Saturday, November 19, 2016

बेपानी सियासत में पानी की राजनीति

चुनावी वक्त में पानी की तरह रूपया ज़रूर बहाया जाता है लेकिन पानी को पानी की ही तरह बहाना मुद्दा है। ताजा विवाद पंजाब बनाम हरियाणा का है, जहां मसला सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद गहरा गया। शीर्ष अदालत ने पंजाब सरकार को बड़ा झटका देते हुए सतलज का पानी हरियाणा को देने का आदेश दिया था। लेकिन, गुरूवार यानी 17 नवंबर को उच्चतम न्यायालय पंजाब द्वारा सतलुज-यमुना संपर्क नहर के लिए भूमि पर यथास्थिति बनाए रखने के शीर्ष अदालत के अंतरिम आदेश का कथित उल्लंघन करने के मामले में हरियाणा की याचिका पर 21 नवंबर को सुनवाई के लिए सहमत हो गया।

अदालत के सामने हरियाणा सरकार के वकील ने इस याचिका का उल्लेख करते हुए इस पर तुरंत सुनवाई का अनुरोध किया था। हरियाणा का कहना था कि नहर परियोजना के निमित्त भूमि पर यथास्थिति बनाए रखने का पंजाब सरकार को निर्देश देने संबंधी ऊपरी अदालत के पहले के आदेश का हनन करने के प्रयास हो रहे हैं।

हाल ही में पंजाब सरकार ने इस परियोजना के निमित्त अधिग्रहीत भूमि को तत्काल प्रभाव से अधिसूचना के दायरे से बाहर करने और इसे मुफ्त में इसके मालिकों को लौटाने का फैसला किया था। राज्य सरकार का यह निर्णय काफी महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि न्यायमूर्ति दवे की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय पीठ ने पिछले सप्ताह पंजाब समझौता निरस्तीकरण, 2004 कानून को असंवैधानिक करार दिया था। इस कानून के जरिए ही पंजाब ने हरियाणा के साथ जल साझा करने संबंधी 1981 के समझौते को एकतरफा निरस्त कर दिया था।

शीर्ष अदालत ने राष्ट्रपति को भेजी अपनी राय में कहा था कि पंजाब समझौते को ‘एकतरफा’ निरस्त नहीं कर सकता है और न ही शीर्ष अदालत के निर्णय को ‘निष्प्रभावी’ बना सकता है।

वैसे, पंजाब और हरियाणा के बीच सतलुज यमुना के जल-बंटवारे को लेकर विवाद पचास साल से भी ज्यादा पुराना है। पंजाब सरकार का पक्ष है कि उनके सूबे में भूमिजल स्तर बेहद कम है। अगर पंजाब ने सतलुज-यमुना नहर के जरिए हरियाणा को पानी दिया तो पंजाब में पानी का संकट खड़ा हो जाएगा। वहीं हरियाणा सरकार सतलुज के पानी पर अपना दावा ठोंक रही है।

चुनावी वक्त में पानी ने पंजाब की राजनीति को गरमा दिया है। इस मुद्दे पर पंजाब के विधायकों और कुछ सांसदो ने इस्तीफे का दौर भी चला।

दरअसल, इस विवाद की शुरूआत तो सन् 1966 में पंजाब के पुनर्गठन के साथ ही हो गई थी। इसी साल हरियाणा राज्य का गठन हुआ था। लेकिन पंजाब और हरियाणा के बीच नदियों के पानी का बंटवारा तय नहीं हो पाया था।

उस वक्त, केन्द्र सरकार ने एक अधिसूचना जारी की थी, जिसके तहत कुल 7.2 एमएएफ (मिलियन एकड़ फीट) में से 3.5 एमएएफ पानी हरियाणा को दिया जाना था। इसी पानी को हरियाणा तक लाने के वास्ते सतलुज-यमुना नहर (एसवाईएल) बनाने का फैसला हुआ। इस नहर की कुल लम्बाई 212 किलोमीटर है।

हरियाणा को पानी की जरूरत थी, सो उसने अपने हिस्से की 91 किलोमीटर नहर तयशुदा वक्त में पूरी कर ली। लेकिन, पंजाब ने अपने हिस्से की 122 किमी लम्बी नहर का निर्माण को अभी तक लटकाए रखा है। यही नहीं, पंजाब ने इसी साल यानी 2016 के मार्च में नहर निर्माण के लिए अधिग्रहीत ज़मीनें किसानों को वापस करने का फैसला कर लिया। इसका एक मतलब यह भी है कि पंजाब ने हरियाणा को पानी न देने की अपनी नीयत साफ कर दी।

