सुशांत जी ने आम्रपाली में लिखा है...पटना में दिल्ली से ज्यादा कुत्ते हैं। गंगा के तट पर रोज कम से कम दस हजार से कम कुत्ते क्या बैठते होंगे। मैंने विरोध किया कि नहीं, दिल्ली के वसंत विहार में ही उतने के करीब कुत्तें होंगे। लेकिन मित्र ने उन कुत्तों को ‘कुत्ते’ मानने से इनकार कर दिया। एक आइडिया ये भी था कि अगर कुत्ते, मनुष्य मात्र के सबसे प्राचीन और भरोसेमंद साथी हैं तो अलग-अलग इलाकों के कुत्ते अलग जुबान बोलते होंगे। मसलन पटना के कुत्तें मगही और झांसी के कुत्ते बुंदेलखंडी।
संजीव का दावा है कि जेएनयू के कुत्तों को मार्क्स की थ्योरी पूरी रटी रटाई होगी और झंडेवालान के कुत्ते जुबान से क्या रंगरुप से भी भगवे होंगे। कोई ताज्जुब नहीं कि ऐसा किसी शोध में सामने आ ही जाए।
बहरहाल एक बात जो तय है कि बड़े शहर ‘कुत्तों’ के लिहाज से ज्यादा मुफीद नहीं हैं। यहां उनके लिए लोकतंत्र नहीं है। यहां ‘कुत्तें’ नहीं रह सकते, अलबत्ता ‘भेड़ियों’ के लिए ये जगह काफी सही है।
शानदार कुत्ता पुराण..। हे सू(शां)त जी. अब संभवतः आपने ये भी ध्यान दिया होगा कि कुलीन नस्लों की जितनी पहचान कुत्तों के मामले में रह गई है उतनी तुच्छ मानवों में रही नहीं। मानव अब संकर नस्लों को ज्यादा महत्वपूर्ण मानकर विजातीय विवाह को अच्छा मानने लगे है। वैसे भी अपने यहां पाश्चात्य परंपराओं, और किस्सों, और लोगों और साहित्य और फिल्मों और विचारधारा के साथ कुत्तों को ज्यादा अहमियत मिलती है। पता नहीं देसी कुत्तों को विदेशों में कितनी अहमियत मिलता है।
इस पर भी कुछ उचारें.. वैसे कुछ मामलों में इंसान कुत्तों को फॉलो करने लगे हैं कुछ मामलों में कुत्तागीरी को खराब मानने लगे हैं। मसलन, वफा को खराब मानकर टांग उठा कर मूतना उत्तम माना जाने लगा है।
कुत्तागीरी एक बेहद आम परंपरा है, लेकिन वफा जैसी आउटडेटेड चीजों को उनके डीएनए से डिलीट किया जाना ज़रूरी है। कुत्तों में एक खराबी आ गई है वो ये कि उनमें कुछ कुछ इंसानी गुण आने लगे हैं। भारतीय राजनीति के एक बेहद बड़े दल ने पूंछ हिलाने वालों को पुरस्कृत करने का आंदोलन चलाया हुआ है।
सुशांत ने कुत्तों को और उनकी समस्याओं को सतही तरीके से ही सही उठाया जरूर है, लेकिन कई मसलों पर सूत जी ने मारक लाईनें लिखी हैं। शहर में कुत्तों से ज्यादा भेडि़ए हो गए हैं।
बड़े शहर ‘कुत्तों’ के लिहाज से ज्यादा मुफीद नहीं हैं। यहां उनके लिए लोकतंत्र नहीं है। यहां ‘कुत्तें’ नहीं रह सकते, अलबत्ता ‘भेड़ियों’ के लिए ये जगह काफी सही है। कुत्ता होना एक साथ फायदे मंद भी है, और बुरा भी।
क्या बात है कुत्तों पर इतना सर्च ।वाकई अच्छा बताया आपने । अब देखना है हमारे यहां के कुत्तों को । बढिया लेख ।
ReplyDeleteशायद एक भेड़िया दूसरे को नहीं खाता। वैसे अल्फा मेल व फीमेल की परम्परा उनमें भी होती है,दिल्ली में भी होती है।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
अब बंधु कुत्ते तो कुत्ते ही रहेंगे। हर काम में वफादार और मुस्तैद।
ReplyDeleteकुत्तागीरी एक बेहद आम परंपरा है, लेकिन वफा जैसी आउटडेटेड चीजों को उनके डीएनए से डिलीट किया जाना ज़रूरी है।
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Bahoot Khoob.
दुम तो गधे भी हिलाते हैं..आप नाहक कुत्तों को राजनित में ले आये. वो तो गधों की जमात है भाई.
ReplyDeletejab insaan kutton se wafa seekh sakta hai to bhai kutte bhi to insaano se kuch seekhenge na..
ReplyDeleteदिल्ली हो या पटाना सब जगह गधो की भरमार है, पता नही आप को यह गधे कुते केसे लगे, क्योकि कुता जिस का खाता है उस पर कभी नहीऒ भोंकता, उसे कभी नही काटता, ओर गधा जिस का खाता है सब से पहले उसे ही दुलती मारता है.
ReplyDeleteधन्यवाद
... कुत्ते से भी कुछ लोगों ने शिक्षा प्राप्त कर ली है, कुत्ते की तरह दुम हिलाते, दुम दबा कर भागते, भौंकते व काटने को उतारू दिखाई देते हैं!!!!!
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