Wednesday, February 19, 2020

वनवास के बाद बाबूलाल मरांडी की घर वापसी से पांचों उंगली घी में

झारखंड में भाजपा को बाबूलाल मरांडी की और मरांडी को भाजपा की जरूरत थी. दोनों एकदूसरे के पूरक बनेंगे तो प्रदेश भाजपा को एक साफ-सुथरी छवि का आदिवासी नेता मिलेगा और मरांडी को अपने लिए मजबूत संगठन. 2009 से 2019 के लोकसभा तक, एक के बाद एक चार चुनाव हार चुके बाबूलाल मरांडी के लिए भाजपा में शामिल होना उनके सियासी करियर के लिहाज से संजीवनी की तरह है.


आखिरकार झारखंड (Jharkhand) के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी का 14 साल का वनवास खत्म हो ही गया. मरांडी की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में 'घर वापसी' हो गई. बाबूलाल खुद तो भाजपा में आए ही, अपने साथ-साथ वह पूरी पार्टी भी लेकर आए और उन्होंने अपनी पार्टी झारखंड विकास मोर्चा (झाविमो) का भाजपा में विलय भी कर दिया. केंद्रीय गृहमंत्री और भाजपा के पूर्व अध्यक्ष अमित शाह ने बाबूलाल मरांडी को माला पहनाकर पार्टी में शामिल करवाया. अब उम्मीद यह है कि बाबूलाल मरांडी को प्रदेश भाजपा में बड़ा पद दिया जा सकता है.

बाबूलाल मरांडी को भाजपा की जरूरत समझ में आती है पर सवाल यह है कि आखिर भाजपा को मरांडी की ज़रूरत क्यों आन पड़ी? असल में, इन सवालों के उत्तर मार्च में संभावित राज्यसभा चुनावों में भी मिल सकते हैं. झाविमो के भाजपा में विलय से झारखंड की 2 सीटों में से भाजपा के लिए एक सीट जीतने की राह आसान हो गई है. बाबूलाल मरांडी के भाजपा में आने से यह संभावनाएं बनी हैं. 2014 में निर्विरोध जीते राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के प्रेमचंद गुप्ता और निर्दलीय परिमल नथवाणी भले ही इस बार झारखंड से राज्यसभा में न जाएं, पर इस बार भी यह चुनाव निर्विरोध ही होने की उम्मीद है. जहां भाजपा की एक सीट तय मानी जाने लगी है. वहीं, झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) की एक सीट पहले से पक्की है.

झामुमो सूत्र संकेत दे रहे हैं कि पार्टी सुप्रीमो शिबू सोरेन को सीबीआई अदालत से राहत दिलाने वाले सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील और पूर्व सांसद संजीव कुमार को झामुमो फिर से राज्यसभा भेज सकता है.

असल में, प्रदेश भाजपा में इसे लेकर थोड़ी पेशोपेश की स्थिति है. नेतृत्व अभी यह तय नहीं कर पा रहा है कि दांव स्थानीय नेताओं पर लगाया जाए या किसी बाहरी को टिकट दिया जाए.

9 अप्रैल को राज्यसभा में झारखंड से दो सीटें खाली हो रही हैं. चुनाव में जीत के लिए एक उम्मीदवार को कम से कम 28 विधायकों के समर्थन की जरूरत होगी. झामुमो के पास 30 विधायक हैं. बाबूलाल मरांडी के भाजपा में शामिल होने के बाद इस पार्टी की सदस्य संख्या 26 हो जाएगी. आजसू के दो विधायकों को मिला लें तो भाजपा समर्थक विधायकों की संख्या 28 हो जाती है. वैसे भाजपा का दावा है कि दो निर्दलीय विधायक भी उनके संपर्क में हैं. इन्हें मिला लें तो भाजपा 30 तक पहुंच जाती है. इस प्रकार झामुमो-भाजपा अपने-अपने उम्मीदवारों को राज्यसभा भेज सकते हैं.

अब बात, बाबूलाल मरांडी के भाजपा में आऩे की. असल में, मरांडी को अपने सियासी करियर का अस्तितिव बचाए रखने के लिए आज न कल यह कदम तो उठाना ही था.

