति का सार है।

योग सिर्फ कसरत या व्यायाम नहीं है। यह हमारे जीवन को जादुई तरीके से बदल देने की क्षमता रखने वाली जीवन शैली है। यह धर्म से नहीं, आध्यात्मिकता से जोड़ने वाली हमारी विरासत है। यह सिर्फ देह को नहीं, मन को और मानसिकता को भी शुद्ध करने वाली जीवन शैली है।

तभी तो भागवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं-

सिद्दध्यसिद्दध्यो समोभूत्वा समत्वंयोग उच्चते

अर्थात् दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्दों में सर्वत्र समभाव रखना योग है।

तो वहीं ऋग्वेद कहता हैः

ओम संगच्छध्वं, संवदध्वं

सं वो मनांसीजानताम्

देवा भागं यथा पूर्वे

संजानाना उपासते

अर्थात्, हम सभी प्रेम से मिलकर चलें, मिलकर बोलें और सभी ज्ञानी बनें। अपने पूर्वजों की भांति हम सभी कर्तव्यों का पालन करें।

...ऋग्वेद की यह ऋचा, हमें योग के बारे में यही तो बताती है, कि देह और मन ही एकाकार न हो, बल्कि समाज के साथ भी हम एकाकार हों। हम सबका विकास हो सबकी उन्नति हो।

योग के माध्यम से आत्मिक संतुष्टि, शांति और ऊर्जावान चेतना की अनुभूति होती है, जिससे हमारा जीवन तनावमुक्त और तथा हर दिन सकारात्मक ऊर्जा के साथ आगे बढता है।

योग का विकास भारत के विकास के साथ हुआ है इसलिए योग में कुछ बातें भारतीय पुरातन संस्कृति की भी होंगी ही। जिस प्राणायाम में ओम के उच्चारण को लेकर इस विज्ञान को धार्मिक रंग दिया जा रहा है, उसके बारे में यह जानना जरूरी है कि सूफी परंपरा में भी प्राणायाम का अस्तित्व है, और सूफी साधकों ने प्राणायाम को चिल्लह-ए-मा-अकुश कहा है।

चाहे ओम का उच्चारण न करें, चाहें आप सूर्य देवता को प्रणाम न करें, लेकिन योग को विज्ञान की तरह स्वीकार करें। अध्ययन प्रमाणित करते हैं कि योग सेहत के लिए अच्छा है और डॉक्टर के यहां जाने के खर्च को बचाता है तो फिर समस्या क्यों।

योग का हिस्सा यम और नियम भी तो हैं। यम यानी कुछ चीजों का निषेध और नियम मतलब कुछ ऐसी चीजें या आदतें जो हमें करनी चाहिए, तो योग को महज आसनों से जोड़कर मत देखिए।

मंजीत ठाकुर

Tuesday, June 21, 2016

उड़ता पंजाब की लेट समीक्षा

मैं समाचारों की दुनिया से जुड़ा हूं तो जाहिर है 'उड़ता पंजाब' को लेकर चल रही हर ख़बर पर मेरी नज़र थी। पिछले कुछ सालों में इससे अधिक चर्चा में कोई भी फिल्म नहीं रही थी।

जहां तक अश्लीलता की बात है, यह फिल्म मस्तीज़ादे या हेट स्टोरी जैसी फिल्मों से कम और टीवी पर चल रहे कई कॉमिडी शोज़ से--जिसमें कॉमेडियन द्विअर्थी संवादो के ज़रिए भद्देी बातें करते हैं--कम अश्लील है

आप चाहें इस फिल्म का लाख डॉक्यू-ड्रामा कह लें, क्योंकि फिल्म देखने से पहले मेरे कई साथियों ने मुझे आगाह किया था, लेकिन फिल्म में एक साथ चार किरदारों की कहानियां चलती हैं। और उन सबको एक साथ जोड़ता है ड्रग्स।

अभिषेक चौबे के इस उड़ते पंजाब में न तो भांगड़ा-गिद्धा है न हरे-भरे खेतों में रंगीन चुनर उड़ाती मक्के दी रोटी और सरसों का साग और लस्सी वाले पंजाबी खुशहाल किसान है। यह हरित क्रांति के दौर में बनी पंजाब की पुख्ता छवि तो तार-तार करने वाली फिल्म है। उड़ता पंजाब का पंजाब पॉप्युलर कल्चर की नजर से अब तक ओझल रहा पंजाब है।

