ओलिंपिक खत्म हो गया है और पदक तालिका में भारत 67वें पोजीशन पर रहा। अगर मैं इस पर कुछ लिखूं तो जाहिर है यह सांप निकलने के बाद लकीर पीटने सरीखा होगा, लेकिन 119 खिलाड़ियों के दल ने जब सिर्फ दो पदक भारत की झोली में डाले, तो यह आत्मनिरीक्षण करना ज़रूरी होगा कि आखिर यह कौन सा सांप है जो हमें डस रहा है। ओलिंपिंक के बाद, शून्य स्वर्ण का यह लकीर हमें पीटनी होगी।
वैसे भारत का प्रदर्शन इसके चाल-ढाल और रवैए के लिहाज़ से खराब नहीं ठहराया जा सकता। चीनी मीडिया में हमारा मज़ाक बना तो हम तिलमिला उठे, लेकिन आपकी तिलमिलाहट उस वक्त कहां खो गई थी, जब हमने मैराथन थावक जेशा को बिना पानी के ट्रैक पर धराशायी होते देखा।
ठीक भी है, अपने देश में तो ‘खेलोगे-कूदोगे बनोगे खराब’ का मुहाविरा बहुत पॉपुलर है। तो हम पूरी कोशिश करते हैं कि हमारे बच्चे खेलते-कूधते खराब न हो जाएं। वैसे मुहाविरे का दूसरा हिस्सा हैः पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नव्वाब। अलबत्ता, भारत में नव्वाबों की गिनती भी बेहद कम ही है।
चुनांचे, ऐसे नवाबों ने फेसबुक पर मेरी गत बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ ऱखी। मैं भारत के इस बदतरीन प्रदर्शन से नाखुश था और मैंने कहा कि भारत का यह शून्य काल है और भारत ने चूंकि, शून्य की खोज की है इसलिए भारत भी शून्य पदक ही लाएगा। बहरहाल, मेरे इन जानी दोस्तों ने, सबसे पहले साक्षी मलिक और फिर पी वी सिंधु के पदक तालिका में जगह पक्की करते ही मुझे तस्वीरों में टैग करके गरियाना शुरू किया।
लेकिन यकीन मानिए, मैं अभी भी कह रहा हूं यह भारतीय खेलों का शून्यकाल ही है। यह न कहिएगा कि जनता की खेलों में रूचि नहीं है। जीतने वाले खिलाड़ी पर सबकी निगाहें टिकती हैं। खुद मैंने रियो से पहले कभी बैडमिन्टन का मैच पूरा नहीं देखा था। साइना नेहवाल का मैच भी नहीं। लेकिन सिंधु ने उम्मीद जगाई तो सारा देश टीवी की ओर स्वर्ण पदक के सूखे के खत्म होने की बेकरारी से देख रहा था।
हॉकी और तमाम ऐसे ही खेलों के भारत में बहुत ज्यादा लोकप्रिय नहीं होने, जाहिर है इसमें मानक क्रिकेट है, के लिए क्रिकेट की अपार लोकप्रियता को दोषी ठहराया जाता है। लेकिन क्या यह सच नहीं कि भारत में क्रिकेट की लोकप्रियता अपने सर्वोच्च पायदान की तरफ तब बढ़ी जब भारत ने पहली बार विश्वकप 1983 में जीता था?
