जिस देश में गंगा की ही फिक्र कम है उसमें बेचारी वरुणा और असि की क्या बिसात? जिन नदियों के नाम पर वाराणसी शहर बसा, उन नदियों के विलुप्त होने के बाद क्या शहर बचा रह जाएगा! कोई शहर लाख शिव के त्रिशूल पर बसा हो, पर बिना पानी के जड़े सूख ही जाएंगी.
बहुत समय से सुनते आए हैं कि नदियां किसी भी सभ्यता का आधार रही हैं और उसकी धमनियों की तरह होती हैं. दुनिया की तमाम महान सभ्यताएं नदी घाटियों में विकसित हुई हैं. आप चाहे सिंधु-गंगा घाटी की मिसाल लें या दजला-फरात की. एक नदी अपने इलाके की संस्कृति की वाहक होती है और अपने साथ एक इतिहास और सांस्कृतिक विरासत लेकर चलती है. किसी इलाके की खेती, वहां मछलीपालन और मछली समेत जलीय और तटीय जैव-विविधता नदी पर निर्भर होती है.
भारतीय साहित्य में नदियां मौजूद हैं. ऋग्वेद से ही हमारे साहित्य में नदियों का उल्लेख है. धार्मिक महत्व तो खैर है ही. आपको आज की परिस्थिति में संभवतया मजाक लगे लेकिन हाल तक देश के कई हिस्सों में सीधे नदियों का पानी पिया भी जाता था. मैं खुद ओडिशा के कालाहांडी इलाके में जब नियामगिरि पहाड़ियों पर जा रहा था, तो वहां स्थानीय लोगों को बमुश्किल छह सात फुट चौड़ी नदी का पानी पीते देखा था. मुझसे भी कहा गया कि यहां के नदियों का पानी अभी प्रदूषण से बचा है और इसमें पहाड़ियों की दुर्लभ जड़ी-बूटियों का मिश्रण हैं. वाकई पानी साफ था और सुस्वादु भी. (जी हां, आप माने न माने, पानी का भी स्वाद होता है)
लेकिन यकीन मानिए, जिस तरह से हम अपनी नदियों का नाश करते जा रहे हैं हम जल्दी ही दुनिया में जलसंकट का सामना करने वाले देशों में होंगे. हमारी आबादी भी अबाध गति से बढ़ती जा रही है और नदियां उतनी ही तेजी से लुप्त होती जा रही हैं.
वैसे हम जब भी नदी शब्द कहते हैं तो दिल्ली वालों को यमुना याद आती है (गाद से भरी, काली) और मैदानी लोगों को गंगा. लेकिन इसके साथ ही हम उन छोटी नदियों को भूल जाते हैं. पिछले हफ्ते मैंने कोलकाता की आदि गंगा का जिक्र किया था जो गंदे नाले में बदलकर रह गई है. लेकिन इन छोटी नदियों के योगदान से ही बड़ी नदियां वाकई बड़ी नदियां बन पाती हैं, यह भी हमें याद रखना चाहिए. इन छोटी नदियों मे से कई बड़े शहरों का शिकार बन गई हैं. इनमें से कुछ तो शहर के अपशिष्ट प्रवाह को बहाने के काम आने वाले नालों में बदल गई हैं. इन छोटी नदियों पर हमारा ध्यान तभी जाता है जब घटिया ड्रेनेज सिस्टम की वजह से बरसात के मौके पर इन नदियों का पानी सड़कों पर आकर जमा हो जाता है.
इसलिए हमें याद रखना चाहिए कि एक सुचारू नदी तंत्र की भारत की बाढ़ जैसी आपदाओं से बचाव का एक रास्ता हो सकता है. इन दिनों बनारस बहुत चर्चा में है. प्रधानमंत्री जिस चुनाव क्षेत्र से मैदान में हो वह चर्चा में न आए तो क्या आए भला? हाल के हिंदी लेखकों की नौजवान पीढ़ी ने अस्सी घाट को भी बहुत तवज्जो दे दी है. पर इस बात का जिक्र लोग कम ही करते हैं कि वाराणसी का नाम जिन असि और वरुणा नदियों के नाम पर पड़ा और इन दोनों नदियों के भूखंड को ही वाराणसी कहा गया, उन नदियों का क्या हुआ? इस शहर को बनारस नाम तो मुगलों ने दिया था और बाद में अंग्रेजों ने भी इसी नाम को आगे बढ़ाया.
अस्सी नदी वाराणसी के घमहापुर गांव में स्थित कर्मदेश्वर महादेव कुंड से शुरू होकर लगभग 8 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद गंगा में मिलती है. इसका जल-ग्रहण क्षेत्र लगभग 14 वर्ग किलोमीटर के दायरे में है.
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार देवी दुर्गा ने शुम्भ-निशुम्भ नामक असुरों का वध करने के बाद जहां अपनी तलवार फेंकी थी, उस स्थान पर ही महादेव कुंड बना और इससे निकले पानी से ही असि (बाद में अस्सी) नदी का उद्गम हुआ. तलवार को संस्कृत में असि कहते हैं. यह अस्सी नदी पहले अस्सी घाट के पास गंगा में मिलती थी, पर गंगा कार्य योजना के बाद से इसे मोड़ कर लगभग दो किलोमीटर पहले ही गंगा में मिला दिया गया. यही नहीं, सरकारी फाइलों में भी इसे अस्सी नदी नहीं बल्कि अस्सी नाला का नाम दे दिया गया है.
आज की पीढ़ी को पता नहीं होगा कि अपनी विरासतों को सहेजने में जितनी उदासीन हमारी सरकार है उतने ही हम भी हैं. और जिस नाले में हम मूलमूत्र विसर्जित करके प्रकारांतर से गंगा में भेज रहे हैं वह नदी थी और वाराणसी के वातावरण के लिए आवश्यक थी.
पर जिस देश में गंगा की ही फिक्र कम है उसमें बेचारी वरुणा और असि की क्या बिसात. वरुणा भी साथ में ही काल का ग्रास बन रही है. पर क्या यह मुमकिन है कि जिन नदियों के नाम पर वाराणसी शहर बसा, उन नदियों के विलुप्त होने के बाद बचा रह जाएगा. कोई शहर लाख शिव के त्रिशूल पर बसा हो, पर बिना पानी के जड़े सूख ही जाएंगी.
नदियां पहले जरा भी दूषित नहीं थीं क्योंकि हमने इन्हें जीवन धर्म से जोड़ रखा था , हर नदी की पूजा की जाती थी उसे किसी भी देवी के रूपमें जाना जाता था उसे पवित्र माना जाता था , ज्यों ज्यों जनसँख्या का विस्तार हुआ ,लोगों में धर्म के प्रति आस्था कम हुई इनका भी अनादर चालू हो गया , पहले नदी में स्नान के समय लोग साबुन बाहर बैठ कर लगाते व नहाते थे ताकि पानी गन्दा न हो क्योंकि उसे पीया भी जाता था अब हम ने खुद ही इनका विनाश कर डाला हमारी सरकारें भी इस के लिए उतनी ही जिम्मेदार हैं , सरकार पर निर्भर न रह कर समाज को स्वयं इन्हें प्रदूषित होने व बचाने के लिए आगे आना चाहिए
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन अंग दान दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDelete