पर क्यों न चले. देश का उत्सव है, देश की तरक्की का उत्सव है. और तमाशा जैसा लग रहा है तो होना भी चाहिए.
पर इस तमाशे में कई लोगों के पोस्ट बदमजगी पैदा कर रहे हैं. और ऐसे-वैसे लोग नहीं हैं, जहीन और बुद्धिजीवी किस्म के लोग हैं. पर आप कहीं जाइएगा मत. चांद पर पाखाना वाली बात करेंगे हम.
पर इस तमाशे में कई लोगों के पोस्ट बदमजगी पैदा कर रहे हैं. और ऐसे-वैसे लोग नहीं हैं, जहीन और बुद्धिजीवी किस्म के लोग हैं. पर आप कहीं जाइएगा मत. चांद पर पाखाना वाली बात करेंगे हम.
वैसे कुछ लोग चांद पर झंडा, झंडे पर चांद वाला फिकरा कस कर भारत की कामयाबी को एक अलग कोण से देख रहे हैं, पर यह देश की इस विशाल कामयाबी को छोटा करना होगा. टाइम लाइन पर स्क्रॉल करते समय किसी ने कहा कि पाकिस्तान ने इसरो को बधाई दी है और हम लोग पाकिस्तान नीचा दिखा रहे हैं.
अब यह बात सौ फीसद सच है कि हिंदुस्तान का मुकाबला किसी असफल और कंगाल राष्ट्र से नहीं किया जाना चाहिए, जिसको खुद नहीं पता कि भारत को क्षति पहुंचाने के बददिमाग इरादे के अलावा उसका दुनिया में आखिर अस्तित्व है भी तो क्यों है? तो ऐसे पाकिस्तान के बधाई संदेश को भी संदेह से ही देखना होगा और देखा जाना चाहिए.
पर कहा न, तमाशे के बीच अपनी पींपनी अलग फूंकने का भी अलग ही मजा है. पर अपनी असली बात तो चांद पर पाखाने की है.
असल में किसी ने कहा है, “ए लॉट ऑफ पीपल बिकम अनएट्रैक्टिव वन्स यू फाइंड आउट व्हॉट दे थिंक.” सोच का पता चलते ही बहुत सारे लोग अनाकर्षक लगने लगते हैं.
मुझे सोशल मीडिया पर पोस्ट्स पढ़ने और अलग किस्म की शख्सियत बनाने के मारे बहुत सारे लोग अनाकर्षक और भद्दे लगने लगे हैं. जाहिर है, वह निजी रूप से टन टना टन होंगे पर सोशल मीडिया पर उनकी प्रोफाइल किसी न किसी पेशेवर दवाब में होगी. खैर. बात चांद पर पाखाने की.
पर चंद्रयान 3 जब लॉन्च हुआ था तब बिहार में रहने वाले एक पूर्व आइपीएस अधिकारी ने दुखी होकर लिखा था कि चांद पर राकेट भेजकर देश को क्या मिलेगा? और चांद को शायरों के लिए छोड़ देना चाहिए. मुझे तब उनकी बात से खीज से ज्यादा दुख हुआ कि अपनी ऐसी सोच के साथ उन्होंने लंबे समय तक प्रशासन चलाया होगा.
और ऐसे लोग आज सफल लैंडिंग के लिए देशभर में की जा रही पूजा प्रार्थना, दुआ-नमाज को गलत बता रहे हैं. उनको अब वैज्ञानिक सोच की चिंता हो रही है. सिर्फ चिंता ही नहीं हो रही है, बल्कि वे लोग भयंकर रूप से दुबले हुए जा रहे हैं और डॉक्टरों ने कहा इतनी चिंता से उनकी चतुराई घटती जा रही है.
यार इतनी अंट-शंट बातों में दिमाग फिर गया है कि चांद पर गू (आई मीन पाखाना) की बात रह जा रही है.
सोशल मीडिया पर लोग अंट-शंट लिखते ही हैं. बहरहाल, एक जहीन शख्स ने लिखा कि नमाज-पूजा वगैरह की जरूरत ही क्या थी. बल्कि देश को वैज्ञानिकता का जश्न मनाना चाहिए. इस मरदे ने, उस पूर्व आईपीएस की उस पोस्ट पर दिल बनाया था, जिस में उन पूर्व अधिकारी ने चंद्रयान लॉन्च को निरर्थक बताया था.