पदक हो या कप, आपको जीतकर दिखाना होगा।
जहां तक इन पदकों के लिए सुविधाओं की बात है, अगर इस मामले में सच में ईमानदारी होती और शून्य नहीं होता, और खिलाड़ियों के चयन में ही ईमानदारी अपनाकर भाई-भतीजावाद नहीं होता, उसी से हमारी प्रतिभाएं हमें विश्व बिरादरी में सर उठाकर चलने लायक बना देतीं। फिर आता है, खेलों के गैर-बराबरी का बरताव और सुविधाओं का अभाव। जाहिर है, खेल संघों में जबरदस्त राजनीति, भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार ने हमारे देश में खेलों को नुकसान पहुंचाया है।
खैर, खेल संघों की छोड़िए, वह तो होते ही है राजनीतिज्ञों के लिए नेट प्रैक्टिस करने की जगह। जरा अपने आसपास ही नजर दौड़ाइए। क्या आपके मुहल्ले में खेल का मैदान है? क्या आपने दिल्ली, मुंबई समेत तमाम महानगरों में नगर प्लानिंग में इमारतों के जंगल के बीच छुटके पार्कों के अलावा कहीं खेल मैदान की जगह देखी भी है? क्यों होगी? खेल के मैदानों से बिल्डरों को कोई फायदा नहीं होता। शायद समाज को होता है और बिल्डरों का समाज से कोई लेना-देना नहीं।
मुहल्ला छोड़िए, आप आसपास के कॉलेजों में ही नजर डाल लें, तो आपको गिनती के कॉलेजों में खेल की सुविधाएं या मैदान दिखेंगे। कभी पास के मॉल में विंडो शॉपिंग करने वालों पर नज़र डालिएगा, तकरीबन हर तीसरा आदमी आपको स्पोर्ट्स शू और ट्रैक सूट में नजर आएगा। चाहे वह कभी भी कसरत न करे लेकिन ट्रैक सूट जरूर पहनेगा। चाय मे चीनी पीना छोड़ देगा लेकिन व्यायाम नहीं कर पाएगा।
भारतीय लोगों के पास खेल के लिए वक्त की खासी कमी होती है। असल में यही शून्यवाद है। फेसबुक पर मेरे ऐसे ही पोस्ट्स की वजह से एक शख्स ने मुझसे कहाः भारत को नीचा दिखाते वक्त तुम्हें शर्म नहीं आती? तुमने जीवन में क्या किया है, कभी कोई पुरस्कार जीता? तो देश के खिलाड़ियों से पदक की उम्मीद क्यों?
ठीक है, मैं पदक की उम्मीद नहीं रखता। लेकिन फिर आप दर्शक पाने की उम्मीद भी न करें। खेल को बढ़ावा देने के लिए जीतने की आदत, किलर इंस्टिंक्ट पैदा करनी होगी, तमाम शाबासियां अपनी जगह, लेकिन दीपा करमाकर अगर चौथे की बजाय, कांसा, चांदी या सोने का तमगा जीत लाती तो क्या हमें और अच्छा नहीं लगता! लेकिन उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर की सुविधाएं नहीं मिलीं। मिलतीं तो उन्हें पदक भी मिलता। निजी प्रयासों से पदक जीतना प्रतियोगिता के इस गलाकाट दौर में मुश्किल ही नहीं, तकरीबन नामुमकिन है।
और हां, ओलिंपिक का ध्येय वाक्य चाहे लाख सब दोहराएं कि जीतने से अहम होता है खेल में हिस्सा लेना, लेकिन सिर्फ हारते रहने और हिस्सा लेते रहने की उबाऊ प्रक्रिया का अंग बने रहना भी कोई बहुत उम्दा बात नहीं है। और हां, पत्रकारिता पदकों के लिए नहीं की जाती है।
वैसे भारत का प्रदर्शन इसके चाल-ढाल और रवैए के लिहाज़ से खराब नहीं ठहराया जा सकता। चीनी मीडिया में हमारा मज़ाक बना तो हम तिलमिला उठे, लेकिन आपकी तिलमिलाहट उस वक्त कहां खो गई थी, जब हमने मैराथन थावक जेशा को बिना पानी के ट्रैक पर धराशायी होते देखा।
ठीक भी है, अपने देश में तो ‘खेलोगे-कूदोगे बनोगे खराब’ का मुहाविरा बहुत पॉपुलर है। तो हम पूरी कोशिश करते हैं कि हमारे बच्चे खेलते-कूधते खराब न हो जाएं। वैसे मुहाविरे का दूसरा हिस्सा हैः पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नव्वाब। अलबत्ता, भारत में नव्वाबों की गिनती भी बेहद कम ही है।
चुनांचे, ऐसे नवाबों ने फेसबुक पर मेरी गत बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ ऱखी। मैं भारत के इस बदतरीन प्रदर्शन से नाखुश था और मैंने कहा कि भारत का यह शून्य काल है और भारत ने चूंकि, शून्य की खोज की है इसलिए भारत भी शून्य पदक ही लाएगा। बहरहाल, मेरे इन जानी दोस्तों ने, सबसे पहले साक्षी मलिक और फिर पी वी सिंधु के पदक तालिका में जगह पक्की करते ही मुझे तस्वीरों में टैग करके गरियाना शुरू किया।
लेकिन यकीन मानिए, मैं अभी भी कह रहा हूं यह भारतीय खेलों का शून्यकाल ही है। यह न कहिएगा कि जनता की खेलों में रूचि नहीं है। जीतने वाले खिलाड़ी पर सबकी निगाहें टिकती हैं। खुद मैंने रियो से पहले कभी बैडमिन्टन का मैच पूरा नहीं देखा था। साइना नेहवाल का मैच भी नहीं। लेकिन सिंधु ने उम्मीद जगाई तो सारा देश टीवी की ओर स्वर्ण पदक के सूखे के खत्म होने की बेकरारी से देख रहा था।
हॉकी और तमाम ऐसे ही खेलों के भारत में बहुत ज्यादा लोकप्रिय नहीं होने, जाहिर है इसमें मानक क्रिकेट है, के लिए क्रिकेट की अपार लोकप्रियता को दोषी ठहराया जाता है। लेकिन क्या यह सच नहीं कि भारत में क्रिकेट की लोकप्रियता अपने सर्वोच्च पायदान की तरफ तब बढ़ी जब भारत ने पहली बार विश्वकप 1983 में जीता था?
