Thursday, June 11, 2009

वाम से दूर अवाम



इस बार के लोकसभा चुनाव के नतीजे किसी और सूबे में, किसी और पार्टी के लिए हैरत भरे रहे हों या नहीं, लेकिन पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे के लिए नतीजे 'अप्रत्याशित' ही रहे। चुनाव परिणाम के दिन यानी 16 मई को अलीमुद्दीन स्ट्रीट यानी सीपीएम के कोलकाता दफ्तर पर सन्नाटा दोपहर से पहले ही पसर गया था।



मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य सुबह आठ बजे से पहले ही पार्टी ऑफिस आ चुके थे, नौ बजे तक ट्रेंड्स कुछ साफ होने लगे, लेकिन तबतक वहां से निकलते हुए मुहम्मद सलीम के चेहरे की चमक कम नहीं हुई थी। बहरहाल, ग्यारह बजे सुभाष चक्रवर्ती बाहर निकले और नतीजो में बगदलते ट्रेंड्स को 'अप्रत्याशित' बताकर अपना दामन छुड़ा लिया।


खैर, नतीजे तो अब जगजाहिर हो चुके हैं और वाम मोर्चा मात खा चुका था। 19 सीटों पर जीत हासिल करने वाली तृणमूल कांग्रेस नेता और बंगाल की शेरनी कही जाने वाली ममता बनर्जी अब तो रेल मंत्री भी बन चुकी हैं। लेकिन, यह उस वाम मोर्चे के लिए जोर का झटका साबित हुआ जो नंदीग्राम और सिंगूर को स्थानीय मुद्दे से ज्यादा कुछ मानने को तैयार ही नहीं था। दरअसल, 1977 के बाद से वाममोर्चे ने बंगाल में 14 चुनावों का सामना किया, लेकिन इतनी बड़ी चुनौती उसे कभी नहीं मिली थी।


परिसीमन के बाद कई चुनावी समीकरण भोथरे हो गए थे और चुनावी गणित की नई कंटूर रेखाएं खींच दी गईं थीं। लेकिन 2004 में सबसे बड़ी जीत और 2009 में सबसे बड़ी हार के बीच के कारणों पर वाम मोर्चा, खासकर सबसे नुकसान में रहा सीपीएम, ज़रुर चिंतन करना चाहेगा।


चुनाव में वाम मोर्चा ममता को विकास-विरोधी साबित करने में लगा रहा और खुद बिजली-पानी-सड़क के मुददे को लेकर जनता तक गया। लेकिन बंगाल के गांवों में भी, जहां वाम मोर्चे की गहरी पैठ रही है, वोटर यह पूछने में नहीं हिचका कि पिछले 32 साल से यही मुद्दे चुनाव में क्यों आते रहे हैं। हालांकि, पूछने की यह प्रक्रिया कई वजहो से siidhee उम्मीदवार की बजाय वोटिंग के दिन अधिक मुखर था।

बहुत दिनों से यहां के पत्रकार एक कहावत कहा करते थे- वाम को अगर बंगाल में कोई हरा सकता है तो वह खुद वाम ही है। एक तरह से देखा जाए तो वाम की लंबी जीत के सिलसिलों में ही उसकी हार की वजहें छिपी हैं। 1977 के बाद से बंगाल में वाम मोर्चे ने अपना एक शानदार तंत्र खड़ा कर लिया था। प्रमोद दासगुप्ता और अनिल विश्वास सरीखे नेताओं और पार्टी प्रबंधकों ने सीपीएम की ऐसी मशीनरी खड़ी कर दी, जैसी किसी दूसरे सूबे में नहीं थी।


पार्टी ने अपना सामाजिक आधार औद्योगिक सर्वहारा से आगे बढ़ाते हुए उसे भूमिहीन मज़दूरों, छोटे किसानों और सीमांत किसानों तक फैलाया। इस समीकरण में वाम मोर्चे ने वर्ग को भी जोड़ा और दलितों और मुस्लिमों का वोट बैंक उसके साथ आ जुड़ा। इस वोट बैंक की वजह से ही वाम की हेजिमनी 2006 के विधानसभा चुनाव तक बरकरार रही।