सोशल मीडिया पर लोग अंट-शंट लिखते ही हैं. बहरहाल, एक जहीन शख्स ने लिखा कि नमाज-पूजा वगैरह की जरूरत ही क्या थी. बल्कि देश को वैज्ञानिकता का जश्न मनाना चाहिए. इस मरदे ने, उस पूर्व आईपीएस की उस पोस्ट पर दिल बनाया था, जिस में उन पूर्व अधिकारी ने चंद्रयान लॉन्च को निरर्थक बताया था.
खैर, जब चंद्रयान-2 लॉन्च होने वाला था तो मेरे एक मित्र ने (नाम लेना समुचित नहीं) इसरो के चेयरमैन की तिरुपति मंदिर जाने की तस्वीर पोस्ट की थी. साथ में उनकी टिप्पणी का मूल भाव था कि एक वैज्ञानिक मंदिर कैसे जा सकता है!
असल में, कथित उदारवादियों को किसी वैज्ञानिक के मंदिर (या मस्जिद, दरगाह आदि) जाने पर बहुत हैरत होती है. वहां उनके लिए चॉइस का विकल्प सीमित हो जाता है. स्थिति यह है कि वाम विचारक इस बात पर हमेशा हैरत जताते हैं कि एक वैज्ञानिक या डॉक्टर या इंजीनियर, एक ही विषय के बारे में वैज्ञानिक नजरिए के साथ ‘धार्मिक’ भी कैसे हो सकता है!
असल में, हमें यह सिखाया जाता है कि वैज्ञानिक होने का मतलब उद्देश्यपरक होना है. यह उद्देश्यपरकता लोगों को खालिस वस्तुनिष्ठ बनाती है यानी दुनिया को एक मानव के रूप में या मनुष्यता के तौर पर नहीं देखने का गुण विकसित करना ही नहीं, बल्कि खुद को एक अवैयक्तिक पर्यवेक्षक के रूप में तैयार करना भी.
वैसे, ज्यादातर मामलों में यह हैरत सिर्फ मंदिर जाने पर जताई जाती है.
पर मुझे नहीं लगता कि विज्ञान के मामले में धर्म के अस्तित्व से डरना चाहिए. धर्म की अपनी स्थिति और अवस्थिति है, विज्ञान की अपनी. वैज्ञानिक सोच को अपनाना है तो आपको जीवन में उसे हर क्षेत्र में अपनाना होगा. विज्ञान इस मामले में निर्दयी होने की हद तक ईमानदार है.
पर, विज्ञान की आड़ में धर्म पर फर्जी एतराज जताने वाले लोग न तो वैज्ञानिक सोच वाले हैं और न ही, उनको विज्ञान में कोई आस्था है.
देखिए, दूसरों की बात में मैं पाखाने जैसी जरूरी बात कैसे भूल जा रहा हूं. वह भी धरती वाली नहीं, चांद पर पाखाने की.
आपको याद होगा कि चांद पर अपोलो 11 को गए 50 साल हो गए हैं. नील आर्मस्ट्रांग के कदमों के निशान तो अब भी चांद पर हैं जिसमें कोई परिवर्तन नहीं आया होगा. काहे कि चांद पर न तो हवा है न अंधड़-बरसात.
लेकिन इस पदचिन्ह से भी बड़ी (और बदबूदार) निशानियां इंसान चांद पर छोड़ आया है. रिपोर्ट्स के मुताबिक, इंसानों ने छह अपोलो मिशनों से पाखानों से भरे 96 बैग चांद की राह (ऑर्बिट) में फेंके हैं और इनमें से कुछ चांद पर भी पड़े हैं. तो अंतरिक्ष में, इंसान की गैरमौजूदगी में भी उसकी निशानियां (पता नहीं अब किस रंग की होंगी, और बदबू तो खैर हवा ने होने से फैलती भी नहीं होगी, पर गू तो गू है भई.) उसके आने की गवाही चीख-चीखकर दे रही हैं.
अच्छा चलते-चलते चांद पर इब्न-ए-सफ़ी का लिखा सुंदर-सा शेर याद आ रहा है
चाँद का हुस्न भी ज़मीन से है
चाँद पर चाँदनी नहीं होती
चाँद पर चाँदनी नहीं होती
...और ये बात, विक्रम लैंडर को पता चल गई होगी.
No comments:
Post a Comment