कदैसी विवासायी का दृश्य, सौजन्यः गूगल |
मेरे लिए फिल्म की भाषा महत्वपूर्ण नहीं है. और मैं डबिंग की बजाए मूल भाषा में फिल्म देखना पसंद करता हूं. बहरहाल. कदैसी विवासायी में विजय सेतुपति सिर्फ कैमियो में हैं.
अमूमन हम दक्षिण भारतीय फिल्मों से उम्मीद रखते हैं कि वह काफी लाउड होगी. जिसमें जलती चिता से नायक उठ खड़ा होता, जिसमें पैर घुमाकर वह बवंडर उठा सकता है, जिसमें महिला उपभोग की सामान है. पर कदैसी विवासायी अलग है.
निर्देशक एम. मणिकंदन की मैं पहली फिल्म देख रहा था. इंटरनेट से सर्च किया तो पता चला कि उन्होंने काका मुत्तई, कुट्टरामे थंडानई और आंदावन कट्टलाई नाम की तीन और फिल्में बना रखी है. और मैंने तय किया है उनकी यह तीन फिल्में भी देखूंगा.
बहरहाल, अभी कदैसी विवासायी की बात. कदैसी विवासायी तमिल शब्द है, जिसका अर्थ है आखिरी किसान.
निर्देशक किसी हड़बड़ी में नहीं दिखते. फिल्म में पहले दस मिनट तक एक भी संवाद नहीं है. क्रेडिट के साथ निर्देशक बहुत आराम से, और उससे भी अधिक बारीकी से आपको ले जाकर एक ठेठ तमिल गांव में बिठा देता है. और इस बीच वह आपको इस गांव के खेत-खलिहानो, गली-गलियारों, मवेशियों और पगडंडियों, मुरगों और मैनाओं, बकरियों और यहां तक कि पत्थरों से परिचित करवा देता है.
यह फिल्म एक त्रासदी की कथा कहती है, लेकिन यह त्रासदी नल्लांडी नाम के इस आखिरी किसान (कदैसी विवासायी) की नहीं है, यह त्रासदी उस समाज, हमारे गांवों और किसानों की है. उनके छिनते परिवेश, उनकी जीवनशैली, उनके पारंपरिक बीज भंडारों, उनके सदियों पुराने कीट प्रबंधन के तरीकों, खेती के तौर तरीकों के खत्म होते जाने की है. यह फिल्म इशारा करती है कि यह सब बड़े एहतियात के साथ, बड़े बारीकी से और व्यवस्थित तरीके से खत्म किया गया है.
फिल्म की शुरुआत में मुरुगन (यानी उत्तर के कार्तिकेय) की बेहद पुरानी स्तुति के बीच गांव का परिवेश स्थापित किया गया है. जिसमें उड़ानें भरते मोर हैं, खेतों में उतरती भेड़ें हैं, पैनोरमिक व्यू में पूरा गांव है. एक ठेठ हिंदुस्तानी गांव, जिसमें खपरैल के मकान हैं, जिसमें कद्दू-खीरा है, जहां हाट लगता है और वहां से हमारा नायक नल्लांडी सांप काटे का इलाज करने वाले कुछ पारंपरिक बूटियां और कुछ सब्जियां तो खरीद लाता है लेकिन खाद-बीज की दुकान में उसका सामना अजीब परिस्थिति में होता है.
यहां फिल्म अपना पहला पक्ष रखती है. किसान दुकान में खल्ली (मुझे लगता है कि वह नारियल की खल्ली थी या सरसों की) चखकर देखता है और कहता है कि इसमें तो तेल बचा ही नहीं, मेरे बैल क्या खाएंगे. यह ग्रामीण संसाधनों के दोहन पर संक्षिप्त टीप है क्योंकि दुकानदार कहता है कि आजकल के कोल्हू में बूंद-बूंद तेल निकाल लिया जाता है. बहरहाल, उस बीज की दुकान में किसान को टमाटर के पारंपरिक बीज नहीं मिलते. संकर बीज ऐसे हैं जिनके टमाटरों में आगे बीज नहीं होंगे...
