Friday, September 13, 2019

हैप्पी हिंदी डे ड्यूड

ऐतिहासिक रूप से हिंदी के साथ कई समस्याएं हैं और मौजूदा दौर में यह समस्याएं अधिक गहरी हो गई है. पहली समस्या इसके दिवस का मनाया जाना है. अंग्रेजी भाषा का भी कोई दिवस है इस बारे में मुझे ज्ञात नहीं है. अगर हो, तो समझदार लोग ज्ञानवर्धन करें. कुछ वैसे ही जैसे महिलाओं की सशक्तिकरण के लिए दिवस तो मनाया जाता है पर संभवतया कोई मर्द दिवस नहीं है. अस्तु.

हिंदी के साथ दूसरी समस्या यह है कि हिंदी में सामान्य पाठक वर्ग का घनघोर अभाव है. हिंदी में पढ़ते वही हैं जो लिखते हैं यानी लेखक हैं. यानी कि साहित्य या राहित्य, जो भी मुमकिन हो लिख डालते हैं.

हिंदी क्षेत्र का सामान्य छात्र हिंदी में लिखे को पढ़ना प्रायः अपमानजनक, अति अपमानजनक या घोर अपमानजनक मानता है. इसको आप पद्मश्री, पद्म भूषण और पद्म विभूषण की तरह अधिक इंटेंस मानते चलें. वह अंग्रेजी में चेतन भगत पढ़ लेगा पर हिंदी में अज्ञेय, जैनेंद्र या ऐसे ही किसी दूसरे लेखक का नाम सुनकर हंस देगा. हाल में मीडिया के छौनों (समझें, छात्रों) के साथ बातचीत का मौका मिला. उनको हिंदी लिखने का मतलब शुद्ध हिंदी बताया गया था. हिंदी की शुद्ध हिंदी वाली छवि क्या है? संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्द लिखा जाना? क्या वाकई हिंदी में वैसा लिखा गया है या लिखा जाता है? मुझे लगता है एतद् द्वारा वाली हिंदी अब सरकारी विज्ञप्तियों के अलावा कहीं बची नहीं है.

बचे हिंदी के लेखक. उनके बच्चे अंग्रेजी स्कूल में पढते हैं (गलत नहीं है अंग्रेजी पढ़ना) अंग्रेजी बोलते हैं (यह भी गलत नहीं) अंग्रेजी से मुहब्बत करते हैं (किसी भी भाषा से मुहब्बत करें गलत नहीं है) पर अपने ही हिंदी में लिखने वाले पिता के लेखन को कुछ तुच्छ-सा, घटिया-या, दोयम दर्जे का या अत्यधिक शास्त्रीय समझते हैं

इतनी देर में आप समझ गए होंगे कि हिंदी से मेरा मतलब महज हिंदी व्याकरण या कविता संग्रह या अभिव्यक्ति की आजादी को सातवें आसमान तक ले जाने वाले उपन्यास नहीं है. मेरा तात्पर्य हिंदी में लिखे कुछ भी से है. विज्ञान भी, और इतिहास भी. पर सामान्य जन का मन हिंदी में लगे भी कैसे? हिंदी में लिखने का मतलब सीधे-सीधे साहित्य वह भी दुरूह भाषा से लगा लिया जाता है.

जो हिंदी में लिखता है वह क्या सिर्फ कविता लिखेगा, या कहानी? या उपन्यास? यह मानिए कि हिंदी में स्तरीय नॉन-फिक्शन खासकर इतिहास, भूगोल, अर्थव्यवस्था, विज्ञान, राजनीति पर लेखन कम होता है. जो होता है उसकी कीमत औसत हिंदी पाठक की जेब से बाहर की होती है. बात रही स्तरीय अनुवाद की. हिंदी में स्तरीय अनुवाद करने वाले लोग मुट्ठी भर हैं. जो करते हैं प्रकाशक उनको भुगतान करना नहीं चाहते. अनुवादक को न तो पर्याप्त सम्मान मिलता है और न पैसा. प्रकाशक सस्ते में अनुवाद कराने के चक्कर में पूरी कृति का तिया-पांचा हो जाने देते हैं.

एक अन्य बात हिंदी पट्टी के अधिकतर लोगों की मुफ्तखोरी की मानसिकता की भी है. हिंदी वाले जो लोग पढ़ना चाहते हैं, वह खरीदना नहीं चाहते. वह चाहते हैं गणतंत्र दिवस परेड या प्रगति मैदान के ट्रेड फेयर के पास की तरह किताब भी उनको मुफ्त में मिल जाए. वह एहसान जताएं, देखो मैंने तुम्हारी किताब पढ़ी.

एक अन्य बड़ी समस्या भाषा की है. हिंदी के ज्यादातर लेखक ऐसी भाषा लिखते हैं (मेरा मतलब दुरूह से ही है) कि सामान्य पाठक सर पकड़कर बैठ जाता है. (ऐसी समस्या अंग्रेजी में नहीं है) हिंदी के विरोधी ज्यादा हैं इसलिए हिंदी में सरल लिखने का आग्रह टीवी और डिजिटल माध्यम में अधिक रहता है. यह आग्रह कई बार दुराग्रह तक चला जाता है.

