Wednesday, June 20, 2018

पीयूष सौरभ की एक कविता

पीयूष सौरभ लखनऊ आर्ट ऐंड क्राफ्ट कॉलेज से ललित कला में परा-स्नातक हैं. जितनी सफाई से उनके ब्रश कैनवस पर चलते हैं, उतनी ही कारीगरी वह शब्दों के साथ भी करते हैं. मेरा सौभाग्य कि वह मेरे बचपने के मित्र हैं. हम सभी मित्रों के आग्रह पर उनने फिर से कविताई शुरू की है. आप से शेयर कर रहा हूं.

भावों की अभिव्यक्ति है,
या फिर, शब्दों का मेला है.
बांट रहा जब सुख-दुख सबसे
मन क्यों निपट अकेला है?

न होठों पर प्रेमगीत है.
ना तो विरह वेदना ही,
आशाओं के उजले तट पर
स्याह-सा ये क्या फैला है?

शुभ्र ज्योति है, शुभ्र है चिंतन
सब तो शुभ्र धवल सा है.
नयनों में तैर रहा क्या जाने
फिर भी कुछ मटमैला है.

--पीयूष सौरभ

Thursday, June 14, 2018

ओस में गीले हरसिंगार जैसी ताज़ी फिल्म है अक्तूबर

इस सिनेमाई कविता को आप पांच-दस बरस बाद भी देखेंगे तो इसके भाव उतने ही शाश्वत रूप से ताजा होंगे, जितने ओस में गीले खुद हरसिंगार के फूल. 

कभी बहुत खूबसूरत सिनेमाई कविता देखने का मन हो तो आपको फिल्म अक्तूबर देखना चाहिए. फोटो सौजन्यः गूगल


हम कविताएं पढ़ते हैं या सुनते हैं. लेकिन कभी बहुत खूबसूरत सिनेमाई कविता देखने का मन हो तो आपको फिल्म अक्तूबर देखना चाहिए.

प्रेम के प्रकटीकरण के बेहद शोना-बाबू युग में जब प्रेमी-प्रेमिका के वॉट्सऐप पर आए हर मेसेज के जबाव में फौरन से पहले जवाब देना अनिवार्य हो और फेसबुक पर पोस्ट पर दिल चस्पां करना, अक्तूबर बताता है कि प्रेम किस कदर गहरा हो सकता है. समंदर की तरह.

अगर कोई प्रेम के होने या न होने पर संजीदा सवाल उठाए, उसके अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न खड़े करे तो उन सौ सवालों का एक जवाब है अक्तूबर.

यह फिल्म असली जिंदगी के ही किसी गहरे प्रेम को इतने सटीक तरीके से परदे पर उकेरता है कि आपको इस नश्वर संसार में प्रेम के शाश्वत होने पर यकीन होने लग जाएगा.

तो इस प्रेम के शाश्वत तत्व क्या हैं? जाहिर है, वेदना, पीड़ा, त्याग और हां, बहुत गहरा अनुराग. अक्तूबर मुक्तिबोध के अंधेरे में की तरह की एक लंबी कविता सरीखा है.

भारत में सिनेमा को लेकर एक कट टू कट हड़बड़ी है. हम एक सीन को नब्बे सेकेंड से ज्यादा बरदाश्त नहीं करते. हम 60 विज्ञापन फिल्मों को एक कथासूत्र में बांध कर एक फीचर फिल्म बनाते हैं. ताकि दर्शक बंधा रहे. हमारे पास कामयाबी का एक मनमोहनी (देसाई) तरीका है, सीन-दर-सीन, नाच-गाना-कॉमिडी-मारधाड़-फिर से गाना-मां-बिछड़ना-मिलना.

अक्तूबर जैसी फिल्में इस समीकरण का एंटी-थीसिस हैं.

अक्तूबर की कहानी को दो मिनट में निपटाया जा सकता है. लेकिन उसकी संवेदनशील कहानी को सीन-दर-सीन विवेचित किया जाए तो एक पूरी किताब लिखनी चाहिए.

हमने हमेशा वरूण धवन को गोविंदा के नक्शे-कदम पर चलते देखा है. लेकिन पहले बदलापुर और फिर अक्तूबर में धवन ने अपने अंदर के असाधारण कलाकार से परिचित कराया है. इस फिल्म की साधारण कहानी हमारे जीवन के किस्सों की तरह ही साधारण है. इसमें खिंचा-खिंचा से रहने वाला होटल प्रबंधन का छात्र डैन है, इसमें कभी कभार उससे बात कर लेने वाली उसकी सहपाठी शिवली है.

शिवली नए साल के उत्सव में शामिल होते वक्त होटल की चौथी मंजिल से गिर जाती है. बुरी तरह जख्मी शिवली कोमा में चली जाती है. गिरने से पहले उसने आखिरी सवाल अपनी दोस्त से डैन के बारे में पूछा होता हैः डैन कहां है? और, यह सवाल डैन की जिंदगी बदल देता है.

अक्तूबर को देखेंगे तो शिवली और डैन के अलावा आपको कड़क मिज़ाज बॉस का किरदार दिखेगा, जिसकी वजह से आपको डैन के किरदार के अलग अलग शेड्स दिखते हैं, जिसकी वजह से डैन के किरदार की परतें खुलती हैं.

फिर आपको अस्पताल के चक्कर काटते डैन और शिवली की मां के बीच पनपता एक ममतामय रिश्ता नजर आएगा. डैन और उसके दुनियादार दोस्तों के बीच की कैमिस्ट्री नजर आएगी. आप फ्रेम दर फ्रेम इस फिल्म के क्राफ्ट से मुत्तास्सिर होते जाएंगे.

इस फिल्म का क्राफ्ट आम हिंदी फिल्मों के क्राफ्ट से बेहद अलहदा है. इसके संपादन में एक रिदम है, गति है, लय है. अविक मुखोपाध्याय की सिनेमैटोग्राफी में ओस से गीले हरसिंगार के फूल, मकड़ी के जाले, बोगनवेलिया एक काव्यात्मकता रचते हैं. खूबसूरत लगता हर फ्रेम फिल्मी रूप से नाटकीय नहीं बल्कि इतना वास्तविक है कि मन करेगा कि फ्रेम को अपने कंप्यूटर का स्क्रीनसेवर बना लें.

लेकिन इन्हीं दृश्यों से एक उदासी सृजित होती जाती है. फिर पहाड़ हैं. उनमें जंगलों से निकलता सूरज है, उसकी किरनें हैं, नदी है. और हर फ्रेम में अपनी अदाकारी से आपको आश्वस्त करते वरूण धवन हैं.

अक्तूबर बिस्तर पर पड़े मरीजों की देखभाल में लगे लोगों के त्याग का अनकहा पाठ है और कुछ असंवेदनशील लोगो पर टिप्पणी भी.

नायिक बनिता संधू (शिवली) फिल्म में ज्यादातर वक्त बिस्तर पर मृतप्राय अवस्था में बिताती दिखती हैं. उनके पास विकल्प कम थे पर उनकी आंखें अद्भुत रूप से संप्रेषणीय हैं.

हमें न तो बनिता का नाम जानने की जल्दी होती है न फिल्म खत्म होने के बाद हमें वरूण धवन याद रहते हैं. हमें बस शिवली याद होती है और याद रहता है डैन.

इस सिनेमाई कविता को आप पांच-दस बरस बाद भी देखेंगे तो इसके भाव उतने ही शाश्वत रूप से ताजा होंगे, जितने ओस में गीले खुद हरसिंगार के फूल. 


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Monday, June 11, 2018

फिल्म परमाणु में भाजपा का झंडा लहराता है

गरमी की छुट्टियां चल रही थीं तो मेरे बेटे ने जिद की कि वह फिल्म देखना चाहता है. मुझे इनफिनिटी वॉर नाम की फिल्म दिखाने का इसरार वह कर रहा था और मैं कत्तई इस मूड में नहीं था कि मैं तीन घंटे सिनेमा हॉल में बोर होकर आऊं.

मुझे विलक्षण मार-धाड़ वाली फिल्में बोर करती हैं.

बहरहाल, यह पृष्ठभूमि थी फिल्म परमाणु देखने की. यह पोकरण परमाणु परीक्षणों पर आधारित है. मैं चूंकि खुद पोकरण जा चुका हूं और डॉक्युमेंट्री भी बनाई है इस विषय पर, तो मुझे लगा कि देखना चाहिए कि इसमें कितनी सच्चाई है और कितना मसाला निर्देशक ने डाला है.

रुस के विघटन के बाद भारत को अंतराराष्ट्रीय स्तर पर घेरने की कोशिश हो रही थी, चीन और अमेरिका पाकिस्तान के पीछे रणनीतिक रूप से गोलबंद थे. उन दिनों किस तरह से यह परमाणु परीक्षण हुए वह अपने आप में हम सब के लिए गर्व का विषय तो है ही. तब बुद्ध फिर से मुस्कुराए थे.