यह जीएम बीजों के बढ़ते चलन पर इशारा है जिसकी गिरफ्त में हमारा किसान समाज आता जा रहा है.
वैसे, इस फिल्म का केंद्रीय विषय आत्मनिर्भरता की ओर है. फिल्म किसानी को किसी बहुत ऊँचे आसन पर बिठाने की कोशिश नहीं करती कि किसान ऐसे हैं जिसकी कभी आलोचना नहीं की जा सकती या अन्नदाता किसान की श्रद्धा में हम सबको झुक जाना चाहिए. यह फिल्म सीधा कहती है कि किसानों के साथ जो हजारों साल की परंपराएं चली आ रही हैं उस सहज और सरल जीवन को यूं ही, उपभोक्तावाद खत्म न कर दे.
हालिया वक्त में हमारे ऊपर किसानहितैषी फिल्मों की बमबारी-सी हुई थी. ऐसी फिल्में जिसमें माचो हीरो छाती ठोंककर खुद को किसान कहता है. लेकिन, इससे न किसान का भला हुआ न फिल्म के दर्शक का.
कदैसी विवासायी आपके अपने पंखों में अंदर छिपाकर ले जानी वाली फिल्म है, जो सीन-दर-सीन रगों में उतरती है. इसके हरियाले रंग, इसके ड्रोन एरियल शॉट्स, इसके ट्रैक शॉट्स... कैमरे का काम कमाल का है. यह फिल्म असल में कृषि के नाम लिखा गया निर्देशक का प्रेम पत्र है.
कदैसी विवासायी में कोई विलेन नहीं है. इसमें कोई आततायी नहीं है. बेशक आप कुछ किरदारों पर शैतान होने का लेबल चस्पां कर सकते हैं. मिसाल के तौर पर, वह पुलिस अधिकारी जो किसान (नल्लांडी) को सवाल-जवाब के लिए थाने ले जाता है और इसका अंत हमारे कथानायक किसान की न्यायिक हिरासत होती है.
कोई और फिल्म होती तो ये पुलिस अधिकारी, सिपाही, थानेदार शैतान की चरखी होते. और हमारा कथानायक किसान एक पीड़ित और मजबूर व्यक्ति. लेकिन निर्देशक मणिकांदन इस मोह से बच निकले हैं.
इस फिल्म में हर किरदार मानवीय है. और यही वजह है कि अदालत में न्यायिक हिरासत में उस किसान को भेजने वाली सत्र न्यायाधीश एक पुलिस वाले को इस किसान के खेतों को सींचने का आदेश देती है. अनिच्छुक पुलिसवाला सींचने जाता है और फिर उसको इसका आनंद मिलता है. पुलिस के मानवीय चेहरे को दिखाता हुआ एक ही शॉट काफी हैः सिंचाई के लिए खेत पर पहुंचा पुलिसवाला अपनी वर्दी उतारकर पंप सेट के नीचे नहाता है और मुदित मन दिखता है.
नायक किसान, नल्लांडी को खुद आत्मदया से पीड़ित बेचारा किसान नहीं है. वह थोड़ा ऊंचा सुनता है और अगर सिनेमाई मेटाफर समझते हैं तो समझिए कि आसपास की बदलती दुनिया के शोर को वह न सुन रहा है न समझ रहा है और इसलिए चकित है.
वह समझ नहीं पाता कि भेड़े चराने के लिए जा रहा चरवाहा दूसरे साथी को व्हॉट्सऐप लोकेशन क्यों मांग रहा है, वह चकित है कि उसके खानदान के पोते क्यों किसानी का क-ख-ग भी नहीं जानते. उसके कुछ नौजवान परिजन हैं जो उसे दादा कहते हैं, पर उन्हें खेतों में धान की सिंचाई के बारे में नहीं पता.
