टिकाऊ विकास से बचेंगी भावी पीढ़ियां, यह समझना ज़रूरी कि हम सारे संसाधन खुद ही खर्च कर देंगे या कुछ बचाकर भी रखेंगे।
मंजीत ठाकुर
इस वक्त जब पूरी दुनिया में पर्यावरण को लेकर खास चिंताएं हैं, और हाल ही में दुनिया भर ने दिल्ली में फैले दमघोंटू धुएं का कहर देखा, एक दफा फिर से आबो-हवा की देखभाल और उसकी चिंताएं और उससे जुड़े कारोबार पर गौर करना बेहद महत्वपूर्ण लगने लगा है।
सबसे बड़ी बात कि हम लोग अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए क्या संसाधन छोड़कर जाने वाले हैं? क्या हम उनको प्रदूषित पानी, बंजर ज़मीन और सांस न लेने लायक हवा की सौगात विरासत के रूप में देने वाले हैं? शायद इसीलिए जानकार टिकाऊ विकास या सतत विकास की बात करते हैं ताकि हम प्रकृति से जितना लें, उसे उतना ही वापस करें। आखिर, एक दिन जब धरती की कोख में समाया सारा कोयला, पेट्रोल और प्राकृतिक गैस का ख़ज़ाना खत्म हो जाएगा, तब ऊर्जा की हमारी ज़रूरतें कहां से पूरी होंगी? हम लोग क्लीन एनर्जी यानी स्वच्छ ऊर्जा तकनीकों में क्या हासिल कर पाएं हैं और वह तकनीकें आम जनता की जेब की ज़द में हैं भी या नहीं।
असल में, ऐसा नहीं है कि सरकारें कोशिश नहीं करती। दिक्कत हमारे विभिन्न मंत्रालयों (और विभागों, केन्द्र सरकार और राज्य सरकार के बीच नीतियों में समन्वय की कमी की है।
पिछले कई दशकों से आर्थिक विशेषज्ञ अर्थनीति-जिसे विचित्र रूप से एकआयामी दृष्टिकोण के बावजूद, विज्ञान कहा जाता है-की भाषाओं में गुड और बैड मनी की परिभाषाएं देते रहे हैं। ऐसे उद्योग, जो संसाधनों का दोहन करते हैं और आबो-हवा को प्रदूषित, लेकिन फायदे में चल रहे हैं, पैसा कमा रहे हैं, उन उद्योगों को लाभकारी उद्योग कहा जाता है, जबकि ऐसे काम जिसमें पर्यावरण और आम इंसान की सेहत का खयाल भी रखते हैं लेकिन कारोबार के नजरिए से जो पैसे नहीं बनाते, वह बैड इकॉनमी के तहत आते हैं। आह! इस नज़रिए से देहातों में अच्छी सड़कें बनाना, जाहिर है, अच्छा है और वनों को संरक्षित करना बुरी आर्थिकी है।
यानी व्यवस्था पिछले तीस बरसों में आर्थिक चश्में से ही हर काम को देखती आई है।
संविधान के तहत, भारत का हर नागरिक प्राकृतिक संसाधनों से मिलने वाले लाभों, खासकर पारिस्थितिकी-वन-ज़मीन और मिट्टी से जुड़ी चीज़ों के सामाजिक फायदों और सेवाओं में बराबर का हक़दार है।
संविधान प्रदत्त इस न्याय व्यवस्था की बुनियादी बात ही यह है कि कोई आर्थिक क्रियाकलाप कम-से-कम ऐसी ही हो जिससे कोई नुकसान न पहुंचे, और सामान्य तौर पर इस तरह से संपन्न की जानी चाहिए कि इससे किसी को नुकसान न पहुंचे, लोगों का जीवन-स्तर ऊपर उठे। ऐसी व्यवस्था यह तय करने के लिए बनाई गई थी कि समाज और अर्थव्यवस्था के हाशिए पर पड़े वंचित तबके को इसका अधिक फायदा मिले।
विकास की किसी भी गतिविधि की योजना ऐसी बननी चाहिए कि जल-जंगल-जमीन जैसे कुदरती संसाधन संरक्षित किए जा सकें और उनका इस्तेमाल इस तरह हो कि वह टिकाऊ विकास के खांचे में फिट बैठ सकें और उनको भावी पीढ़ियों के लिए बचाया जाए। इस योजना में यह भी तय किया जाना चाहिए कि इन गतिविधियों में काम करने वाले या उसके आसपास रहने वाले लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ न हो।
टिकाऊ विकास विज्ञान अभी बहुत नया है, यह सोच और अवधारणा नई है फिर भी यह इतनी साफगोई से कई बातें बताता है जिनमें समाज में बराबरी की अवधारणा भी है। यह सरल उपाय सुझाता है। यह किसी भी समाज में महिलाओं की स्थिति, सभी लोगों के स्वास्थ्य, शिक्षा और औसत आयु जैसे मानकों की गणना करके समस्या के उपाय बताता है, जिसे जानकार गिनी कोएफिशिन्ट कहते हैं।
ऐसी चीजें जिनके दोबारा बनने में बहुत अधिक वक्त लगता है, मसलन जंगल, ज़मीन और मिट्टी जैसे कुदरती संसाधनों का अत्यधिक दोहन आने वाली पीढ़ियों के लिए कई विकल्प खत्म कर सकता है। इन पीढ़ियों को यह कुदरती संसाधन उन्हीं रूपों में चाहिए होंगे, जैसे कि हमें मिले थे। धरती पर आबादी के बढ़ते बोझ के बाद तो यह ऐसे भी ज़रूरी होगा।
हो सकता है कि आने वाली पीढ़ियों के साइंसदां हमारे इन कुदरती संसाधनों के खत्म होने का कोई तोड़ निकाल लें, लेकिन बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए इन संसाधनों को बहुत जरूरत होगी। जैसे कि जल चक्र के लिए जंगल चाहिए और पानी के साथ ही मिट्टी की ज़रूरत हमारे अनाजों के लिए हमेशा रहेगी। क्यों न हम अपनी भावी पीढ़ियों की ऊर्जा को किसी ज्यादा बेहतर काम के लिए बचाने पर जोर दें, और जल-जंगल-जमीन को खुद बचाने का बंदोबस्त करें, वह भी पुख्ता बंदोबस्त।
मंजीत ठाकुर
इस वक्त जब पूरी दुनिया में पर्यावरण को लेकर खास चिंताएं हैं, और हाल ही में दुनिया भर ने दिल्ली में फैले दमघोंटू धुएं का कहर देखा, एक दफा फिर से आबो-हवा की देखभाल और उसकी चिंताएं और उससे जुड़े कारोबार पर गौर करना बेहद महत्वपूर्ण लगने लगा है।
सबसे बड़ी बात कि हम लोग अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए क्या संसाधन छोड़कर जाने वाले हैं? क्या हम उनको प्रदूषित पानी, बंजर ज़मीन और सांस न लेने लायक हवा की सौगात विरासत के रूप में देने वाले हैं? शायद इसीलिए जानकार टिकाऊ विकास या सतत विकास की बात करते हैं ताकि हम प्रकृति से जितना लें, उसे उतना ही वापस करें। आखिर, एक दिन जब धरती की कोख में समाया सारा कोयला, पेट्रोल और प्राकृतिक गैस का ख़ज़ाना खत्म हो जाएगा, तब ऊर्जा की हमारी ज़रूरतें कहां से पूरी होंगी? हम लोग क्लीन एनर्जी यानी स्वच्छ ऊर्जा तकनीकों में क्या हासिल कर पाएं हैं और वह तकनीकें आम जनता की जेब की ज़द में हैं भी या नहीं।
असल में, ऐसा नहीं है कि सरकारें कोशिश नहीं करती। दिक्कत हमारे विभिन्न मंत्रालयों (और विभागों, केन्द्र सरकार और राज्य सरकार के बीच नीतियों में समन्वय की कमी की है।