किस तरह भारतीय वैज्ञानिकों और परीक्षण की तैयारी कर रहे दल ने इस ऑपरेशन को अंजाम दिया था उसे ही इस फिल्म की थीम बनाया गया है. मुझे इन सब पर कुछ और नहीं लिखना है क्योंकि अब तक आप लोगों ने यह फिल्म देख ली होगी या उस पर पढ़ भी लिय़ा होगा.

असल में लेखकों और निर्देशक के सामने बड़ी चुनौती यह थी कि वह कैसे इस विषय को एक वृत्त चित्र होने से बचाएं और कहानी में दर्शकों की दिलचस्पी बरकरार रखें. क्योंकि फिल्म के क्लाइमेक्स का भी सबको पता था ही. उसके बाद काल्पनिक किरदार जोड़े गए. लेकिन अश्वत रैना का किरदार तो ठीक है पर उसके परिवार से जुड़ी कहानी का फिल्म की कहानी से कोई मेल नहीं होता.

मसलन, अश्वत रैना की पत्नी को पहली बार नाकाम परीक्षणों के बाद यह तो पता रहता है कि अश्वत सिविल सेवा अधिकारी है, और वह किसी खास एटमी मिशन से जुड़ा है. मिशन फेल होने के बाद वह अश्वत की नौकरी चले जाने की बात भी जानती है. लेकिन वही पत्नी, जो संयोग से खुद एक खगोलशास्त्री है, कहानी के उतरार्ध में पति के मिशन से अनजान रहती है और पाकिस्तानी खुफिया एजेंटो के झांसे में आ जाती है. यह बात एकदम से पचती नहीं.

दूसरी बात, जॉन अब्राहम के डोले-शोले एक दम वैसे ही हैं जैसे दूसरी फिल्मों में होते हैं. अब उनसे दुबला कोई पाकिस्तानी जासूस उनको पीटता रहे और वह एक थप्पड़ भी न मार पाएं, यह हजम नहीं होता.

फिल्म में एक बात और अखरती है कि आर चिदंबरम से लेकर अनिल काकोडकर और एपीजे अब्दुल कलाम तक, सारे वैज्ञानिकों को तकरीबन हास्यास्पद दिखाया गया है, जो छोटी बातों के लिए शिकायत करते और गुस्सा होते दिखते हैं. मसलन, रेगिस्तान में काम करने की शिकायत, धूल धूप और गरमी की शिकायत. और इतने फूहड़ की गोलगप्पे खाते हुए जासूसों के सामने अश्वत रैना का राज़ उगल देते हैं. ऐसा नहीं हुआ था. और एपीजे अब्दुल कलाम जिस तरह से दिखाए गए हैं कि वह हमेशा कुछ न कुछ खाते रहते हैं यह भी गलत है और हां, वह उस वक्त डीआरडीओ में थे और प्रधानमंत्री के रक्षा सलाहकार भी थे. फिल्म उनको इसरो में काम करने वाला वैज्ञानिक बताती है.

डायना पैंटी खूबसूरत लगी हैं और शायद उनको सिर्फ इसीलिए फिल्म में लिया भी गया. यक्षवा पूछ रहा है कि पैंटी की जरूरत ही क्या थी फिल्म में. लेखकों ने खुफिया एजेंसी रॉ का एक तरह का मजाक उड़ाया है क्योंकि अश्वत के गेस्ट हाउस में पाकिस्तानी और अमेरिकी जासूस खुले आम आते-जाते हैं सवाल है कि तब रॉ के लोग क्या कर रहे होते हैं, यह पता नहीं चलता. इतने बडे ऑपरेशन के दौरान पाकिस्तानी जासूस सारे रास्ते पर भाग रहा होता है, रॉ कुछ नहीं करती. पाकिस्तानी जासूस रैना के घर में जाकर ट्रांसमीटर लगा देते हैं, फोन टैप कर लेते हैं और रॉ कुछ नहीं करती.

इंटरवल के बाद फिल्म जरूर रफ्तार पकड़ती है जब पाकिस्तानी और अमेरिकी जासूस पोकरण में रह कर इस बात को पकड़ लेते हैं कि भारत परमाणु परीक्षण करने जा रहा है. यहां पर थ्रिल पैदा होता है. क्लाइमैक्स अच्छे से लिखा गया है और दर्शक सिनेमाहॉल छोड़ते समय अच्छी फिलिंग लेकर निकलते हैं और लेखक यहां पर कामयाब हुए हैं.

निर्देशक अभिषेक शर्मा की फिल्म बेहतर विषय पर बनी हुई है, संपादन भी कसा हुआ है. और इसमें जॉन अब्राहम का भावहीन सपाट चेहरा भी नहीं खलता. देशभक्ति के लिए यहां छाती नहीं ठोंकी गई. पूरी फिल्म में सिर्फ एक बार तिरंगे का इस्तेमाल हुआ है. पर अगर आपमें गौर से देखने की क्षमता और इच्छा हो तो देखिएगा, पूरी फिल्म में कम से कम तीन दफा दूर पृष्ठभूमि में भाजपा का चुनावी झंडा लहरा रहा होता है.

