वाकया पिछले साल का है। बिहार में चुनाव का दौरे-दौरा था और हम उसी तरह हम भी इलाके में घूम रहे थे। पिछले साल 30 अक्तूबर को दीवाली नहीं थी। दशहरे के बाद का मौसम था..।
मधुबनी में रजनीश के झा से मुलाकात के बाद, और उनके घर में शानदार भोजन के बाद हमने रात दरभंगे में बिताई और हम सहरसा-अररिया में महादलितों पर आधे घंटे कि स्पेशल स्टोरी के लिए निकल पड़े थे। तारीख थी 30 अक्तूबर की।
दिन भर शूट करने के बाद हम और आगे निकलते गए। कोसी के कछारों की तरफ...लेकिन शाम 4 बजे ही बूंदा-बांदी शुरू हो गई और अंधेरा छा गया। अब कैमरा नाकाम हो जाने वाला था। अंधेरे में कुछ शूट करना मुमकिन नहीं था।
फिर हम वापस लौट चले।
हमें पूर्णिया जाना था क्योंकि 1 नवंबर को पूर्णिया में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की रैली थी। और वहां से खबरों का पुलिन्दा गिरने की उम्मीद की जा रही थी। बिहार के इस इलाके में आखिरी चरण में मतदान होना था और यह निर्णायक भी था।
बहरहाल, पूर्णिया का फोरलेन ट्रैक पकड़ने से पहले हम स्टेट हाईवे पर चल रहे थे, और अररिया के पास सात बज गए थे। स्टेट हाईवे बना तो अच्छा है और वाकई अच्छा बना है लेकिन सड़को के किनार साइनेज़ नहीं लगे हैं। यानी आप अगर रात में चल रहे हैं तो आपको क़त्तई गुमान नहीं होगा कि आगे मोड़ है या है भी तो कितना है। अस्तु।
तो साहब, रात के घुप्प अंधेरे में गाड़ी में हम चार लोग थे। मैं, कैमरामैन आरके, कैमरा असिस्टेंट श्रीनिवास और ड्राइवर तिवारी। गाड़ी की स्पीड सत्तर से थोड़ी ऊपर ही। मैं अगली सीट पर बैठना पसंद करता हूं तो नज़र चली ही जाती है स्पीडोमीटर पर।
अब अगले तीन सेकेन्ड की कहानी सुनिएः
चले जा रहे थे कि अचानक, ड्राइवर ने स्टीयरिंग घुमानी शुरू की, मैंने देखा सामने सड़की में मोड़ है। कितना मोड़ है यह अंदाज़ा नहीं। स्पीड में गाड़ी घूमती ही जा रही थी कि अचानक सामने से ट्रक की हेडलाइट से पता चला कि मोड़ और भी हैं। ट्रक से बचने के लिए ड्राइवर ने स्टीयरिंग को हल्की-सी जुंबिश दी, अपनी तरफ काटा। बस फिर क्या था, गाड़ी कोलतार से नीचे उतरी। कोलतार और मिट्टी में करीब एक फुट का अंतर था। मेरे पैरों के नीचे वाला पहिया नीचे झुका कि बस गाड़ी फिसल गई और ऊपर सड़क से नीचे पंद्र फुट गड्ढे में जा गिरी।
और सिर्फ गिरी क्यों...एक के बाद एक चार पलटे खाए। मेरी आंखें खुली हुई थीं। स्थिति की नज़ाकत को देखते हुए मैंने विंडो के ऊपर वाले हैंडल को मजबूती से पकड़ लिया और पैर आगे जमा दिए। मुझे लगा कि मैं भी गाड़ी की बॉडी का हिस्सा बन गया हूं। गाड़ी के साथ ही सारी मूवमेंट, बाकी शरीर को गाड़ी से साथ जकड़ दिया। सांस ऊपर की ऊपर, नीचे की नीचे...।
चार बार पलटने के बाद पांचवी बार में गाड़ी की छत नीचे और पहिए ऊपर।
तीन सेंकेन्ड पूरे।
मुझे भान हुआ कि मैं एक उलटी हुई गाड़ी में हूं और इंजन अब भी चालू है तो सामने वाली खिड़की के टूटे हुए कांच के रास्ते बाहर आया। कैमरामैन आरके और श्रीनिवास बाहर निकाले। ड्राइवर फंसा हुआ था, उसे भी हमलोगों ने निकाला।