पदक हो या कप, आपको जीतकर दिखाना होगा।
जहां तक इन पदकों के लिए सुविधाओं की बात है, अगर इस मामले में सच में ईमानदारी होती और शून्य नहीं होता, और खिलाड़ियों के चयन में ही ईमानदारी अपनाकर भाई-भतीजावाद नहीं होता, उसी से हमारी प्रतिभाएं हमें विश्व बिरादरी में सर उठाकर चलने लायक बना देतीं। फिर आता है, खेलों के गैर-बराबरी का बरताव और सुविधाओं का अभाव। जाहिर है, खेल संघों में जबरदस्त राजनीति, भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार ने हमारे देश में खेलों को नुकसान पहुंचाया है।
खैर, खेल संघों की छोड़िए, वह तो होते ही है राजनीतिज्ञों के लिए नेट प्रैक्टिस करने की जगह। जरा अपने आसपास ही नजर दौड़ाइए। क्या आपके मुहल्ले में खेल का मैदान है? क्या आपने दिल्ली, मुंबई समेत तमाम महानगरों में नगर प्लानिंग में इमारतों के जंगल के बीच छुटके पार्कों के अलावा कहीं खेल मैदान की जगह देखी भी है? क्यों होगी? खेल के मैदानों से बिल्डरों को कोई फायदा नहीं होता। शायद समाज को होता है और बिल्डरों का समाज से कोई लेना-देना नहीं।
मुहल्ला छोड़िए, आप आसपास के कॉलेजों में ही नजर डाल लें, तो आपको गिनती के कॉलेजों में खेल की सुविधाएं या मैदान दिखेंगे। कभी पास के मॉल में विंडो शॉपिंग करने वालों पर नज़र डालिएगा, तकरीबन हर तीसरा आदमी आपको स्पोर्ट्स शू और ट्रैक सूट में नजर आएगा। चाहे वह कभी भी कसरत न करे लेकिन ट्रैक सूट जरूर पहनेगा। चाय मे चीनी पीना छोड़ देगा लेकिन व्यायाम नहीं कर पाएगा।
भारतीय लोगों के पास खेल के लिए वक्त की खासी कमी होती है। असल में यही शून्यवाद है। फेसबुक पर मेरे ऐसे ही पोस्ट्स की वजह से एक शख्स ने मुझसे कहाः भारत को नीचा दिखाते वक्त तुम्हें शर्म नहीं आती? तुमने जीवन में क्या किया है, कभी कोई पुरस्कार जीता? तो देश के खिलाड़ियों से पदक की उम्मीद क्यों?
ठीक है, मैं पदक की उम्मीद नहीं रखता। लेकिन फिर आप दर्शक पाने की उम्मीद भी न करें। खेल को बढ़ावा देने के लिए जीतने की आदत, किलर इंस्टिंक्ट पैदा करनी होगी, तमाम शाबासियां अपनी जगह, लेकिन दीपा करमाकर अगर चौथे की बजाय, कांसा, चांदी या सोने का तमगा जीत लाती तो क्या हमें और अच्छा नहीं लगता! लेकिन उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर की सुविधाएं नहीं मिलीं। मिलतीं तो उन्हें पदक भी मिलता। निजी प्रयासों से पदक जीतना प्रतियोगिता के इस गलाकाट दौर में मुश्किल ही नहीं, तकरीबन नामुमकिन है।
और हां, ओलिंपिक का ध्येय वाक्य चाहे लाख सब दोहराएं कि जीतने से अहम होता है खेल में हिस्सा लेना, लेकिन सिर्फ हारते रहने और हिस्सा लेते रहने की उबाऊ प्रक्रिया का अंग बने रहना भी कोई बहुत उम्दा बात नहीं है। और हां, पत्रकारिता पदकों के लिए नहीं की जाती है।
मंजीत ठाकुर