शाहिद कपूर के लिए कहना होगा कि वह अपनी हर अगली फिल्म के साथ निखरते जा रहे हैं। उनके इमोशनल आर्क पर लेखक और निर्देशक ने खास ध्यान दिया है। हर अगले दृश्य के साथ टॉमी सिंह बने शाहिद कपूर की उलझने साफ उनके चेहरे पर दिखती हैं। आज के मुख्य धारा के नायकों में शाहिद ने अपनी अलग पहचान बना ली है, जिसमें उनकी अच्छी एक्टिंग का कमाल है। आखिर उन्हें एक्टिंग विरासत में जो मिली है (लेकिन हर एक्टर के लिए यह सही नहीं है)

सबसे सहज लगे हैं दलजीत दोसांझ, जो इस फिल्म में एएसआई की भूमिका में हैं। पंजाबी स्थानीयता उनके चेहरे पर साफ दिखती है और लगता नहीं कि वह एक्टिंग कर रहे हों।

तारीफ करनी होगी आलिया भट्ट की। अपनी शहरी देहभाषा और ज़बान के बावजूद वह बिहारन मजदूर के किरदार में ढल गई हैं। ग्लैमरविहीन किरदार में आलिया का यह अवतार अच्छा लगता है। और याद आता है कि किस तरह फिल्म प्रहार में नाना पाटेकर माधुरी दीक्षित को बिना मेकअप परदे पर लाए थे।

लेकिन आलिया भट्ट कई जगह बेहद लाउड हैं, देहभाषा में भी और संवाद अदायगी में भी। यह खलता है। उन्हें यह सब सीखना होगा।

फिल्म में करीना कपूर भी हैं, जिनका किरदार पूरे फिल्म में अंडर प्ले ही रह जाता है। दलजीत और करीना के बीच पैदा हुए प्रेम को परदे पर निर्देशक कायदे से उकेर नहीं पाए हैं। इसलिए जब भी कहानी डॉ प्रीत और सरताज के प्रेम पर आती है, तो फिल्म थोड़ी बिखरी हुई लगती है।

उड़ता पंजाब की कहानी उस पंजाब की कहानी है, जो हम लोग परदे पर नहीं आम जनजीवन में देखते हैं। यह वही कहानी है, जिसकी वजह से बठिंडा से बीकानेर तक जाने वाली ट्रेन कैंसर एक्सप्रेस में बदल जाती है। यही वह कहानी है जिसकी वजह से यह एक राजनीतिक मुद्दा बनना चाहिए लेकिन बन नहीं पाता। फिल्म उस गहरे सियासी चक्र को छूती तो है लेकिन उसको खोलती नहीं है।

अभिषेक चौबे की इस फिल्म को हालांकि सराहना बहुत मिल रही है, संपादन और संगीत दुरुस्त है, कहानी में रिसर्च तगड़ा है, लेकिन गैंग्स ऑफ वासेपुर वाली बात इसमें बन नहीं पाई है। अधिकतर संवाद पंजाबी में हैं, जो स्वाभाविक ही है, और इस वजह से  खांटी हिन्दी वालों को शायद संवाद समझने में मुश्किलें हों।

सेंसर बोर्ड के साथ विवाद की वजह से इस फिल्म को अधिक हवा मिल गई लेकिन ऐसा कुछ भी इस फिल्म के साथ नहीं जो असाधारण है। कुल मिलाकर फिल्म अच्छी है, और बढ़िया विषय पर सलीके से बनी हुई फिल्म है। इसमें सियासी दांवपेंच खोजना अच्छा नहीं है न सियासत के लिए न सिनेमा के लिए।

मंजीत ठाकुर

सुरक्षित नहीं है सफ़र

अपने देश में सड़क पर चलना कोई आसान काम नहीं है। कब आपकी जान पर बन आए, इसकी कोई गारंटी नहीं है। मैं सिर्फ सड़क पर हुए मारपीट जैसी घटनाओं का जिक्र नहीं कर रहा। देश में लाड़-प्यार से पाले गए छोकरों ने मर्निंग वॉक से लेकर पैदल चल रहे लोगों का जीना दूभर कर दिया है।

वैसे भी, पिछले एक साल देश में सड़क दुर्घटनाओं की संख्या में काफी इज़ाफा देखा गया है। सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय की जारी की गई ताज़ा रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 2014 के मुकाबले 2015 में सड़क दुर्घटनाओं में 2.5 फीसद और इन दुर्घटनाओं में मरने वालों की संख्या में 4.6 फीसद का उछाल आया है। जबकि पिछले एक दशक यानी साल 2005 से 2015 के बीच सड़क दुर्घटनाओं में 14.2 फीसद और दुर्घटना से हुई मौत में 53.9 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है। अगर संख्या के हिसाब से कहें तो साल 2015 में कुल सड़क दुर्घटनाओं की संख्या 5,01,423 और उससे होने वाली मौतें करीब डेढ़ लाख तक पहुंच गई हैं।

