Monday, April 10, 2017

बंगाल में बीजेपी की उर्वर होती ज़मीन

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव भारतीय जनता पार्टी ने शानदार प्रदर्शन किया, और पार्टी अब उन इलाकों में पैठ बनाना चाह रही है, जहां उसका प्रचार-प्रसार उतना ज्यादा नहीं है। उन राज्यों में केरल और पश्चिम बंगाल हैं। पिछले साल पश्चिम बंगाल में हुए विधानसभा चुनाव ने वोट प्रतिशत के हिसाब से अपना अच्छा प्रदर्शन किया। हालांकि, यह 2014 के लोकसभा चुनाव के वोट प्रतिशत से कम था, लेकिन 2011 के विधानसभा चुनावों से तकरीबन दोगुना था।

पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनाव बीजेपी के लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि जिन दो लोकसभा सीटों पर बंगाल में बीजेपी ने जीत दर्ज की थी, अब उस आधार को बढ़ाना जरूरी है। 2014 के आम चुनाव में बीजेपी को मिली दो लोकसभा सीटें मूलरूप से उन इलाकों में है, जहां बंगलाभाषी जनता का बहुमत नहीं है। आसनसोल सीट में हिन्दी-भोजपुरी बोलने वाले गैर-बांगलाभाषी लोगों का वोट अधिक है, तो दूसरी सट दार्जिलिंग की है, जहां का समीकरण बाकी के बंगाल से अलहदा है।

पश्चिम बंगाल बीजेपी की राज्य इकाई ने पंचायत चुनावों के मद्देनजर उत्तर प्रदेश के अपने समकक्षों से सुझाव लेना शुरू कर दिया है। सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस की मुख्य प्रतिद्वंद्वी के तौर पर उभरने के लिए उसने त्रिस्तरीय रणनीति भी बनाई है।

बीजेपी यूपी में शानदार जीत के बाद बंगाल पर ध्यान केन्द्रित कर रही है, जहां ममता बनर्जी सरकार की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गई है। बीजेपी मुस्लिम तुष्टीकरण करके ध्रुवीकरण करने की अपनी नीति पर ही काम करेगी। दूसरी तरफ, तृणमूल कांग्रेस, बीजेपी की इस बढ़त को रोकने के लिए वामपंथी पार्टियों से भी हाथ मिला सकती हैं। वैसे, इस महाजोट (जिसमें कांग्रेस और तृणमूल तो स्वाभाविक रूप से होंगे) की संभावना दूर की कौड़ी है। लेकिन बीजेपी अपने जनाधार को बढ़ाने के लिए हरमुमकिन उपाय कर रही है।


वैसे भी, वाम के किले मे दरार के बाद बीजेपी के अंदरूनी रणनीतिकार तबके को लगने लगा है कि बंगाल में एक ऐसे राजनीति दल की आवश्यकता है जो तृणमूल को चुनौती दे सके। बंगाल में बीजेपी के पास फिलहाल कोई बड़ा चेहरा नहीं है। बाबुल सुप्रियो केन्द्र में मंत्री हैं, लेकिन जनाधार वाले नेता नहीं है। कम से कम आसनसोल के बाहर उनका असर अभी दिखता नहीं है। रूपा गांगुली ज़रूर उत्तर बंगाल में असर दिखा सकती हैं, और पार्टी के कैडर में उनकी स्वीकार्यता अगर बढ़ी तो वह स्वाभाविक नेतृत्व दे सकती हैं। राहुल सिन्हा और दिलीप घोष बंगाल बीजेपी के बड़े नेता तो हैं लेकिन असरहीन हैं।

इसलिए बंगाल में भी संभवतया उसी रणनीति पर काम किया जाएगा। यानी अगर दूसरे दलों के नेता भाजपा में शामिल होना चाहें तो पार्टी उनका स्वागत करेगी। राज्य इकाई
प्रशिक्षित और पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं की एक फौज बना रही है, जो राज्य के प्रत्येक जिले में जा कर नरेंद्र मोदी सरकार की उपलब्धियों और तृणमूल सरकार के कुशासन के बारे में लोगों को बता सके।

बंगाल में बीजेपी अगर अपने इस नेताओं की कमी वाले संकट से निबट ले तो उसके लिए विस्तार की एक उर्वर ज़मीन तैयार है। उत्तर बंगाल में, जो कांग्रेस का पुराना और मजबूत गढ़ रहा है, तृणमूल ने सीटें तो जीती हैं, लेकिन वहां जड़ अभी भी कांग्रेस की ही जमी हुई है। दोनों ही पार्टियां अल्पसंख्यकों के वोटों के भरोसे चुनाव लड़ती हैं। हालांकि बहरामपुर हो या मुर्शिदाबाद, मालदा हो या रायगंज, मुस्लिम वोट वहां निर्णायक होता है। ऐसे में, समीकरण यही होगा कि मुस्लिम वोट, वाम मोर्चे (बड़े वामपंथी नेता मोहम्मद सलीम ने लोकसभा चुनाव उत्तर बंगाल से लड़ा था), कांग्रेस (क्यों कि उत्तर बंगाल की छह सीटें, एबीए गनी खान चौधरी और अधीर रंजन चौधरी समेट दीपा दासमुंशी के असर में है) और तृणमूल (उत्तर बंगाल में विधानसभा चुनाव में तूफानी प्रदर्शन किया) के बीच बंटेगा। बीजेपी, तुष्टीकरण और दंगों को मुद्दा बनाकर हिन्दुओं की पार्टी बनेगी। असल में, बंगाल में हाल के वर्षों में कुछ दंगे हुए हैं, मुख्यधारा की मीडिया ने भले ही इन दंगो को ठीक से कवरेज न दी हो, लेकिन यह बंगाल में बड़ा मुद्दा बना।

फिर, दुर्गा पूजा में ममता ने जिस तरह मूर्ति विसर्जन के वक्त खासी फजीहत कराई और फिर उन्ही दिनों उनकी नमाज पढ़ने वाली तस्वीर वायरल हुई, उससे लगता है कि बंगाल में ममता बनर्जी से नाराज हिन्दू वोट खिसककर बीजेपी की तरफ जाएगा। जाहिर है, अगर आने वाले वक्त में बीजेपी ने बंगाल में ठीक से होम वर्क किया तो पश्चिम बंगाल उसके लिए काफी उपजाऊ ज़मीन साबित होगी। देश की राजनीति में भी, 42 लोकसभा सीटें कम नहीं होती।



मंजीत ठाकुर


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