Tuesday, May 27, 2008

बुद्धिजीवी होने के पेंच

आपने मेरी तस्वीर, जिसे मैं प्यार से फोटू कहता हूं, देख ही ली होगी। इस तस्वीर को खिंचवाने में बहुत मेहनत करनी पड़ी मुझे। मुझे लगा कि ऐसी तस्वीर के ज़रिए लोग मुझे भी बुद्धिजीवी समझने लगेंगे। मैं सीधे तोप हो जाऊंगा। टाइमबम। किसी ने छेड़ा नहीं कि सीधे फट पड़ने वाला...। तो श्रीमानों, महानुभावों, श्रीमंतों, कृपानिधानों नौजवानों ऐसा अभी तक तो हुआ नहीं है अभी तक।

दरअसल, तस्वीर खिंचवाने और मन की स्थिति को बुद्धिजीवियों के स्तर तक लाने में बहुत झख मारनी पड़ती है। लेकिन मन में बैठी उस बात का क्या किया जाए। बचपन से देखता आया हूं कि जिस किसी को भी मन ही मन यह यक़ीन हो कि उसमें भी इंटेलेक्चुअलत्व है ज़रा भी। वह अपनी खुद की प्रायोजित किताब में ऐसी ही तस्वीरें चस्पां करवाते हैं। जितने विचारक जाति के लोग हैं, साहित्यकारनुमा लोग, प्रोफेसर इत्यादि हैं, वह ऐसी ही तस्वीर खिंचवाते हैं। हाथ गाल पर.. ठुड्डी पर। आंखें उधर .. जिधर फोटोग्राफर के स्टूडियों में कंघी-शीशा टांगने की जगह होती है।

पहले तो मैंने भी वैसा ही करने का पूरा प्रयास किया था। हाथ को ठुड्डी पर टिकाया, लेकिन ससुरा टिका ही नहीं। हाथ और ठुड्डी में यदुरप्पा और देवेगौड़ा जैसा रिश्ता...। मेरे चेहरे पर दाढ़ी भी वैसे ही उगती है, जैसे चुनाव के ऐन पहले क्षेत्रीय पार्टियां उग आती हैं। ये पार्टियां जैसे जीतनेवाले मजबूत उम्मीदवारों की आंखों में गड़ती हैं ना, वैसे ही दाढीं के कड़े बाल मेरे हथेलियों में गड़ने लगे। बुद्धिजीवी की तरह त्स्वीर खिंचवाने के मेरे प्रण का कौमार्य भंग होने लगा।

मुट्ठी खोलने की कोशिश की तो हथेलियों से चेहरा छिपने लगा, कैमरावाला मोबाईल फोन हाथ में लिए दोस्त फिकरा कसने लगा, यार मनोज कुमार की तरह लग रहे हो। अब ये मत बोलना कि हमारे देश की हर लड़की मां है, बहन है, बेटी है...। मै पस्त हो गया। लेकिन मैं भी बुद्धिजीवी बनने के लिए उतारू था।

हाथ में कलम लेकर उपर की तरफ ताकना..शून्य में निहारना..मानों दुनिया में सुकरात के अब्बा और अफलातून के दादा मेरे कंधो पर सारी दुनिया की समस्याओं का बोझ डालकर निंश्चिंत हो गए हों, निश्चिंत होकर ज़न्नत की अप्सराओं के साथ चांदनी रात में नौका विहार कर रहे हों..। मेरा स्वबाव भी कुछ ऐसा ही ऐं-वईं हंसी आने लगती है। सोनिया माताश्री, आडवाणी (सावधान, पिताश्री नहीं बोल रहा हूं उन्हें.. अपनी तरफ से कुछ भी बाईट मत सोच लिजिए.. कलाकार हैं आपलोग कुछ भी कर सकते हैं। वरना झज्जर की सभा में माताश्री के बयानों को तोड़-मोड़ कर ऐसे पेश नहीं करते कि यूपीए और वाम दलों में कबड्डी मैच आयोजित करवाने की ज़रूरत पड़ने लगती।) , प्रकाश करात जैसे बिना ज़िम्मेदारी के सत्तासुख का पान करने वाले महादेशभक्त और मधुकोड़ा जैसे छींका टूटने से सत्ता पाने वाले से लेकर हरकिशन सिंह सुरजीत पर ऐसे ही हंसी आने लगती हैं।