इसका सीधा मतलब यह हुआ कि हर रोज़ देश में 1,374 सड़क दुर्घटनाएं होती हैं, जबिक रोज़ाना 400 लोग काल के गाल में समा जाते हैं।

यह मौतें देश में किसी भी महामारी या बीमारी से होने वाली मौतों से कई गुना अधिक हैं और शायद इसलिए चिंता की बड़ी वजह हैं।

इन दुर्घटनाओं से से अधिकतर यानी करीब 87 फीसद दुर्घटनाएं सिर्फ 13 राज्यों में हुई हैं, जिनमें तमिलनाडु 13.8 फीसद के साथ पहले स्थान पर है और रोड एक्सीडेंट में मरने वालों की संख्या के लिहाज से उत्तर प्रदेश पहले पायदान है।

यह दुर्घटनाएं सबसे अधिक बड़े शहरों में होती हैं, और खासकर देश में होने वाली सड़क दुर्घटनाओं में मरने वालों की संख्या नैशनल हाईवे पर सबसे अधिक 35 फीसद हैं।

यह स्थिति इसलिए चिंताजनक है क्योंकि देश में नैशनल हाईवे कुल सड़क के लिहाज से अभी महज 2 फीसद है लेकिन देश के कुल ट्रैफिक का 40 फीसद नैशनल हाईवे पर चलता है। ऐसे में मंत्रालय देश में नैशनल हाईवे की लंबाई मौजूदा 96 हजा़र किलोमीटर से बढ़ाकर 2 लाख किलोमीटर करने की योजना पर काम कर रही है।

शायद नैशनल हाईवे की लंबाई अधिक बढ़े तो उन पर यातायात का बोझ भी कम होगा और मौतें भी कम होंगी। लेकिन एक और तथ्य जो बेहद काबिलेगौर है, वह है इन दुर्घटनाओं में सबसे अधिक जिम्मेदार बनाया गया हैः ड्राइवर को। यानी जिस गाड़ी की दुर्घटना हुई है उसके ड्राइवर को। रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में कुल दुर्घटनाओं में से सत्तर फीसद से अधिक के जिम्मेदार ड्राइवर हैं जो यातायात के नियमों का पालन नहीं करते और अमूमन शराब पीकर गाडी चलाया करते हैं।

हालांकि, यह आंकड़ा थोड़ा कम विश्वसनीय लगता है। वह इसलिए क्योंकि मंत्रालय के आंकड़े राज्यों की पुलिस के दर्ज रिकॉर्ड पर आधारित है और इसलिए किसी मामले की लीपापोती राज्यों की पुलिस कैसे करती हैं, यह सबको मालूम है।

दूसरी बात यह कि यातायात के नियमों को लेकर हम भारतीय कितने उदासीन हैं इसके नज़ारे तो देश के छोटे-बड़े शहरों और कस्बों तक में साफ दिख जाते हैं। रेलवे फाटकों पर इंतजार करना हम भारतीयों को बडा उबाऊ लगता है और इस जल्दी में कितनों की जान गई है वह एक अलग मसला है।

सड़कों की खराब स्थिति, अंधे मोड़ों पर संकेतको की कमी, और जहां-तहां अपनी सुविधानुसार स्पीड ब्रेकर बना देना दुर्घटना के अन्य बड़े कारक हैं। लेकिन, इन सबके साथ बसों और ट्रक ड्राइवरों द्वारा ओवर लोडिंग भी एक समस्या है। ओवर लोडिंग के चलते भी बहुत बड़ी संख्या में दुर्घटनाएँ हुआ करती हैं।

लंबे समय तक ड्राइविंग करने वाले ट्रक ड्रिवर बीच में झपकी नहीं लेंगे, इसकी कौन गारंटी लेगा? साथ ही, गरमी-सरदी में लंबी यात्रा करने वाले ड्राइवरों को एसी केबिन क्यों नहीं दिया जाता? मंत्रालय अब ट्रकों के ड्राइवरों वाले केबिन को अनिवार्य रूप से एसी बनाने के नियम पर गौर कर रहा है।

भारत ब्राजीलिया डिक्लेरेशन का हस्ताक्षरी रहा है और इस समझौते के हिसाब से साल 2020 तक भारत को सड़क दुर्घटनाओं में 50 फीसद की कमी लानी होगी। लेकिन हर साल जिस तरह दुर्घटनाएं बढ़ती जा रही हैं, यह मंजिल अभी दूर की कौड़ी लगती है।

