आंकड़े बताते हैं कि अंग्रेजों ने 1765 से 1938 तक भारत से करीब 45 ट्रिलियन डॉलर की संपत्ति लूट ली. चार साल पहले अर्थशास्त्री उत्सव पटनायक ने एक अध्ययन में अंग्रेजी की लूटपाट का ब्योरा दिया था जिसे कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने प्रकाशित किया था.
इतने बड़े पैमाने पर पैसा देश से बाहर व्यापार के माध्यम से गया जिसे अंग्रेज मनमाने तरीके से चलाते थे. 1765 में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना के साथ भारत का व्यापार अंग्रेजों की मुट्ठी में आ गया.
भारत से व्यापार करने के लिए किसी भी विदेशी को 'काउंसिल बिल' का इस्तेमाल करना होता था. यह 'पेपर करेंसी' सिर्फ ब्रिटिश क्राउन से मिलती थी. इसे हासिल करने के लिए लंदन में सोने और चांदी के बदले बिल लिए जाते थे.
भारत के व्यापारी जब इन्हें ब्रिटिश हुकूमत के पास कैश करवाने जाते थे तो उन्हें रुपयों में भुगतान मिलता था. ये वही पैसे थे जो टैक्स के रूप में व्यापारियों ने अंग्रेजों को दिए थे. एक बार फिर अंग्रेजों की जेब से कुछ नहीं जाता था और उनके पास सोना-चांदी भी आ जाता था. देखते-देखते 'सोने की चिड़िया' का घोंसला उजड़ गया.
भारत के व्यापारी जब इन्हें ब्रिटिश हुकूमत के पास कैश करवाने जाते थे तो उन्हें रुपयों में भुगतान मिलता था. ये वही पैसे थे जो टैक्स के रूप में व्यापारियों ने अंग्रेजों को दिए थे. एक बार फिर अंग्रेजों की जेब से कुछ नहीं जाता था और उनके पास सोना-चांदी भी आ जाता था. देखते-देखते 'सोने की चिड़िया' का घोंसला उजड़ गया.
इस अध्ययन के मुताबिक, भारत से लूटे गए पैसों का इस्तेमाल ब्रिटेन कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के विकास के लिए करता था. आसान शब्दों में कहें तो भारत के खजाने से न सिर्फ ब्रिटेन बल्कि कई अन्य देशों का भी विकास हुआ. 190 साल में ब्रिटेन ने भारत के खजाने से कुल 44.6 ट्रिलियन डॉलर चुराए. यही कारण है कि ब्रिटेन तेजी से तरक्की की सीढ़ियां चढ़ता गया और भारत संघर्षों में फंसा रह गया.
चोरी और लूट के माल से विकसित हुए देशों के साथ मेरी कोई सदिच्छा या सहानुभूति नहीं है.
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