Tuesday, February 16, 2010

मेरी पसंदीदा फिल्मे-२ खानेह ये दस्त कोज़स्त



फिल्म- वेयर इज़ द फ्रेंड्स होम ( खानेह ये दस्त कोजस्त)



ईरान/१९८७/रंगीन/९० मिनट



निर्देशन और पटकथा- अब्बास कियारोस्तामी



कास्ट- बेबाक अहमदपुर, अहमद अहमादापुर






ब्रेदलेस पर कई (महज तीन) टिप्पणियां आई और दुरुस्त आईं। मिश्रा जी ने जिस फ्रेंच अभिनेता का नाम लिया उसकी फिल्म नहीं देख पाया हूं, और हां मैं बहुत खुशमिजाज़ क़िस्म का इंसान हूं, ऐसे मेरे नज़दीकी मित्र कहते हैं। गुस्ताख़ तो खैर हूं ही।






बहरहाल, अनुराग जी ने लिखा है कि ईरानी फिल्में देखी हैं या नहीं... तो एफटीआईआई की दया से मैंने बहुत सारी ईरानी जो बेहतरीन भी लगीं फिल्में देखी हैं। पसंदीदा फिल्मों की अपनी सीरीज़ में एक-एक कर उनपर लिखूंगा, जो मेरे दिल के बहुत करीब हैं।



इस बार ईरानी फिल्म वेयर इज़ माई फ्रेंड्स होम के बारे में जानकारी दे रहा हूं। यह मैंने एनएफऐआई के बेहतरीन ऑडिटोरियम में देखी थीँ।






एक छोटा लड़का एक दिन स्कूल से लौटकर जब अपनी होमवर्क करने बैठता है। तो देखता है कि उसने गलती से अपने दोस्त की कॉपी भी अपने बस्ते में डाल ली है। चूंकि, उसका क्लास टीचर चाहता है कि सारे होमवर्क एक ही कॉपी में किए जाएं, ऐसे में वह लड़का माता-पिता के मना करने पर भी पड़ोस के गांव में रहने वाले छात्र के यहां जाकर कॉपी वापस करना चाहता है। लेकिन वह अपने दोस्त के पिता का नाम या पता नहीं जानता।




ऐसे में वह उसे खोजने में नाकाम रहता है।



आखिरकार, कई लोगों की मदद और ग़लत घरों में घुसने के बाद लड़का अपने गांव वापस लौटकर उस लड़के का भी होमवर्क पूरा करने का फ़ैसला करता है।






पूरी पटकथा निर्दोष है। किस्सागोई का एक अलग अंदाज़..जिसमें ईरान में आई इस्लामी क्रांति का असर देखा जा सकता है।





क्रांति के पहले का ईरान कुछ और था। सभ्यता के कुछ और मायने थे। रूमी की कविताओं की शानदार पंरपरा थी। लेकिन इस्लामी क्रांति ने पहरे बिठा दिए। लेकिन इन परंपराओं का असर फिल्म पर पूरी तरह देखा जा सकता है।





कड़ी बंदिश के बाद फिल्मकारो ने इतिहास और परिस्थियों को मेटाफर के तौर पर दिखाना शुरु कर दिया। आम तौर पर किरियोस्तामी जैसे निर्देशकों ने बच्चों को लेकर फिलमें बनाई और बच्चों को ईरान के नागरिक का प्रतीक और मेटाफर ( ध्यातव्यः प्रतीक और मैटाफर में बुनियादी अंतर होता है) के तौर पर इस्तेमाल करना शुरु कर दिया।




फिल्मों में लोग पूरे ईरान में घूमते हैं। और इस तरह फिल्मकारों ने समस्याओ को सामने रखने का अपना काम जारी रखा।इस फिल्म की बात करें तो इसमें बच्चे की अनेक अनिश्चितताओं के मेटाफर बनाकर पेश किया गया है।



दोस्त मिलेगा या नहीं, लड़का घर कैसे ढूंढेगा और घर नहीं मिला तो लड़का क्या करेगा। ये सवालात सहज ही दिमाग में उठते हैं।