नतीजतन, हरियाणा सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। शीर्ष अदालत ने पंजाब को यथास्थिति बनाए रखने का निर्देश दिया। लेकिन अब इस मामले पर अन्तिम फैसला सुनाते हुए न्यायालय ने नहर का निर्माण को पूरा करने का फैसला सुना दिया है।

हालांकि इसी तरह के रोड़े अटकाए जाने के दौरान अदालत 1996 और 2004 में भी यही फैसला सुना चुकी है। इस दौरान कांग्रेस और अकाली दल भाजपा गठबन्धन की सरकारें पंजाब में रहीं, लेकिन नहर के निर्माण को किसी ने गति नहीं दी। मसलन एक तरह से न्यायालय के आदेश की अवमानना की स्थिति बनाई जाती रही।

ऐसा नहीं है कि इस मुद्दे को सुलझाने की कोशिशें नहीं हुईं। 31 दिसंबर, 1981 को केन्द्र सरकार ने पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के मुख्यमंत्रियों की बैठक इसी मसले पर बुलाई थी। बैठक में रावी-व्यास नदियों में अतिरिक्त पानी की उपलब्धता का भी अध्ययन कराया गया।

इस समय पानी की उपलब्धता 158.50 लाख एमएएफ से बढ़कर 171.50 लाख एमएएफ हो गई थी। इसमें से 13.2 लाख एमएएफ अतिरिक्त पानी पंजाब को देने का प्रस्ताव मंजूर करते हुए तीनों राज्यों ने समझौता-पत्र पर हस्ताक्षर भी कर दिए थे। शर्त थी कि पंजाब सतलुज-यमुना लिंक नहर बनाएगा। काम को तेज़ी के लिए तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 8 अप्रैल, 1982 को पटियाला जिले के कपूरी गाँव के पास नहर की खुदाई का भूमि-पूजन भी किया। लेकिन तभी सन्त लोंगोवाल की अगुआई में अकाली दल ने नहर निर्माण के खिलाफ धर्म-युद्ध छेड़ दिया। नतीजतन पूरे पंजाब में इस नहर के खिलाफ एक आंदोलन जैसी स्थिति पैदा हो गई।

राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद राजीव-लोंगोवाल समझौते पर हस्ताक्षर हुए। जिसकी शर्तों में अगस्त 1986 तक नहर का निर्माण पूरा करने पर सहमति बनी। साथ ही, सुप्रीम कोर्ट के जज की अध्यक्षता में प्राधिकरण गठित किया गया, जिसने साल 1987 में रावी-व्यास के अतिरिक्त पानी को पंजाब और हरियाणा दोनों ही राज्यों में बांटने का फैसला लिया। लेकिन यह फैसला भी ठंडे बस्ते में चला गया।

जब पंजाब के मुख्यमंत्री सुरजीत सिंह बरनाला था, तो उन्होंने राजीव-लोंगोवाल समझौते के तहत नहर का काम शुरू करवा दिया, लेकिन फिर पंजाब में उग्रवादियों ने नहर निर्माण में काम करने वाले 35 मजदूरों का नरसंहार कर दिया। बाद में नहर के दो इंजीनियरों की भी हत्या कर दी गई। इसके बाद काम रूक गया।

1990 में तत्कालीन मुख्यमंत्री हुकुम सिंह ने केन्द्र सरकार की मदद से नहर का अधूरा काम किसी केन्द्रीय एजेंसी से कराने की पहल की। सीमा सड़क संगठन को यह काम सौंपा भी गया, किन्तु शुरू नहीं हो पाया। मार्च 2016 में तो पंजाब ने सभी समझौतों को दरकिनार करते हुए नहर के लिये की गई 5376 एकड़ भूमि के अधिग्रहण को निरस्त करने का ही फैसला ले लिया।

लेकिन पंजाब में सियासी दल जिस तरह के रूख पर अड़े हैं, उससे यह कावेरी मसले की तरह के विवाद में बने रहने की ही आशंका है। लगता नहीं कि यह मुद्दा फौरी तौर पर सुलझ भी पाएगा।

एक बात साफ है कि आने वाले विधानसभा चुनाव में सियासतदानों की नज़रें सिर्फ वोटों पर ही हैं, समावेशी विकास में पंजाब और हरियाणा एक साथ नहीं आ सकते, यह बात भी स्पष्ट हो रही है।




मंजीत ठाकुर

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