आम आदमी हूं..आम आदमी अपनी बुरी दशा में भी हंसता है, नेताओं की चूतियागिरी पर हंसता है। हंसता नहीं होता तो हम खुश रहने वालों के सूचकांक में इतने ऊपर होते क्या। हमें तो रोटी के साथ नमक मिल जाता है तो हम खुश हो जाते हैं। ध्यान दीजिए. प्याज और तेल नहीं जोड़ा है मैंने। सरकार की महती कृपा से मैं पूर्णतया शाकाहारी हो गया हूं। सब्जियां उबालकर खा रहा हूं, मां को शक हो गया है कि घर के सभी लोगों को पेट की कोई गंभीर बीमारी हो गई है, जभी मैंने सबके तेल और प्याज खाने पर रोक लगा दी है। कौन समझाएगा कि बीमारी किसको हुई है पेट की.. बीजेपी की तरह मुझे एक बीमारी ज़रूर हो गई है, मुद्दे से भटकने की। माफी चाहूंगा...बात मैं कर रहा था, तस्वीर खिंचवाने की।

तो जनाब, तस्वीर खिंचवाने के लिए गंभीर होना सबसे बड़ी समस्या थी। वैसे किसी दोस्त ने सलाह दी कि कुरता पहनो , बुद्धिजीवा लगोगे..बुद्धिजीवी होने के लिए कुरता पहनना बहुत ज़रूरी है। लेकिन हमारे शरीर की ढब कुछ ऐसी है कि कुरता पहनूं तो लगता है, खूंटी में टांग दी गई है। सो यह ख़्याल हमने तत्काल प्रभाव से खारिज कर दी, ठीक वैसे ही जैसे सरकार बचाने के लिए कॉंग्रेस एटमी करार को ठंडे बस्ते में डालने पर राजी हो गी है। वैसे जहां तक गंभीरता का सवाल है, वह तो हम आजतक हुए ही नहीं.. बहुत कोशिश की गौतम गंभीर ही हो जाएं, कभी तोला कभी माशा की तरह टीम में रहें, कम से कम मेरे नाना के घर पर भी आयकर महकमे का एक छापा तो पड़ ही जाए। लेकिन आसमान को यह मंजूर ही नहीं।

गोया गंभीर हम तब हो गए, जब किसी खराब स्टोरी की कवरेज के लिए दबाव आया कि यह पीआर स्टोरी है, करनी ही है। जी नहीं चाहता था कुछ भी करने का, पीआर का मतलब.. ज़रूरत से ज़्यादा ध्यान से दंडवत् करते हुए स्टोरी पेलना, और खराब स्टोरी इतने बड़े होने जा रहे यानी भावी बुद्धिजीवी से पीआर कवरेज करवाना न्याय है क्या? सुनकर हम गंभीर (संजीदा गुरु.. गोतम वाला नहीं) हो गए, दोस्त मेरा पियोर खांटी दोस्त है, इसी मौके की तलाश में था, चट् से फोटू टांक दी। तबसे हर जगह यही तस्वार टांकता चलता हूं, ताकि लोगों को लगता रहे कि यह जो चंट जैसा इंसान पिचके गालों को ढंकने के लिए चेहरे पर हाथ रखे हुए है, छंटा हुआ बुद्धिजीवी है।

5 comments:

  1. अपन तो मान गए सरकार की आप छंटे हुए है.
    बुद्धिजीवी और क्या.
    बढ़िया लिखा है.

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  2. गुरु, सोच रहा हूं कि कमेंट में क््या लिखूं..

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  3. वाह जी, यह अच्छाआ गुर बता दिया.कहाँ से खिंचवाई है, वो और बता दें तो हम भी ट्राई करें. :)

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  4. हमें भी बताएं... हम भी एक खिचवा ही डालते हैं, ऐसा पोज बनाना बड़ा कठिन काम लग रहा है वैसे तो.