इस मामले में सिर्फ सरकार कुछ नहीं कर सकती। सड़क दुर्घटनाएं कम करने में हम सबको आगे आना होगा। सरकार को बुनियादी ढांचे पर काम करना होगा, और हम सबको अपनी मानसिकता बदलने पर।

मंजीत ठाकुर

Friday, June 17, 2016

बाबूजी की चिट्ठी मेरे नाम

दौड़ पड़ते थे जब
तुम्हारे नन्हें नन्हें पाँव
बारिश भीगी मिटटी में
अपने नाज़ुक निशाँ छोड़ने
छुआ था कितनी ही बार
मेरी हथेलियों ने उन्हें
और तुम ये समझे
कि रुखे मैदान में
घास का एक मामूली टुकड़ा होगा
बिखर जाते थे जब
तुम्हारे उलझे उलझे बाल
माँ से नाराज़
तुम्हारी आँखों पर
सम्हाला था कितनी ही बार
मेरी उँगलियों ने उन्हें
और तुम ये समझे
कि छू के गुज़रा
हवा का एक मामूली झोंका होगा
तुम्हारी फ़िक्र
तब भी उतनी ही थी मुझे
बैठते थे जब तुम
क्लास की आखिरी सीटों पर
जितनी अब होती है
भूलते हो जब तुम
सुबह का नाश्ता
रात का खाना
बहुत से काम के बहाने से,
तुम्हारे हाथ में सिगरेट
बुरी नहीं लगती
मुस्कुरा देता हूँ
कि नन्हीं उंगलियाँ
अब नन्हीं नहीं रहीं
थामने लगी हैं
कितने रिश्तों की डोर
बुरा लगता है
तो बस वो डर
जो चला आता है
तुम्हारी सिगरेट के
धुंए के साथ
डरने लगता हूँ
कि इस धुंए में
धुंधला न जाएँ
कहीं वो आँखे
जिनमें जलते हैं
तुम्हारे नाम के दिए
मैं अब भी हूँ
उन दीयों कि लौ में
और इस बार
तुम सही समझे
कि उन आँखों में
तुम्हारा प्यार पलता होगा

एक खत दिवंगत बाबूजी के नाम

साल 2012 में एक खत लिखा था अपने दिवंगत पिता को, आज फिर से शेयर कर रहा हूं...

डियर डैड,
सादर प्रणाम,

कहां से शुरू करुं...आज से ही करता हूं।

आज अंग्रेजी के एक अख़बार के पहले पन्ने पर बिस्किट के एक ब्रांड का विज्ञापन है। विज्ञापन कुछ नहीं...बस एक खाली पन्ना. जिसमें एक चिट्ठी लिखी जा सकती है। अपने पिता के नाम....पीछे एक पंक्ति छपी है, कोई भी पुरुष बाप बन सकता है, लेकिन पिता बनने के लिए खास होना पड़ता है (मैंने नजदीकी तर्जुमा किया है, मूल पाठ हैः एनी मैन कैन बी अ फ़ादर, इट टेक्स समवन स्पेशल टू बी डैड)

मुझे नहीं पता, कि फ़ादर, डैड और पापा में क्या अंतर है। मुझे ये भी नहीं समझ में आता कि आखिर बाबूजी (जिस नाम से हम सारे भाई-बहन आपके याद करते हैं) पिताजी और बाकी के संबोधनों में शाब्दिक अर्थों से कहीं कोई फ़र्क पड़ता है क्या। क्या बाप पुकारना डेरोगेटरी है?

लेकिन बाबूजी, बाजा़र कहता है कि डैड होने के निहितार्थ सिर्फ फ़ादर होने से अधिक है। आप होते तो पता नहीं कैसे रिएक्ट करते और मेरी इस चिट्ठी की भ्रष्ट भाषा पर मुझे निहायत नाकारा कह कर शायद धिक्कारते भी। लेकिन बाबूजी, आपको अभी कई सवालों के जवाब देने हैं।

आपको उस वक्त हमें छोड़कर जाने का कोई अधिकार नहीं था, जब हमें आपकी बहुत जरूरत थी। जब हमें अगले दिन की रोटी के बारे में सोचना पड़ता था, आपको उस स्वर्ग की ओर जाने की जल्दी पड़ गई, जिसके अस्तित्व पर मुझे संशय है।

