Wednesday, November 21, 2007

फिल्म समीक्षा- ४ मंथ्स, ३ वीक्स, २ डेज़

रोमानिया की मांओं का दर्द



गोवा में ३८वें अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह शुरु होने में महज दो दिन बचे हैं, लेकिन पिछले साल की तरह का कोई उत्साह अभी तक देखने को नहीं मिला है। आयोजकों के पास कल भर तक का वक्त है, लेकिन पिछली बार की तरह की सजावट इस साल नदारद है। मुमकिन है, कि कल कुछ धमाका हो।

२३ नवंबर को समारोह की ओपनिंग फिल्म होगी- रोमानिया की ४ मंथ्स, ३ वीक्स, २ डेज़। इस फिल्म को क्रिस्टीन मुंगुयू ने निर्देशित किया है। ये फिल्म पहले ही इस साल पामे डि ओप अवॉर्ड जीत चुकी है। ज़ाहिर है, लोगों(दर्शकों) में इस फिल्म को लेकर काफी मारामारी होगी। वैसे सारी दुनिया के आलोचकों ने इस फिल्म की अब तक जी भर कर तारीफ ह की है। लेकिन अलग तर के टेस्ट के लिए जाने जाने वाले भारतीयों को यह फिलम कैसी लगती है। ये तो २३ की शाम को ही साफ हो पाएगा। गोवा में इस समारोह के उद्घाटन के मौके पर फिल्म के निर्देशक के मौजूद रहने की भी उम्मीद ज़ाहिर की जी रही है। दरअसल, ये फिल्म रोमानिया में गर्भपात जैसे जटिल मुद्दे को खंगालती है। फिल्म में गर्भपात से जुड़े मसले और एक लड़की की ज़िदंगी पर इसके असर को उकेरने की कोशिश की गई है। पूरी फिल्म देखी जाए ( हालांकि आज हम इसाक थोड़ी-सा ही हिस्सा देख पाए) इसे मनीष झा की दो बरस पहले आई फिल्म मातृभूमि से भी जोड़ा जा सकता है। अलबत्ता, दोनों फिल्मों की पृष्ठभूमि में अंतर है। दोनों के परिवेश साफ तौर पर दोनो देशों के सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों की झलक भी दिशला जाते हैँ। वैसे, तकनीकी तौर पर यह फिल्म मातृभूमि से ज़्यादा मजबूत है और इसाक कैमरा मनीष के कैमरे से ज़्यादा घूमता है।

कम्युनिस्टों से रोमानिया को मिली आज़ादी के बाद जो सबसे पहला क़ानून बना वह गर्भपात को कानूनी दर्ज़ा दिलाने का था। नतीजतन, दो साल के भीतर ही दस लाख गर्भपात के मामले सामने आए। वह भी तब जब इस छोटे से देश की कुल आबादी ही महज २ करोड़ है। ग़ोरतलब है कि रोमानिया में १९६६ से १९८९ तक गर्भपात एक अपराध था। ये फिल्म १९८७ के एक शनिवार की रात की कहानी है। भावनात्मक रूप से मथ देने वाली इस फिल्म का असर इतना ज़्यादा है कि सब-टाइटल्स होने के बावजूद फिल्म दर्शक को बांधे रखती है।
व्यक्तिगत तोर पर मैं भारतीय भाषाओं में भी ऐसी ही संजीदा फिल्मों की उम्मीद रखता हूं।

मंजीत ठाकुर

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