भरोसा नहीं, तो खुद देख लीजिएगा.



Saturday, June 9, 2018

मधुपुर मेरा मालगुडी है


मधुपुर डायरी पार्ट 2:

मधुपुर की सुबहें दीगर शहरों से अलग हुआ करती हैं. यह शहर मेरा मालगुडी है, और मैं उसका स्वामीनाथन.

सोमवार की सुबह को जब मैं उठा, तो अपनी आदत के उलट तयशुदा समय से काफी पहले उठ गया था. चाय-चुक्कड़ इत्यादि पीने के बाद हमने, यानी मैंने और रतन भैया ने मधुपुर में सोशल विजिट का कार्यक्रम रखा था.

मेरे मुहल्ले में एक विद्यालय है, तिलक विद्यालय. मैं इसका छात्र रहा हूं तो यहां गया भी. उसकी पोस्ट बाद में. पर उसके पिछवाड़े अमलतास क्या उमक कर खिला था. मन का सारा दुख दूर हो गया. दिल्ली में पेड़ पौधे धूल से अंटे रहते हैं. मधुपुर में सारे पेड़ धुले-धुले थे, साफ-साफ. हंसते हुए. खिलखिलाते. 

मुझे तो ऐसे भी गुलमोहर और अमलतास बहुत भाते हैं. अमलतास के पीलेपन को मैने अपने आंखों भी बसाया और मोबाइल में भी कैद कर लिया. 

दिल्ली में रामकृपाल झा ने मुझसे कहा था कि एक दफा नया बाजार चला जाऊं, तो नया बाजार (मधुपुर का एक मोहल्ला) जाना तय ही था. लेकिन रामकृपाल के पिताजी माताजी तीर्थ के लिए कहीं निकल गए थे तो दिन में उनसे मुलाकात की कोई संभावना नहीं थी सो हम लोग उधर जाने के कार्यक्रम को आगे की तारीख पर टाल गए.

तो हमने पहली यात्रा शुरू की दक्षिण की तरफ. मधुपुर में हमारे मुहल्ले को साधनालय कहा जाता है. उसकी सरहद हनुमान जी का एक चबूतरा था, जिसे अब एक छोटे मंदिर में तब्दील कर दिया गया है. मेरे घर से निकलते ही पहले बाएं हाथ पर एक परचून की दुकान हुआ करती थी. शंकर की दुकान. जिसके ऐन पीछे एक विशालकाय यूकेलिप्टस का पेड़ था. उस पेड़ की पत्तियों में मैं बचपन में मुख्तलिफ़ आकृतियां खोजा करता था. घिरते अंधरे में स्याह होते जाते उस पेड़ में कभी मुझे बजरंगबली दिखते थे, कभी अनिल कपूर तो कभी कोई डरावनी चुड़ैल भी.

मेरे मुहल्ले में उमक कर खिला अमलतास. फोटोः मंजीत ठाकुर


अब वह पेड़ वहां नहीं है. कट चुका है. लगा कि मेरा कोई बहुत जिगरी दोस्त नहीं रहा इस दुनिया में.

उस पेड़ के ठीक सामने यानी सड़क के दाहिनी तरफ, शुक्र है, अभी भी खेत हैं. मेरे घर के ठीक दक्षिण में जो बड़ा सा तालाब था. वह आधा भरा जा चुका है. उस में आधे मधुपुर के नाले का गंदा पानी जमा होता है. मछलियां मर चुकी हैं. पानी का रंग गहरा काला हो चुका है. विश्वास नहीं होता कि यह वही तालाब है जिसमें हम अमूमन नहाया करते थे, मछलियां मारते थे और होली के बाद रंग छुड़ाने के लिए तो यही पोखरा तय था.

बहरहाल, बजरंगबली का चबूतरा खत्म होते ही हाजी मुहल्ला शुरु हो जाता है. मेरे कई दोस्त वहां मिले. रोज़े में प्यास न लगे सो नीम के दातुन चबाते लोग. कुछ को छोड़कर पहले वाली गुरबत कहीं नहीं दिखती. सब मकान पक्के और ऊंचे और आलीशान हो गए हैं. बाकी लोग वैसे ही है. हंस कर मिलने वाले.