मां कहती है, कि आपके गुण जितने थे उसके आधे तो क्या एक चौथाई भी हममें नहीं हैं। आप ही कहिए बाबूजी, कहां से आएंगे गुण? दो साल के लड़के को क्या पता कि घर के कोने में धूल खा रहे सामान दरअसल आपके सितार, हारमोनियम, तबले हैं, जिन्हें बजाने में आपको महारत थी। दो साल के लड़के को कैसे पता चलेगा बाबूजी...कि कागज़ों के पुलिंदे जो आपने बांध रख छोड़े हैं, उनमें आपकी कहानियां, कविताएं और लेख हैं।... और उन कागज़ों का दुनिया के लिए कोई आर्थिक मोल नहीं। दो साल के लड़के को कैसे पता चलेगा बाबूजी कि आपने सिर्फ रोशनाई से जो चित्र बनाए, उनकी कला का कोई जोड़ नहीं।

बाबूजी, दो साल का लड़का जब बड़ा होता गया, तो उसका पेट भी बढ़ता गया। उसकी आँखों के सामने जब सितार, हारमोनियम तबले सब बिकते चले गए, कविता वाले कागज़ों के पुलिंदे और उसके बाबूजी के बनाए रेखा-चित्र दीमकों का भोजन बनते चले गए, तो बाबूजी ये गुण कैसे उसमें बढ़ेंगे।

मां कहती है, कि आप बहुत सौम्य, सुशील और नम्र आवाज़ में बातें करते थे। बाबूजी, मैं आपके जैसा नहीं बन पाया। मां कहती हैं मैं अक्खड़ हूं, बदतमीज हूं, किसी की बात मानने से पहले सौ बार सोचता हूं...बाबूजी अभी तो आप ऊपर से झांक कर सब देख रहे होंगे...जरा बताइएगा मैं ऐसा क्यों हूं?

बाबूजी जब आप इतने गुणों (अगर सच में गुण हैं) से भरकर भी एक आम स्कूल मास्टर ही बने रह गए, तो हम से मां असाधारण होने की उम्मीद क्यों पाले है? उसकी आंखों का सपना मुझे आज भी परेशान करता है। बाबूजी मां को समझाइए, आप जैसे आम आदमी के हम जैसे आम बच्चों से वो उम्मीद न पाले। उससे कहिए कि वो हमें नालायक समझे।

डियर डैड, ये संबोधन शायद आपको अच्छा नहीं लग रहा होगा। आज फादर्स डे है, कायदे से तो एक गुलदस्ता लेकर मुझे उस जगह जाना चाहिए था, जहां आपकी चिता सजाई गई थी, या उस पेड़ के पास जहां आपकी चिता के फूल चुनकर हरिद्वार ले जाने से पहले रखे गए थे। लेकिन बाबूजी, आपको याद करने के लिए मुझे किसी फादर्स डे या आपकी पुण्यतिथि, या मेरे खुद के जन्मदिन की जरूरत नहीं है। आप मेरे मन में है।

बाबूजी, मरने के लिए बयालीस की उम्र ज्यादा नहीं होती। उस आदमी के लिए तो कत्तई नहीं, जिसका एक कमजोर सा बेटा सिर्फ दो साल का हो, और बाद में उस कमजोर बेटे को समझौतों से भरी जिंदगी जीनी पड़ी हो। जब सारी दुनिया के लोग अपने पिता की तस्वीरें फेसबुक पर शेयर करते हैं, तो मुझे बहुत शौक होता था कि आप होते तो...बाबूजी मुझे पता है कि आप होते तो, जेठ की जलती दोपहरी में ज़मीन पर नंगे पांव नहीं चलना होता मुझे...आप मेरे पैर अपनी हथेलियों में थाम लेते।

आपको बता दूं बाबू जी, आपके निधन के कुछ महीनों बाद ही लोगों ने हम पर दया दिखानी शुरु कर दी थी...मुहल्ले वाली मामी ने जूठी दूध का गिलास भी देना चाहा था...मुझे पता है बाबूजी, आप होते तो किसी कि इतनी हिम्मत नहीं होती। अब तो आप जान गए होंगे न कि क्यों इतना अक्खड़ हो गया है आपका वो कमजोर दिखने वाला बेटा।

आप चले गए, नाना जी ने रुआंसा होकर कहा था उनकी उतनी ही उम्र थी। मैं नहीं मानता...आपको इस कदर नहीं जाना चाहिए था...चिलचिलाते जेठ में, ऐसे लू वाले समाज में आप छोड़ गए हमें...क्यों बाबू जी?

मुझे बहुत शिकायत है बाबूजी, बहुत शिकायत है....