झारखंड जब बिहार से अलग हुआ था तो पहले मुख्यमंत्री बने थे बाबूलाल मरांडी. तब भाजपा के वे झारखंड के कद्दावर नेता माने जाते थे. पर 28 महीनों तक मुख्यमंत्री रहने के बाद गुटबाजी की वजह से उन्हें कुरसी छोड़नी पड़ी थी और उनकी जगह अर्जुन मुंडा को मुख्यमंत्री बनाया गया था. तब से यह टीस उनके मन में पैठी हुई थी. 2006 में उन्होंने गुटबाजी का आरोप लगाकर पार्टी छोड़ दी और तभी से उनके सियासी करियर पर ग्रहण लगना शुरू हो गया. लगातार दस साल तक, यानी 2009 के बाद 2019 तक बाबूलाल मरांडी कोई चुनाव नहीं जीत पाए थे. उनकी किस्मत ने उनका साथ एक दशक बाद 2019 के विधानसभा चुनावों में दिया, जब वह धनवार से जीते.

2009 से 2019 लोकसभा चुनाव तक, मरांडी लगातार चार चुनाव हार चुके थे. 2009 में वे कोडरमा से सांसद चुने गये थे. कोडरमा से 2004 और 2006 के उपचुनाव में जीतकर लोकसभा पहुंचे थे. 2014 के लोकसभा चुनाव में वे दुमका चले गये जहां शिबू सोरेन ने उन्हें हरा दिया था.

2014 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने धनवार और गिरिडीह से परचा दाखिल किया था पर दोनों ही जगह से उनको पराजय का मुंह देखना पड़ा था. 2014 के बाद उनकी पार्टी के छह विधायक टूटकर भाजपा में शामिल हो गए थे. इससे उनकी पार्टी और छवि दोनों को गहरा धक्का लगा था. लगातार चुनाव हारने से भी मरांडी की छवि कमजोर नेता के तौर पर बनती जा रही थी और यह साफ दिखने लगा था कि अब बाबूलाल मरांडी वह नेता नहीं रहे जो झारखंड स्थापना के वक्त थे.

2019 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने कोडरमा से फिर से किस्मत आजमाई पर भाजपा की अन्नपूर्णा देवी ने उन्हें करारी शिकस्त दी थी. और इस बार यानी 2019 के झारखंड विधानसभा चुनाव में भी उनके लिए मुकाबला कोई बहुत आसान नहीं रहा, पर आखिरकार वह जीत गए.

अब, 2014 में मिले सबक को याद रखकर, जब उनके 8 जीते विधायकों में से 6 भाजपा में मिल गए थे, मरांडी ने हर कदम फूंक-फूंककर रखा. उनकी पार्टी के टिकट पर जीते 3 विधायकों में से पहले उन्होंने बंधु तिर्की को पार्टी से बाहर किया और फिर प्रदीप यादव को. तिर्की तो कांग्रेस में शामिल हो गए पर प्रदीप यादव को लेकर खुद कांग्रेस में घमासान मचा हुआ है. प्रदेश कांग्रेस के एक कार्यकारी अध्य़क्ष डॉ. इरफान अंसारी ने इस प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है. वह यादव को पार्टी में नहीं आऩे देने को लेकर कमर कसे हुए हैं.

बहरहाल, अपने दोनों विधायकों से छुट्टी पाने के बाद मरांडी भाजपा में आए हैं, क्योंकि अब विलय के बाद उन पर दल-बदल कानून प्रभावी नहीं रहेगा. और यह भी तय है कि मरांडी को पार्टी कोई प्रतिष्ठित पद देगी. इसकी एक वजह यह भी रही कि खुद अमित शाह बाबूलाल मरांडी को पसंद करते हैं और मरांडी की पृष्ठभूमि भी संघ के प्रचारक की रही है. मरांडी भाजपा में आने को कितने आतुर थे इसकी झलक उनके इस बयान से भी मिलती है कि वह भाजपा दफ्तर में झाड़ू लगाने को भी तैयार हैं.

सीधे-सादे राजनीतिज्ञ के रूप में छवि बनाए मरांडी को भाजपा में वाकई पद भी मिलेगी और प्रतिष्ठा भी, पर उनकी पार्टी में यह असमंजस है कि उनके पार्टी पदाधिकारियों के हिस्से में क्या आएगा?

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