इस सिनेमाई कविता को आप पांच-दस बरस बाद भी देखेंगे तो इसके भाव उतने ही शाश्वत रूप से ताजा होंगे, जितने ओस में गीले खुद हरसिंगार के फूल.
कभी बहुत खूबसूरत सिनेमाई कविता देखने का मन हो तो आपको फिल्म अक्तूबर देखना चाहिए. फोटो सौजन्यः गूगल |
प्रेम के प्रकटीकरण के बेहद शोना-बाबू युग में जब प्रेमी-प्रेमिका के वॉट्सऐप पर आए हर मेसेज के जबाव में फौरन से पहले जवाब देना अनिवार्य हो और फेसबुक पर पोस्ट पर दिल चस्पां करना, अक्तूबर बताता है कि प्रेम किस कदर गहरा हो सकता है. समंदर की तरह.
अगर कोई प्रेम के होने या न होने पर संजीदा सवाल उठाए, उसके अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न खड़े करे तो उन सौ सवालों का एक जवाब है अक्तूबर.
यह फिल्म असली जिंदगी के ही किसी गहरे प्रेम को इतने सटीक तरीके से परदे पर उकेरता है कि आपको इस नश्वर संसार में प्रेम के शाश्वत होने पर यकीन होने लग जाएगा.
तो इस प्रेम के शाश्वत तत्व क्या हैं? जाहिर है, वेदना, पीड़ा, त्याग और हां, बहुत गहरा अनुराग. अक्तूबर मुक्तिबोध के अंधेरे में की तरह की एक लंबी कविता सरीखा है.
भारत में सिनेमा को लेकर एक कट टू कट हड़बड़ी है. हम एक सीन को नब्बे सेकेंड से ज्यादा बरदाश्त नहीं करते. हम 60 विज्ञापन फिल्मों को एक कथासूत्र में बांध कर एक फीचर फिल्म बनाते हैं. ताकि दर्शक बंधा रहे. हमारे पास कामयाबी का एक मनमोहनी (देसाई) तरीका है, सीन-दर-सीन, नाच-गाना-कॉमिडी-मारधाड़-फिर से गाना-मां-बिछड़ना-मिलना.
अक्तूबर जैसी फिल्में इस समीकरण का एंटी-थीसिस हैं.
अक्तूबर की कहानी को दो मिनट में निपटाया जा सकता है. लेकिन उसकी संवेदनशील कहानी को सीन-दर-सीन विवेचित किया जाए तो एक पूरी किताब लिखनी चाहिए.
हमने हमेशा वरूण धवन को गोविंदा के नक्शे-कदम पर चलते देखा है. लेकिन पहले बदलापुर और फिर अक्तूबर में धवन ने अपने अंदर के असाधारण कलाकार से परिचित कराया है. इस फिल्म की साधारण कहानी हमारे जीवन के किस्सों की तरह ही साधारण है. इसमें खिंचा-खिंचा से रहने वाला होटल प्रबंधन का छात्र डैन है, इसमें कभी कभार उससे बात कर लेने वाली उसकी सहपाठी शिवली है.
शिवली नए साल के उत्सव में शामिल होते वक्त होटल की चौथी मंजिल से गिर जाती है. बुरी तरह जख्मी शिवली कोमा में चली जाती है. गिरने से पहले उसने आखिरी सवाल अपनी दोस्त से डैन के बारे में पूछा होता हैः डैन कहां है? और, यह सवाल डैन की जिंदगी बदल देता है.
अक्तूबर को देखेंगे तो शिवली और डैन के अलावा आपको कड़क मिज़ाज बॉस का किरदार दिखेगा, जिसकी वजह से आपको डैन के किरदार के अलग अलग शेड्स दिखते हैं, जिसकी वजह से डैन के किरदार की परतें खुलती हैं.
फिर आपको अस्पताल के चक्कर काटते डैन और शिवली की मां के बीच पनपता एक ममतामय रिश्ता नजर आएगा. डैन और उसके दुनियादार दोस्तों के बीच की कैमिस्ट्री नजर आएगी. आप फ्रेम दर फ्रेम इस फिल्म के क्राफ्ट से मुत्तास्सिर होते जाएंगे.
इस फिल्म का क्राफ्ट आम हिंदी फिल्मों के क्राफ्ट से बेहद अलहदा है. इसके संपादन में एक रिदम है, गति है, लय है. अविक मुखोपाध्याय की सिनेमैटोग्राफी में ओस से गीले हरसिंगार के फूल, मकड़ी के जाले, बोगनवेलिया एक काव्यात्मकता रचते हैं. खूबसूरत लगता हर फ्रेम फिल्मी रूप से नाटकीय नहीं बल्कि इतना वास्तविक है कि मन करेगा कि फ्रेम को अपने कंप्यूटर का स्क्रीनसेवर बना लें.
लेकिन इन्हीं दृश्यों से एक उदासी सृजित होती जाती है. फिर पहाड़ हैं. उनमें जंगलों से निकलता सूरज है, उसकी किरनें हैं, नदी है. और हर फ्रेम में अपनी अदाकारी से आपको आश्वस्त करते वरूण धवन हैं.
अक्तूबर बिस्तर पर पड़े मरीजों की देखभाल में लगे लोगों के त्याग का अनकहा पाठ है और कुछ असंवेदनशील लोगो पर टिप्पणी भी.
नायिक बनिता संधू (शिवली) फिल्म में ज्यादातर वक्त बिस्तर पर मृतप्राय अवस्था में बिताती दिखती हैं. उनके पास विकल्प कम थे पर उनकी आंखें अद्भुत रूप से संप्रेषणीय हैं.
हमें न तो बनिता का नाम जानने की जल्दी होती है न फिल्म खत्म होने के बाद हमें वरूण धवन याद रहते हैं. हमें बस शिवली याद होती है और याद रहता है डैन.
इस सिनेमाई कविता को आप पांच-दस बरस बाद भी देखेंगे तो इसके भाव उतने ही शाश्वत रूप से ताजा होंगे, जितने ओस में गीले खुद हरसिंगार के फूल.
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (16-06-2018) को "मौमिन के घर ईद" (चर्चा अंक-3003) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बढ़िया समीक्षा
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