आपका बेटा
(आज्ञाकारी नहीं , कत्तई नहीं)

Friday, June 10, 2016

नीतीश के ‘दाग़ अच्छे नहीं हैं’

बिहार में विधानसभा चुनाव के बाद वहां की जनता ने जो जनादेश दिया, क्या उससे मोहभंग की शुरूआत हो चुकी है? नीतीश अपने दो कार्यकाल के दस बरसों में सुशासन बाबू के तौर पर मशहूर हुए, और ठीक ही मशहूर हुए। बिहार में जिस राजद के शासनकाल को जंगल राज (हाई कोर्ट ने कई दफा कहा था) करार देकर नीतीश लोगों से वोट मांगने जाते थे, उन्हीं के साथ गठजोड़ करके सत्ता में वापसी हुई, यह पुरानी बात हो गई लेकिन छह महीने में ही नीतीश कुमार किस कदर कमजोर मुख्यमंत्री साबित हुए हैं, वह उनकी छवि पर बट्टा सरीखा ही है।

लेकिन जिस तरह नीतीश शराबबंदी पर अपनी पीठ ठोंक रहे हैं, वह महिलाओं के वोट अपने कब्जे में बनाए रखने की उनकी खास जुगत है। साथ ही, नीतीश ने बसों और ऑटो में अश्लील गानों पर रोक लगाने का आदेश भी जारी किया है। अब नीतीश अपनी छवि को बचाए रखने के लिए जी-तोड़ कोशिशों में जुटे हैं। वह देश भर में घूम-घूमकर शराबबंदी पर अपनी पीठ थपथपा रहे हैं। सात मई को नीतीश कुमार केरल में थे। 12 मई को वाराणसी में और 15 मई को लखनऊ गए, फिर 27 मई को कोलकाता।

क्या इस मध्यावधि चुनाव की आहट या नीतीश की तैयारा समझा जाए? शायद हां, क्योंकि पिछले छह महीने कानून-व्यवस्था के लिहाज से बिहार पर बहुत भारी गुजरे हैं।

पिथले छह महीने में बिहार में हत्या की तेरह बड़ी वारदातें हुई हैं, जिन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर लोगों का ध्यान खींचा है। दिसंबर में दरभंगा में रंगदारी न मिलने पर सड़क निर्माण कंपनी के दो इंजीनियरों और वैशाली में एक इंजीनियर की हत्या हो या जनवरी में एएसआई अशोक कुमार यादव, पटना के आभूषण व्यापारी रविकांत की रंगदारी न देने पर हत्या या फिर फरवरी में लोजपा नेता बृजनाथी सिंह की और भाजपा प्रदेश उपाध्यक्ष विशेश्वर सिंह की हत्या। पत्रकार राजदेव रंजन और लोजपा नेता सुदेश पासवान की हत्या मई में की गई।

कुल मिलाकर हत्याएं या तो राजनीतिक रंजिश निकालने के लिए की गई हैं या फिर रंगदारी के लिए। खुद ही समझा जा सकता है कि बिहार में कानून-व्यवस्था की स्थिति में किस कदर गिरावट आई है।

लेकिन इस सारी स्थिति का ठीकरा सिर्फ राजद के मनबढ़ू नेताओं पर नहीं फोड़ा जा सकता। जरा सूची पर ध्यान दीजिए, सरफराज आलम, जद-यू विधायक हैं इनपर डिब्रूगढ़ राजधानी में महिला यात्री के यौन उत्पीड़न का आरोप है। कुंती देवी गया से राजद विधायक हैं इनके बेटे रंजीत यादव ने सरकारी अस्पताल में घुसकर डॉक्टरों की पिटाई की। खुद कुंती देवी पर हत्या का मामला चल रहा है।

सिद्धार्थ सिंह, कांग्रेस के विधायक हैं। इन माननीय ने जनवरी में एक नाबालिग लड़की का अपहरण कर लिया था। सिद्धार्थ पहले भी हत्या के मामले में सज़ायाफ्ता रह चुके हैं। राजवल्लभ यादव पर फरवरी मे एक नाबालिग लड़की के साथ दुष्कर्म का आरोप लगा। वह एक महीने तक फरार रहे, वैसे तो राजद ने उन्हें निलंबित कर दिया है लेकिन मामले की सुनवाई ठंडे बस्ते में है। बीमा भारती तो कानून तोड़ने नहीं, बल्कि उससे भी एक कदम आगे निकल गईं। अपने गिरफ्तार अपराधी पति को ये थाने से छुड़ा लाईं। धन्य।

गोपाल मंडल, थोड़े सभ्य हैं। यह सिर्फ धमकी देते हैं, जैसे कि विरोधियों को हत्या की धमकी देना, फिर जीभ काट लेने की धमकी देना और एक अधिकारी को गंगा में फेंक देने की धमकी देना। अब्दुल गफूर अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री सिवान जेल में जाकर सज़ायाफ्ता पूर्व सांसद मो शहाबुद्दीन से मिलने गए थे और जेल में बाकायदा उनका स्वागत बारातियों की तरह किया गया था।

