हाल के दिनों में ब्लॉग की दुनिया से लेकर टीवी और अखबारों तक एक बहस तेज़ रही है कि मादा होने का दर्द क्या है? मोहल्ले पर एक दीप्ति दूबे हैं, वो अपनी दर्द बयां करती नज़र आईं। शर्म आई .. सिर्फ मर्द जात पर नहीं .. पूरी इंसानियत पर कि यार एक ही गाड़ी के दूसरे पहिए के साथ ऐसा सुलूक क्यों?
लेकिन ग़ौर से देखें बंधु तो स्त्री जाति पर ज़ुल्म ढाने में हमारा यानी हमारी कथित उच्च आदर्शों वाली भारतीय संस्कृति का बड़ा शानदार ट्रैक रेकॉर्ड रहा है। हमारे यहां कहावत है कि यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता। यानी जहां नारी की पूजा होती है वहां देवताओं का वास होता है। मान्यवर, जहां नारियां होंगी वहां देवता तो रहेंगे ही। देवताओं के मन में नारी को लेकर बडी शानदार अनुभूति रही है और गाहे-बगाहे हमारे देवता नारी को इस्तेमाल करने की चीज़ जानकर पर्याप्त मात्रा में बल्कि पर्याप्त से भी ज़्यादा उपभोग करते रहे हैँ।
ऐसा हमारी सभ्याता में तो है ही दुनिया की सभी सभ्यताओं में है। महिलाओं को देखते ही सभी संस्कृतियों के देवता बराबर रूप से स्खलित हो हैं। मामला डेन्यूब के देवता सुवोग का हो, जो देवी परंती के साथ संभोग में डूबे हैं या अपने परमपिता ब्रह्मा का जो अपनी बेटी सरस्वती पर आसक्त हो गए। औषधियों, तारागणों और ब्राह्मणों का देवता चंद्रमा तो देवताओं के गुरु वृहस्पति की पत्नी तारा पर इतना आसक्त हो गया कि उसने तारा को इंद्र के राजसूय यग्य से अपहृत कर लिया और उनके साथ बलात्कार करता रहा।
अब हमारे अंदर देवताओं वाले धर्म का पालन करने की इतनी अद्मय इच्छा है तो हम तो उनके स्त्री संबंधी विचारों का भी पालन करेंगे ही। क्या हमारे धर्म को बदलाव की ज़रूरत नहीं है, स्त्री से हमारे आचरण को लेकर?
(दीप्ति से सहानुभूति जताकर खुद को महिला आंदोलन के समर्थक मानने वाले कई आंदोलनकारी खुद कितने दूध के धुले हैं, यह भी गुस्ताख को अखरता है।)
गुस्ताख जी, आपकी यह पोस्ट योर्कर कम बाउंसर ज्यादा थी, आपने सब आहात करके रिटायर्ड हर्ट जरूर किया है पर आउट नहीं.सबको एक कटघरे में खडा ठीक नहीं लगा.मुझे पूरा विश्वास है कि उनमे से कुछ अभिव्यक्तियाँ जरूर ईमानदार रही होंगी.
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