यह फिल्म बहुत सरल और नर्म है. जैसे गोयठे की आग होती है. लेकिन यह परंपराओं से कटे समाज की तरफ एक सख्त संदेश देती है. फिल्म में सूखाग्रस्त गांव में बारिश के लिए लोकदेवता की पूजा होनी है. पर लोकदेवता की पूजा की शर्त होती है कि गांव के हर जाति के लोग इसमें शामिल होंगे, तभी पूजा सफल होगी.
नल्लांडी को उस लोकदेवता के भोग के लिए धान उपजाने का जिम्मा दिया जाता है. और उसकी खेती की जो डिटेलिंग निर्देशक ने पेश की हैः भई, वाह.
पर गांव में पूजा के लिए कुम्हार से बरतन और मूर्तिंयां बनवानी है. पर कुम्हार तो अपना पेशा छोड़ चुका है. उसके चाक की मरम्मत और धो-पोंछ को बड़े करीने से निर्देशक ने पेश किया है. रासायनिक कीटनाशकों ने किस तरह नुक्सान पहुंचाया है, वह सब एक स्टेटमेंट की तरह आता है.
असल में, यह फिल्म ही सरल नहीं है, यह सरल लोगों के बारे में कही गई एक कहानी भी है. यहां तक कि फिल्म में एक मोर की हत्या करने वाला शख्स भी असल में शैतान नहीं है.
इस फिल्म में बार-बार मुरुगन का संदर्भ आता है. मुरुगन यानी कार्तिकेय. यह भी है कि किस तरह विनायागर (गणेश जी) ने माता-पिता का चक्कर लगाकर मुरुगन को हराया था. इस फिल्म में यह संदर्भ बहुत दिलचस्प है. मोरों का रेफरेंस बारंबार आता है. पर शायद इसलिए नहीं है कि फिल्म हमें मुरुगन की पूजा करने की ओर प्रवृत्त करती है. ऐसा इसलिए क्योंकि तमिलनाडु के कई हिस्सों में मुरुगन कृषि के देवता भी माने जाते हैं.
मोटे तौर पर फिल्म सतत विकास के संदर्भ में परंपरागत खेती की अहमियत को दिखाती है.
फिल्म में इस कथा के समांतर एक कथा रामैय्या की भी है. थोड़े सनक से गए सात्विक प्रेमी के किरदार में विजय सेतुपति दिखते हैं. उन्हें देखना विजुअल डिलाइट है. कैमियो किरदार है, पर जितनी देर हैं आपको बांधे रखते हैं.
फिल्म की खास बात है कि इसमें ज्यादातर अभिनेताओं ने पहली बार अभिनय किया है. पर वह सभी कई दफा बगैर संवाद के भी भाव संप्रेषित करने में सफल रहे हैं. हमारा 83 वर्षीय किसान अपनी बर्बाद हो चुकी फसल के सामने जब जाता है, तो उसकी प्रतिक्रिया कैसी है. न चीखना, न चिल्लाना, न आंसू... पर कैमरा जब चेहरे को क्लोज-अप में ले जाता है तो ऐसा भाव दिखता है जो कलेजे को छील देगा. उसकी बात आप गांठ बांध कर रख लीजिए कि चावल का एक दाना भी जीवित प्राणी है.
फिल्म में कोई नाटकीय मोड़ नहीं है. यह कथा नदी के प्रवाह की तरह बहती है. आपमें सिनेमा देखने का शऊर पैदा करती है ये फिल्म. कुछ फिल्में आप फॉरवर्ड कर-करके देखते हैं, लेकिन मेरा दावा है कि इस फिल्म को आप पीछे करके देखेंगे. कुछ दृश्य और कुछ संवाद आपको ऐसा करने के लिए मजबूर कर देंगे.
अगर दृश्यों के जरिए आप संकेत समझें तो आपके लिए मेरी तरफ से एक गौरतलब दृश्य हैः हमारे किसान नल्लांडी को अपनी देह में लगी धूल-मिट्टी से कोई फर्क नहीं पड़ता, पर अंगूठे का निशान देने के लिए लगी स्याही को वह हर हाल में मिटाने की कोशिश करता है. यह अकेला शॉट... एक पन्ने के संवाद पर भारी है. यह निर्देशक के दस्तखत हैं.
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