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  5. इससे पहले कि आप लोग ये कमेंट पढ़े, उम्मीदों के बादल पर सवार हों, हक़ीकत के आइने से रुबरु कराना चाहूंगी। असल में मैं ये किसी ब्लाॅग के प्रत्युत्तर में नहीं लिख रही हूं, बल्कि कुछ ऐसा लिखने जा रही हूं जो पिछले कुछ दिनों में मैंने औऱ मुझ जैसे कुछ लोगों ने महसूस किया है। ऐसा है कि हमारे मुल्क़ को किसी ने बहुत ही बेहतर तरीके से परिभाषित किया है....भेड़ की चाल वाला मुल्क़। सुनने और उससे भी ज्यादा मानने में तक़लीफ तो होती है पर है ये सच। कुछ वक्त पहले कुछ पत्रकारों ने अपने पत्रकारिता के खट्टे मीठे बल्कि कहा जाए बेहद कड़वे अनुभवों को ब्लाॅग के ज़रिए लिखने का आइडिया सोचा। वजह दो थी, पहली वजह ये बताना कि पत्रकार इतने बुरे और पत्थर दिल नहीं जितना लोग औऱ आम जनता उन्हें समझती है, औऱ दूसरी इस सोकाॅल्ड पत्रकारिता में बद से बदतर होते हालातों को जताकर अपने दिल के बोझ को ( जो अब तक व्यावसायिक प्रत्रकारिता के रंग में नहीं रंगे हैं।) उतारना चाहते हैं। खैर...मुद्दे की बात की जाए। तो इन दो वजहों से ये नई पहल की गई थी, पर जैसा कि हमारे मुल्क़ में अक्सर होता है, अच्छे मक़सद से शुरु किया गया काम धीरे धीरे इतना भद्दा रुप ले लेता है कि उसकी खूबियां महज़ कुछ नादानियों की बलि चढ़ जाती है। माने... अपने अनुभवों और ब्लाॅग्स को ज्यादा से ज्यादा मशहूर बनाने की होड़ में एक सभ्य , संयमित भाषा से शुरु हुआ ये सिलसिला उस तरफ चल पड़ा है, जहां भाषा की अदायगी औऱ अंदाज़ मायने नहीं रखती , ज़रुरी है बस अपने ब्लाॅग्स तक को ( इसलिए कि अब तक न्यूज़ को ही चटाखेदार बनाने की कवायद चलती थी) और चटाखेदार औऱ क्रिस्पी बनाना , जिससे ज्यादा से ज्यादा विज़िटर्स अपनी वेबसाइट पर दिखा सके। कई बार ब्लाग्स पढ़ती हूं तो कम्यूनिकेशन की दुनिया में ब्लागकर्ता का असल संदेश ही कहीं गुम सा होता दिखता है। भाषा में वो तंज और रोचकता नहीं रही। आप खुद ही दूसरे के ब्लाग को पढ़कर देखें, बमुश्किल हम किसी पूरे ब्लाग को पढ़ पाते हैं। तो एक ज़िम्मेदार पत्रकार होने के नाते सभी दोस्तों से मेरी गुज़ारिश है कि जिस मकसद से ये बेहतर विकल्प तलाशा गया है, उसकी गरिमा को बनाए रखें। बजाय एक शार्टकट के क्योंना ब्लागिंग को एक ऐसा ज़रिया बनाया जाए, जिससे हर किस्म के मुद्दों, मुश्किलों औऱ इस मीडिया जगत के दिग्गजों की सही राय मिल सके। हांलाकि हममें से कुछ अभी भी उस हुनर को संजोए हुए हैं, पर मैं उम्मीद करुगी कि हम सब एक बार फिर अपने सालों के अनुभवों , अपनी लेखनी और प्रतिभा को कुछ इस तरह कम्प्यूटर पर बिखेरें, कि हर दूसरा शख्स रश्क़ करे इस काबिलियत से....और कहे...माना कि है वो दुश्मन मेरा, पर बोलता वो अच्छा है...इत्तिफाक़...नाइत्तिफाक रखने वाले कमेंट्स का वेल्कम......
    Neetu Singh

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