पिछले कई दशकों से आर्थिक विशेषज्ञ अर्थनीति-जिसे विचित्र रूप से एकआयामी दृष्टिकोण के बावजूद, विज्ञान कहा जाता है-की भाषाओं में गुड और बैड मनी की परिभाषाएं देते रहे हैं। ऐसे उद्योग, जो संसाधनों का दोहन करते हैं और आबो-हवा को प्रदूषित, लेकिन फायदे में चल रहे हैं, पैसा कमा रहे हैं, उन उद्योगों को लाभकारी उद्योग कहा जाता है, जबकि ऐसे काम जिसमें पर्यावरण और आम इंसान की सेहत का खयाल भी रखते हैं लेकिन कारोबार के नजरिए से जो पैसे नहीं बनाते, वह बैड इकॉनमी के तहत आते हैं। आह! इस नज़रिए से देहातों में अच्छी सड़कें बनाना, जाहिर है, अच्छा है और वनों को संरक्षित करना बुरी आर्थिकी है।
यानी व्यवस्था पिछले तीस बरसों में आर्थिक चश्में से ही हर काम को देखती आई है।
संविधान के तहत, भारत का हर नागरिक प्राकृतिक संसाधनों से मिलने वाले लाभों, खासकर पारिस्थितिकी-वन-ज़मीन और मिट्टी से जुड़ी चीज़ों के सामाजिक फायदों और सेवाओं में बराबर का हक़दार है।
संविधान प्रदत्त इस न्याय व्यवस्था की बुनियादी बात ही यह है कि कोई आर्थिक क्रियाकलाप कम-से-कम ऐसी ही हो जिससे कोई नुकसान न पहुंचे, और सामान्य तौर पर इस तरह से संपन्न की जानी चाहिए कि इससे किसी को नुकसान न पहुंचे, लोगों का जीवन-स्तर ऊपर उठे। ऐसी व्यवस्था यह तय करने के लिए बनाई गई थी कि समाज और अर्थव्यवस्था के हाशिए पर पड़े वंचित तबके को इसका अधिक फायदा मिले।
विकास की किसी भी गतिविधि की योजना ऐसी बननी चाहिए कि जल-जंगल-जमीन जैसे कुदरती संसाधन संरक्षित किए जा सकें और उनका इस्तेमाल इस तरह हो कि वह टिकाऊ विकास के खांचे में फिट बैठ सकें और उनको भावी पीढ़ियों के लिए बचाया जाए। इस योजना में यह भी तय किया जाना चाहिए कि इन गतिविधियों में काम करने वाले या उसके आसपास रहने वाले लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ न हो।
टिकाऊ विकास विज्ञान अभी बहुत नया है, यह सोच और अवधारणा नई है फिर भी यह इतनी साफगोई से कई बातें बताता है जिनमें समाज में बराबरी की अवधारणा भी है। यह सरल उपाय सुझाता है। यह किसी भी समाज में महिलाओं की स्थिति, सभी लोगों के स्वास्थ्य, शिक्षा और औसत आयु जैसे मानकों की गणना करके समस्या के उपाय बताता है, जिसे जानकार गिनी कोएफिशिन्ट कहते हैं।
ऐसी चीजें जिनके दोबारा बनने में बहुत अधिक वक्त लगता है, मसलन जंगल, ज़मीन और मिट्टी जैसे कुदरती संसाधनों का अत्यधिक दोहन आने वाली पीढ़ियों के लिए कई विकल्प खत्म कर सकता है। इन पीढ़ियों को यह कुदरती संसाधन उन्हीं रूपों में चाहिए होंगे, जैसे कि हमें मिले थे। धरती पर आबादी के बढ़ते बोझ के बाद तो यह ऐसे भी ज़रूरी होगा।
हो सकता है कि आने वाली पीढ़ियों के साइंसदां हमारे इन कुदरती संसाधनों के खत्म होने का कोई तोड़ निकाल लें, लेकिन बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए इन संसाधनों को बहुत जरूरत होगी। जैसे कि जल चक्र के लिए जंगल चाहिए और पानी के साथ ही मिट्टी की ज़रूरत हमारे अनाजों के लिए हमेशा रहेगी। क्यों न हम अपनी भावी पीढ़ियों की ऊर्जा को किसी ज्यादा बेहतर काम के लिए बचाने पर जोर दें, और जल-जंगल-जमीन को खुद बचाने का बंदोबस्त करें, वह भी पुख्ता बंदोबस्त।
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (29-11-2016) के चर्चा मंच ""देश का कालाधन देश में" (चर्चा अंक-2541) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'