निखिल मेरे बेहद करीबी दोस्त हैं। आजकल दाढ़ी बढ़ा रहे हैं। उनका तर्क है अब मैं गंभीर पत्रकार बनना चाहता हूं। ठुड्डी पर हाथ टिका कर फोटों खिंचवाने के मेरे सद्प्रयास से शायद उन्हें प्रेरणा मिली है। रेगिस्तान में उगी यत्र-तत्र की झाडियों के मानिंद उनके मुखमंडल पर भी यहां-वहां दाढ़ी उगती है।
मेरे एक और मित्र हैं। वे चोटी के पत्रकार बनना चाहते हैं। लिहाजा उन्होंने बाल बढाने शुरु कर दिए हैं। उनकों बुरी तरह यकीन है कि बाल जब पूरी तरह बढ़ जाएंगे, चोटी गूंथने के लायक हो जाएंगे तो वह चोटी के पत्रकार कहलाने लग जाएंगे। हमने तो कई बार एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाया हमारे बाल चोटी लायक नहीं हुए।
वैसे, चोटी की वजह से कई बार धोखा हो जाता है। बेहद दूर तलक चोटी वाली एक कन्या का पीछा करने और पीठ पीछे-पीछे कन्या के मुखमंडल की सुंदरता का अनुमान प्रक्षेपित करने के बाद जब चेहरे का दीदार हुआ तो पता चला कि चोटी वाली शख्सियत बहन जी नहीं, भाई साहब हैं। सोचो, क्या हुआ होगा मेरे मन का ...।
हाल में खबर सुनी-पढी-देखी कि हमारे चोटी के तीन पत्रकार पद्मश्री पा गए। अब दुआ साहब को तो हम बचपन से सुनते-गुनते आ रहे हैं। उनके चुनावी विश्लेषण पर हमें चुनाव आयोग से भी ज़्यादा भरोसा है।
राजदीप भी ऐसे ही हैं, विशवसनीय। बरखा जी से भी खबरों की बरसात भी हमने देखी। जब उन्होंने उचारा कि टेरर एन्ड वॉयलेंस रिटर्न्ड इन वैली। ( श्रीनगर में मोटर साइकिल बम विस्फोट के बाद) तो हमने यह जानते हुए भी टेरर ौर व़यलेंस वैली से कभी भी कहीं नहीं गया था। हमने मान लिया, चलो वापसी हो गई हिंसा की। लेकिन सरकार की खाल खींच लेने की ठसक भरी पत्रकारिता क्या सरकारी सम्मान के बाद भी बची रहेगी। क्या कहीं से यह नहीं लगेगा कि हम जिस सरकार को बे-कार बता रहे हैं। छब्बीस जनवरी को इसी ने हमें पद्म सम्मान दिया था? आगे से इनकी खबरों को भी इसी तरह पढ़ पाएंगे हम लोग?
सादर, ससम्मान
गुस्ताख
शायद नहीं ।
ReplyDeleteघुघूती बासूती