अब इस कड़ी में मनोरमा देवी भी हैं जिनके योद्धा पुत्र रॉकी यादव की तस्वीर अभी भी टीवी चैनलों और अखबारों में हाथ में तमंचा लिए नूमदार हुआ करती है। इन्होंने साइड नहीं दिए जाने पर एक लड़के को गोली मार दी।

नीतीश को सिर्फ इन्हीं बाहुबलियों से जूझना नहीं है, बल्कि बिहार की शान में रहा-सहा बट्टा अत्यंत मेधावी टॉपरों ने भी लगा दिया है।

जब जद-यू और राजद की सरकार बिहार में बनी थी, तब नीतीश ने कानून-व्यवस्था के मसले पर कहा थाः मैं हूं ना।

जाहिर है, नीतीश काफी तनाव में होंगे। उनके दस साल के सुशासन बाबू की छवि को पर्याप्त दाग लग चुके हैं। चुनावी जीत के लिए मौकापरस्त गठबंधन सियासी दांव-पेंच माना जा सकता है लेकिन सरकार बनाए रखने के लिए बिहार के सियासी गुंडों को कब तक वह खुला खेल करने देते हैं यह देखना दिलचस्प होगा। ऐसे में, सियासी हरकतों पर ज़रा गौर करते रहिएः बिहार में महागठबंधन सरकार गिरने की खबर कभी भी आ सकती है। आज नहीं, छह महीने बाद, या शायद एक बरस बाद। लेकिन कुपोषण के साथ जन्मा यह शिशु ज्यादा दिन जिएगा नहीं।


मंजीत ठाकुर

Thursday, June 9, 2016

एक मुट्ठी मिट्टीः याद शहर की कहानी

एक मुट्ठी मिट्टीः मंजीत ठाकुर की यह कहानी है अपनी मां को तलाशते एक बच्चे की

एक मुट्ठी मिट्टीः मेरी यह कहानी एक सत्य घटना पर आधारित है। इसके पात्र काल्पनिक हैं..लेकिन कहानी बिलकुल सच्ची। जगहों के नाम बदले हुए हैं। परिस्थितियां भी।

अनाथ सिड को बहुत छुटपन में जर्जम मां-बाप गोद ले लेते हैं। लेकिन अपनी यादों में वह अपनी मां को और अपनी ज़मीन को, तलाशता सिड जब भारत पहुंचता है, तो कैसे खोजता है, यही है कहानी एक मुट्ठी मिट्टी।

सुनिए और गुनिए 

Tuesday, June 7, 2016

जहां न पहुंचे रवि...

बिहार के छात्रों के बीच एक कहावत बहुत मशहूर है कि जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि और जहां न पहुंच पाए कवि, वहां पहुंचे पैरवी। भुसकोल छात्रों के लिए पैरवी यानी सिफारिश उम्मीद की किरण की तरह है तो प्रतिभाशाली छात्रों के लिए एक और बाधा की तरह, जो बिहार में पढ़ने वाले बाक़ी छात्रों को भी झेलना ही होता है।

आप सबको याद होगा, कुछ बरस-डेढ़ बरस पहले बिहार के वैशाली में नकल करवाने वालो की एक तस्वीर सोशल मीडिया में, और उसके बाद मुख्यधारा की मीडिया में भी वायरल हुई थी। उस समय कहा गया कि बिहार की छवि बिगाड़ने की कोशिश है। ठीक है। लेकिन उसके बाद अभी बिहार में परीक्षा के परिणामों ने उस आरोप को एक तार्किक परिणति तक पहुंचा दिया है।

स्कूली शिक्षा में भ्रष्टाचार किस कदर जड़ जमा चुका है, उसकी मिसाल हैं टॉपर रूबी राय। वह आर्ट्स में टॉप आई हैं और उन्हें यह तक पता नहीं कि उन्होंने कुल कितने विषयों की परीक्षा दी है। हो सकता है मीडिया के सामने वह अकबका गई हों, और भूल गई हों, लेकिन जिस विषय में उन्हें 91 नंबर आए हैं, उन्हें यह भी याद नहीं कि उस विषय में पढ़ाया क्या जाता है! कुल 500 अंको की परीक्षा में उन्हें 444 अंक हासिल हुए हैं लेकिन उनके हिसाब से उनके पांच पेपरों में एक ‘पोडिकल साइंस’ विषय भी था। और इस विषय में बकौल रूबी, खाना पकाना सिखाया जाता है। बढ़िया।