देश में 3 फीसदी अंग्रेजी बोलनेवाले लोगों के लिए चल रही अंग्रेजी मीडिया में मीडियाकर्मियों की तनख्वाह हिंदी वालों से कर लें तो उड़ने वाले सभी हिंदी पत्रकार भी औकात में आ जाएंगे. अंग्रेजी में फां-फूं करने वाले औसत छात्र भी इंटरव्यू में शीर्ष पर बैठते हैं. बाकी देश में हिंदी की स्थिति क्या है यह वैसे किसी बालक से पूछिएगा जो हिंदी माध्यम से यूपीएससी वगैरह की परीक्षा में बैठता है.

खैर, शुक्रिया कीजिए हिंदी सिनेमा का कि हिंदी का प्रसार किया. टीवी का भी. पर यहां भी हिंदी सिनेमा में अमिताभ बच्चन को छोड़कर बाकी सभी लोग अपने संवाद रोमन में और फिल्म की पटकथा का बाकी ब्योरा अंग्रेजी में लेते हैं. इंटरव्यू देने में भी उन्हें अंग्रेजी ही मुफीद लगती है. अंग्रेजी में कुछ भी बोलने वाले की बात को गौर से सुनना और हिंदी में गहरी अच्छी बात को भी हल्के में लेना भारतीय मानसिकता का वही पक्ष है जिसे गोरा रंग सुंदर लगता है और गहरा रंग असुंदर. हिंदी पट्टी की मानसिकता वही है जिसकी वजह से चमड़ी के रंग को गोरा बनाने वाली क्रीमें बाजार में सबसे ज्यादा बिकती हैं.

बुरा लगेगा पर, हिंदी के प्रसार खासकर सरकारी अधिकारियों और मंत्रियों के भाषणों में हिंदी लाने का अहम काम नरेंद्र मोदी ने किया है. आप को चुभेगी यह बात पर सच है.

आखिरी बात, ऊंचे दर्जे के साहित्यकारों ने हिंदी के प्रसार के लिए कुछ भी नहीं किया है. हो सकता है समृद्धि आई हो हिंदी के खजाने में. पर प्रसार तो नहीं हुआ. आजकल नई वाली हिंदी भी है, जिसमें मैं नयापन खोजता रह गया.

बहरहाल, नई हो, पुरानी हो, तमिल, तेलुगू, बंगाली, बिहारी, मैथिली, ओडिया..चाहे जिस भी लहजे में हो, हिंदी हिंदी ही है. रहेगी. हो सकता है अगले 50 साल में हिंदी विलुप्त हो जाए. कम से कम लिपि तो खत्म हो ही जाए. लेकिन तब तक अगर बाजार ने इसे सहारा दिए रखा तो चलती रहेगी, चल पड़ेगी. तब तक के लिए हैप्पी हिंडी डे ड्यूड.

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4 comments:

  1. हिंदी की दशा और दुर्दशा का सटीक चित्रण 🙏

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  2. बेहतरीन! मेरा तात्पर्य समीचीन से है.

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  3. बहुत सही है, मुझे भी लगता है लोग सभी भाषा बोलते हैं पर हिंदी बोलने से क्यू दूर हो रहे हैं। जबकि वो हिन्दी समझते भी हैं।। कोई नौकरी के लिए साछत्कार हो या कोई दूसरे भाषा वालो से बात चित मुझे बहुत गुस्सा भी आता है और तकलीफ भी ।। पर क्या करे किसी को नहीं समझा सकते अपनी तकलीफ को ।।

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  4. हिन्दी के लेखकों को इसलिए नहीं पढ़ा जाता क्योंकि हिन्दी में मनोरंजन के लिए साहित्य कम लिखा जाता है। जो लिखते हैं उन्हें मुख्यधारा के साहित्यकार ह्ये दृष्टि से देखते हैं। नहीं तो आज भी भी सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के उपन्यासों का प्रिंट रन मुख्यधारा के राइटर से ज्यादा होगा। आपने तुलना भी चेतन भगत से अज्ञेय की की है। ये तुलना वैसे भी नहीं है। अज्ञेय से तुलना ही करनी है तो अरुंधती रॉय की कीजिये, कमला देशपांडे की कीजिये, किरण नागरकर की कीजिये, अमिताभ बागची की कीजिये। चेतन भगत जी की तुलना सत्य व्यास जी से हो सकती है और दोनों ही मुख्य धारा के साहित्य से ज्यादा बिकते हैं। हिन्दी में पाठकों की कमी इस कारण भी है कि मनोरंजक साहित्य काफी कम हैं। जबकि आप अंग्रेजी में देखिये हर तरह का मनोरंजक साहित्य मिल जायेगा। आपको हॉरर, जासूसी, रोमांच, विज्ञान गल्प जैसी श्रेणी की उच्चतम कृतियाँ अंग्रेजी में मिल जाएगी। अंग्रेजी में अनुवाद भी आसानी से मिल जायेंगे।

    बाकी आपके लेख से सहमत। हमारा एजुकेशन सिस्टम ऐसा बना है जो कि बच्चे को दसवी के बाद से हिन्दी पढने नहीं देता। कॉलेज और फिर काम काज में तो ज्यादातर अंग्रेजी की ही जरूरत पड़ती है। इसलिए जब व्यक्ति को पता है कि उसका काम अंग्रेजी से चलना है तो हिन्दी पढ़ना छूटता जाता है। फिर हिन्दी वही पढ़ते हैं जिन्हें साहित्य में रूचि होती है।

    हाँ, अगर हिन्दी को काम काज की भाषा बना दिया जाये तो शायद कुछ फायदा हो? वरना केवल उपन्यास कहानी इत्यादि ही बचेंगे।

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