तब तक ग्रामीणों की भीड़ आ गई थी। मुझे आशंका थी कि गाड़ी में से धुआं निकल रहा है कहीं आग न लग जाए। तो हमने पहले तो सबको किनारे किया। फिर जब आग की आशंका कम हुई तो सबने अपने सामान ढूढे। एक ग्रामीण ने मुझे बताया कि सब सामान इकट्ठा कर लो, नहीं तो लोग ऐसे हैं कि चुरा ले जाएंगे। ऐसा पहले भी कई बार हुआ है।
मैं ने खुद को हिला-डुलाकर देखा। मैं सही सलामत था, कंधे पर चोट आई थी जो अब भी बरकरार है। श्रीनिवास की पसलियों चोट थी जो बाद में दिल्ली आकर पता लगा कि फ्रैक्चर था।
आरके सही सलामत है। उसकी शादी कुछ ही महीनों बाद थी और मुझे उसकी चिंता अधिक थी।
थोड़े आपे में आए तो हमने अपनी दूसरी टीमों को फोन किया। दफ्तर को बताया सारी अस्पताल में कटी। पूर्णिया में। वहां से विनय तिवारी गाड़ी लेकर आए थे। हमे ले जाने के लिए। हमारा ड्राइवर भी सही सलामत था।
शुक्र यह रहा कि चोट किसी को बहुत ज्यादा नहीं आई। वरना मौके पर पहुंचे दारोगा ने हमें बताया कि इसी मोड़ पर 28 एक्सीडेंट हो चुके हैं दो साल में। और अभी तक यहां दुर्घटना में कोई नहीं बचा था।
हम बच गए।
और सच कहूं तो मुझे लगा था कि किसी ने मुझे गोद में उठा लिया है। अगले दिन भाई गिरीन्द्रनाथ आए थे। मिलने के लिए। बहुत सारी बातें बताईं उन्होंने मुझे, उसका किस्सा फिर कभी।
मधुबनी में रजनीश के झा से मुलाकात के बाद, और उनके घर में शानदार भोजन के बाद हमने रात दरभंगे में बिताई और हम सहरसा-अररिया में महादलितों पर आधे घंटे कि स्पेशल स्टोरी के लिए निकल पड़े थे। तारीख थी 30 अक्तूबर की।
दिन भर शूट करने के बाद हम और आगे निकलते गए। कोसी के कछारों की तरफ...लेकिन शाम 4 बजे ही बूंदा-बांदी शुरू हो गई और अंधेरा छा गया। अब कैमरा नाकाम हो जाने वाला था। अंधेरे में कुछ शूट करना मुमकिन नहीं था।
फिर हम वापस लौट चले।
हमें पूर्णिया जाना था क्योंकि 1 नवंबर को पूर्णिया में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की रैली थी। और वहां से खबरों का पुलिन्दा गिरने की उम्मीद की जा रही थी। बिहार के इस इलाके में आखिरी चरण में मतदान होना था और यह निर्णायक भी था।
बहरहाल, पूर्णिया का फोरलेन ट्रैक पकड़ने से पहले हम स्टेट हाईवे पर चल रहे थे, और अररिया के पास सात बज गए थे। स्टेट हाईवे बना तो अच्छा है और वाकई अच्छा बना है लेकिन सड़को के किनार साइनेज़ नहीं लगे हैं। यानी आप अगर रात में चल रहे हैं तो आपको क़त्तई गुमान नहीं होगा कि आगे मोड़ है या है भी तो कितना है। अस्तु।
तो साहब, रात के घुप्प अंधेरे में गाड़ी में हम चार लोग थे। मैं, कैमरामैन आरके, कैमरा असिस्टेंट श्रीनिवास और ड्राइवर तिवारी। गाड़ी की स्पीड सत्तर से थोड़ी ऊपर ही। मैं अगली सीट पर बैठना पसंद करता हूं तो नज़र चली ही जाती है स्पीडोमीटर पर।
अब अगले तीन सेकेन्ड की कहानी सुनिएः
चले जा रहे थे कि अचानक, ड्राइवर ने स्टीयरिंग घुमानी शुरू की, मैंने देखा सामने सड़की में मोड़ है। कितना मोड़ है यह अंदाज़ा नहीं। स्पीड में गाड़ी घूमती ही जा रही थी कि अचानक सामने से ट्रक की हेडलाइट से पता चला कि मोड़ और भी हैं। ट्रक से बचने के लिए ड्राइवर ने स्टीयरिंग को हल्की-सी जुंबिश दी, अपनी तरफ काटा। बस फिर क्या था, गाड़ी कोलतार से नीचे उतरी। कोलतार और मिट्टी में करीब एक फुट का अंतर था। मेरे पैरों के नीचे वाला पहिया नीचे झुका कि बस गाड़ी फिसल गई और ऊपर सड़क से नीचे पंद्र फुट गड्ढे में जा गिरी।
और सिर्फ गिरी क्यों...एक के बाद एक चार पलटे खाए। मेरी आंखें खुली हुई थीं। स्थिति की नज़ाकत को देखते हुए मैंने विंडो के ऊपर वाले हैंडल को मजबूती से पकड़ लिया और पैर आगे जमा दिए। मुझे लगा कि मैं भी गाड़ी की बॉडी का हिस्सा बन गया हूं। गाड़ी के साथ ही सारी मूवमेंट, बाकी शरीर को गाड़ी से साथ जकड़ दिया। सांस ऊपर की ऊपर, नीचे की नीचे...।
चार बार पलटने के बाद पांचवी बार में गाड़ी की छत नीचे और पहिए ऊपर।
तीन सेंकेन्ड पूरे।
मुझे भान हुआ कि मैं एक उलटी हुई गाड़ी में हूं और इंजन अब भी चालू है तो सामने वाली खिड़की के टूटे हुए कांच के रास्ते बाहर आया। कैमरामैन आरके और श्रीनिवास बाहर निकाले। ड्राइवर फंसा हुआ था, उसे भी हमलोगों ने निकाला।
तब तक ग्रामीणों की भीड़ आ गई थी। मुझे आशंका थी कि गाड़ी में से धुआं निकल रहा है कहीं आग न लग जाए। तो हमने पहले तो सबको किनारे किया। फिर जब आग की आशंका कम हुई तो सबने अपने सामान ढूढे। एक ग्रामीण ने मुझे बताया कि सब सामान इकट्ठा कर लो, नहीं तो लोग ऐसे हैं कि चुरा ले जाएंगे। ऐसा पहले भी कई बार हुआ है।
मैं ने खुद को हिला-डुलाकर देखा। मैं सही सलामत था, कंधे पर चोट आई थी जो अब भी बरकरार है। श्रीनिवास की पसलियों चोट थी जो बाद में दिल्ली आकर पता लगा कि फ्रैक्चर था।
आरके सही सलामत है। उसकी शादी कुछ ही महीनों बाद थी और मुझे उसकी चिंता अधिक थी।
थोड़े आपे में आए तो हमने अपनी दूसरी टीमों को फोन किया। दफ्तर को बताया सारी अस्पताल में कटी। पूर्णिया में। वहां से विनय तिवारी गाड़ी लेकर आए थे। हमे ले जाने के लिए। हमारा ड्राइवर भी सही सलामत था।
शुक्र यह रहा कि चोट किसी को बहुत ज्यादा नहीं आई। वरना मौके पर पहुंचे दारोगा ने हमें बताया कि इसी मोड़ पर 28 एक्सीडेंट हो चुके हैं दो साल में। और अभी तक यहां दुर्घटना में कोई नहीं बचा था।
हम बच गए।
और सच कहूं तो मुझे लगा था कि किसी ने मुझे गोद में उठा लिया है। अगले दिन भाई गिरीन्द्रनाथ आए थे। मिलने के लिए। बहुत सारी बातें बताईं उन्होंने मुझे, उसका किस्सा फिर कभी।
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "जीवन के यक्ष प्रश्न - ब्लॉग बुलेटिन“ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteJako rakhe Saiiyan ,mar sake n koy
ReplyDeleteओह !जीवंत वर्णन ।
ReplyDeleteओह !जीवंत वर्णन ।
ReplyDeleteवाकई जाको राखे सांईयाँ ।
ReplyDeleteजाको राखे साईंया मार सके ना कोय
ReplyDeletedil dehla dene wala wakya ... ishwar kare aisi ghatna life me fir kabhi aapke saath na ho .
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