लेकिन जिस परिवर्तेन हावा ( परिवर्तन की हवा) की हात इस बार मीडिया इस बार की गई और जो चुनाव परिणाम के बाद अनुमानों से ज्यादा मुखर हुआ, उसके संकेत पंचायत चुनाव से ही मिलने शुरु हो गए थे। सूबे के 17 में से 13 ज़िला-परिषदों पर हालांकि वाम मोर्चे का क़ब्जा बरकरार रहा। लेकिन जानकार इसे वाम मोर्चे की 4 जिला परिषदों में शिकस्त के रुप में देख रहे थे।


इसकी फौरी वजह तो लेफ्ट फ्रंट के विभिन्न घटक दलों में आई दरार और पंचायत चुनावों पर पड़े इसके असर को माना गया। उधर, नंदीग्राम की घटनाओं के लगातार विरोध के बाद धीरे-धीरे बुद्धिजीवियों का एक तबका गोलबंद होकर वाम के खिलाफ़ खड़ा हो गया। बंगाल के गांवों में भी-जो कि वाम का एकमुश्त वोट रहा है- वाम के खिलाफ़ सुगबुगाहट थी। ग्रामीण और शहरी दोनों ही मुस्लिम समुदाय वाम मोर्चे से बिदक चुके थे। शहरी मुस्लिम तभके में रिजवानुर हत्याकांड का गुस्सा था। जबकि गांव के वोटरों तक सच्चर कमिटी की सिफारिशों को तृणमूल और कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने बखूबी पहुंचा दिया।


गौरतलब है कि सच्चर कमिटी की रिपोर्ट में यह बात सामने आई कि बंगाल में करीब पचीस फीसदी आबादी होने पर भी सरकारी नौकरियों में महज 4 फीसदी ही मुसलमान हैं। बंगाल में दलितों और मुसलमानो kii खराब हालत एक चुनावी मुद्दा बन चुका था। नंदीग्राम में तापसी मलिक हत्याकांड को ममता ने खूब भुनाया।


दरअसल, कांग्रेसनीत यूपीए सरकार की साढे चार साल की स्थिरता, नरेगा की कामयाबी, सूचना के अधिकार, वनाधिकार कानून जैसे प्रगतिशील कदमों में योगदान देने वाला वाममोर्चा समर्थन वापसी के बाद इऩका ॽेय लेने की स्थिति में नहीं थी। लेकिन इन कदमों ने कांग्रेस की छवि सामाजिक-जनवादी ज़रुर बना दी। दूसरी तरफ चंद्र बाबू नायडू और नवीन पटनायक जैसे नवउदारवादियों के साथ खड़ा होने का नुकसान भी वाम को झेलना पड़ा।


वाम के खिलाफ यह जनादेश फौरी भावनाओं की अभिव्यक्ति मात्र नहीं है, एक हद तक उसके लिए वाम की ठसक भरी राजनीति ज़िम्मदेरा है। आखिरकार, लोकतंत्र में असली ताकत to जनता के पास है। जो थोड़ा नज़रअंदाज़ करती है, वोटबैंक बनकर एकमुश्त वोट करती है, भावुकता भरे वायदों पर यकीन करती हैं, लेकिन साथ ही झटके से ज़मीन भी दिखला देती है।


यकीनन, वाम को मिला यह आखिरी जनादेश नहीं है और यह चुनाव भी आखिरी नहीं था, लेकिन यह लोकसभा चुनाव उन्हें ज़रुर इस बात पर सोचने के लिए मजबूर करेगी कि आखिरकार मोर्चे ने क्या गलत किया कि परिणाम 'अप्रत्याशित' हुए।

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