बरकत भैया मिले थे. जब हम बच्चे थे तब भी उनके बाल सफेद थे. अब तो खैर, नौकरी अभी भी उनकी दो साल बची है पर सिर भौंह दाढ़ी सब सुफेद. बिलकुल बर्फ़ानी.

फिर वह सब मकान, जिसमें कभी होम्योपैथ के मधुपुर के मशहूर डॉक्टर फारूख़ साहेब रहते थे और जिनके घर में एक मस्त-सा हिरन था. शायद उसको उन्होंने किसी बकरीद में क़ुरबान कर दिया. अब उन्होंने कहीं और मकान बनाया पर उनका वह मकान जो पुराने धज का था, अब भी है, पर उसमें वह बात नहीं रही.

उसके आगे संताल आदिवासियों के घर थे और शरीफों, कठ-लीची (लीची का जंगली पेड़ जिसमें कंचों के आकार के छोटे फल होते थे) वगैरह के जंगल थे. जंगल अब कम हो गए हैं. गोयठे-उपले बेचने वाले संतालों ने कोई और धंधा अपना लिया है. उसके आगे धान के खेत हुआ करते थे, जिनके बीच में ऊंची मेड़ थी. चौड़ी भी. बाईं तरफ एक और तालाब, जिससे मेरे एक मित्र प्रशांत का एक मजेदार वाकया भी जुड़ा है. 


रेल से मधुपुर घुसते समय पात्रो (पतरो) नदी के पास का विहंगम दृश्य फोटोः मंजीत ठाकुर


प्रशांत का मकान बन रहा था. और शाम को उसके अधबने मकान को देखकर वापसी में जब आसमान में चांद उग ही रहा था और अंधेरा हो चुका था, प्रशांत को तेज हाजत आ गई. (पाखाना लग गया)

गरमियों के दिन थे और तालाब में चांद की परछाईं देखकर प्रशांत समझे कि तालाब में पर्यापत् पानी मौजूद है. लेकिन जब वह शंका निवारण के बाद धुलाई के लिए आए, तो सिर्फ कीचड़-ही-कीचड़ था. बाद में हमने भौतिकी में पढ़ा कि पानी की पतली परत भी एक फिल्म की तरह काम करती है और प्रकाश को परावर्तित कर सकती है, जबकि उतने पानी में शौचक्रिया तो खैर क्या ही होगी, हाथ भी गीला नहीं हुआ था. बाद में झाड़ियों के पत्तों से काम चलाया गया, जो बाद में प्रशांत ने बताया, बेहद दर्दनाक था.

अस्तु, वह तालाब भर दिया गया है. एक गड्ढा जैसा है, लेकिन उसमें पड़ोसी लोग कूड़ा डालते हैं. असंख्य मकान उग आए हैं उस तालाब के चारों तरफ. पहले जो इलाका पेड़ों, तालाबों से अनिंद्य खूबसूरती का वायस था, अब ईंट-गारों के मकानों के बोझ से दब गया है.

पहले वहां ताड़ के पेड़ों के पीछे सूरज छिपता था. पर अब वो बात नहीं रही.

कोई साढ़े दस बजे सुबह में हम दोनों भाई पहले अपने एक पारिवारिक घनिष्ठ ललित भैया के यहां गए थे. पर उनके यहां ठंडा इत्यादि ठेलने के बाद मैं प्रो. सुमन लता के यहां गया.

हम सभी उनको मौसी कहते हैं. मां की मुंहबोली बहन हैं. लेकिन वहां गया तो एक सुखद आश्चर्य हुआ. मेरे बचपन का दोस्त पीयूष का मुस्कुराता चेहरा दिखा. संभवतया 1997-98 के बाद उससे पहली बार मुलाकात हुई थी.

बता दें कि पीयूष सौरभ लखनऊ कार्ट ऐंड क्राफ्ट कॉलेज से ललित कला (फाईन आर्ट) में स्नातक और परा-स्नातक हैं. कैनवस पर उसकी कूची ऐसे चलती है जैसे इंद्रधनुष बिखेर दी हो.

बढ़ी हुई दाढ़ी और सफेद बालों के साथ पीयूष थोड़ा बीमार लग रहा था. पर ऊर्जा वैसी ही. वही सृजनात्मकता. वही मुस्कुराहट. वह हंसता है तो गालों में डिंपल पड़ते हैं उसके.

मैं वहां उसके यहां चाय-मिठाई के बाद चलने को हुआ तो मैंने इसरार किया कि शाम को गांधी चौक पर मिलने से पहले शेविंग भी कर ले, और बाल में डाइ भी.

फिर हम शाम को गांधी चौक पर मिले.

वहां से किस्सा, कैसे और कहां गया, वह कल बताएँगे.