अब इस बार बिहार के विज्ञान के टॉपर की सुनिए। यह हैं सौरभ श्रेष्ठ। अपने टॉप होने का श्रेय वह स्कूल की पढ़ाई और अच्छे तरीके से दोहराने को तो देते हैं लेकिन उनके हिसाब से रसायन की आवर्त सारणी में सबसे रिएक्टिव एलिमेंट एल्युमिनियम होता है। वाह! आवर्त सारणी बनाने वाले मेंडलीफ अपना माथा फोड़ रहे होंगे। और, सोडियम के इलेक्ट्रॉनिक स्ट्रक्चर में आउटर मोस्ट सर्किल में कितने इलेक्ट्रॉन होते हैं, इसका उतरा सौरभ श्रेष्ठ के पास नहीं है।

अब हकबकाया बिहार के शिक्षा बोर्ड के अधिकारी इन टॉपरों को साक्षात्कार के लिए बुलाने की योजना बना रहे हैं। और टॉपर रूबी के पिता कह रहे हैं कि उन्होंने प्रिंसिपल को बेटी का ध्यान रखने भर को कहा था, उन्होंने तो टॉपर ही बना दिया।

कोई बात नहीं। टॉपर ही बनाइए। लेकिन इस तरह की शिक्षा से बिहार का नाम कितना बदनाम हो रहा है इसपर क्या राज्य के नेता ध्यान देंगे? क्या जो बिहार अपनी प्रतिभा के लिए देश भर में मशहूर है उसके बाकी के छात्रों पर क्या बीतेगी? उनकी प्रतिष्ठा का क्या होगा? छोड़िए पुराने छात्रो की प्रतिष्ठा का, इस बार जो कथित टॉपर हैं, वह क्या नज़रें मिला पाएंगे।

किसी महान शख्स ने कहा भी है कि, अगर आप सम्मान के लायक हैं और आपको सम्मान नहीं मिलता तो शायद उतना बुरा नहीं, जितना कि आप सम्मान के लायक नहीं हैं और फिर सम्मान मिल जाए।

कल को, मुझे फीजिक्स का नोबेल मिल जाए तो क्या मैं इसी बेसाख्ता अंदाज़ में यह स्तंभ लिख पाऊंगा? लेकिन इस शर्मो-लिहाज के लिए आंखों में पानी होना चाहिए। जो पानी शायद सूखे की वजह से खत्म होती जा रही है। तभी तो बिहार में वंशवाद ने समाजवाद को खूंटी पर टांग दिया है। और बिहार ही क्यों, देश भर में जितनी समाजवादी पार्टियां है, सबकी सब जेबी पार्टियां ही तो हैं।

लेकिन बिहार का प्रसंग चल निकला है तो याद आया कि किंगमेकर लालू प्रसाद ने एक नया रिकॉर्ड कायम करने की पूरी तैयारी कर ली है। बीते नवंबर में जब बिहार के चुनाव हुए थे तो लालू के दो बेटे चुनकर विधानसभा पहुंच गए। तेजस्वी तो उप-मुख्यमंत्री भी बन गए। बिटिया मीसा यादव लोकसभा चुनाव में बीजेपी में गए रामकृपाल यादव से हार गई थीं, अब उनका करियर बनाने के लिए राज्य सभा भेजने की तैयारी है। लालू की पत्नी और पूर्व मुख्यमंत्री बिहार की पहली ऐसी मां हैं जिन्हें अपने बच्चों के साथ सदन में बैठने का गौरव हासिल है।

अब, इतने आंकड़ों के बाद क्या यह सवाल प्रासंगिक भी रह जाता है कि बिहार में प्रतिभा की कद्र होगी? वैसे, याद रखिए, लालू की नौ संतानें हैं। कुल मिलाकर उनका परिवार, (साले, भाई, चाचा-फूफा जैसे संबंधियों को छोड़कर) ग्यारह का है। लालू चाहें तो विधानसभा में चौथाई बहुमत तो सिर्फ परिवारवालों के सहारे ला सकते हैं।

आप लाख सिर पटक लीजिए, बिहार में प्रतिभा पर सिफारिश भारी पड़ती है, पड़ती रहेगी। कोई रूबी, कोई सौरभ, सर्वश्रेष्ठ छात्रों की प्रतिभा भर भारी पड़कर श्रेष्ठतम साबित होता रहेगा। जहां कवि की कल्पना भी नहीं पहुंच पाए, वहां पैरवी पहुंचती रहेगी।

मंजीत ठाकुर