औरतों की समस्या भी खासतौर पर रेखांकित की जा सकती है। गो कि बच्चे को सहज ही हर घर के भीतर प्रवेश मिलता है। और बच्चे का अपनी मां और अपने पिता के साथ रिशते भी खास तौर पर ध्यान दिए जाने लायक दृश्य है।




बच्चे को जब उलझन रहती है कि रात घिर आने के बाद वह घर नहीं खोज पाया है और कॉपी भी उसे देनी ही है। वह एक खिड़की के सामने खड़ा होता.. और उसे तत्काल हल मिल जाता है। यह सीन कुछ इस तरीके से शूट किया गया है और परदे पर कुछ इस तरह दिखता है ..जैसे इस्लामी संस्कृति में ईश्वरीय शक्ति को उकेरा जाता है। जाली दार खिड़की और उससे छनकर आती बेहिसाब रौशनी..फिल्म में बच्चा बड़ों के लिए ताकत का प्रतीक बन कर उभरता है।

वैसे बड़ों के , जो शासन और सत्ता से खतरे और धमकियों का सामना कर रहे थे।






पाठकों को सलाह ये है कि ईरान की इस फिल्म को ज़रूर देखे।

Monday, February 15, 2010

मेरी पसंदीदा फिल्में- ब्रेदलेस




ब्रेदलेस, /फ्रांस,/ १९५९/ श्वेत-श्याम,/


अवधिः ८९ मिनट
निर्देशकः -जीन-लॉक godard


screen प्लेः फ्रांकुआ त्रुफ़ो, गोदार्द


सिनेमैटोग्रफ़ीः रोओल कोटार्ड


संपादनः सिसले डगलस


संगीतः मार्शल सोलल



ये कहानी एक युवा गैंगस्टर की है। संभवतः माफिया को उकेरने वाली यह पहली फिल्म है, जिसने एक खास स्टाइल को लोकप्रिय कराया। युवा गैंगस्टर मिशेल (जीन पॉल बेलमोंडो) एक कार चुरा कर पैरिस लौट रहा होता है, रास्ते में वह आदतन एक पुलिस वाले का क़त्ल कर देता है।



पुलिस मिशेल के पीछे पड़ जाती है। पैरिस में इधर-उधर धक्का खा रहे मिशेल की जेब में अधन्नी तक नहीं। वह अपनी अमेरिकी कन्या-मित्र पैट्रिशिया से इटली चलने का इसरार करता है। लेकिन जैसा कि हमारे कई दूसरे मिथकीय चरित्रों के साथ हुआ है उसकी प्रेमिका ही उससे धोखा करती है।



गोदार्द की पहली ही फीचर फिल्म है, जिसमें उन्होंने कड़वाहटों को और आपसी संबंधों को उपहासपूर्ण तरीके से उकेरा है। लेकिन सिनेमाई भाषा जितनी हो सकती है, उतनी आलंकारिक है। इस फिल्म को फ्रांस में नई धारा (फ्रेंच न्यू वेव) का अगुआ माना जाता है।



यह फिल्म फ्रांकुआ त्रुफो और चाब्रो के आइडिए पर आधारित है, इसके संपादन में भी तकनीकी सहायता त्रुफो ने दी थी।



तकनीक की बात करें तो फिल्म को गौदार्द ने एक कोलाज की तरह पेश किया है। इसमें समाज में स्थापित और चल रही परंपराओं के अक्स हैं, और संपादन की तकनीक में फिल्म में कई जम्प कट्स देखने को मिलते हैं। डिस्कंट्यूनिटी जिसे पहले कोई बेहतर निगाह से नहीं देखा जाता था।



चरित्रों का उलझाऊ व्यवहार, त्रासदी औक कॉमिडी की मिलावट, एक ही साथ यथार्थवाद और मेलोड्रामा दोनों की चाशनी...यह ऐसी शुरुआत थी जिसकी नकल या कहे कि प्रेरणा फिल्मकार आजतक करते-लेते रहे हैं।



नायक का सिगार पीने के दौरान खास तरीके सा होठों पर हाथ फेरना, एक स्टाइल स्टेटमेंट बन गया। दूसरी तरफ ट्रैक शॉट लेने के लिए व्हील चेअर का इस्तेमाल एक नई चीज़ थी।



कही मिले तो यह फिल्म ज़रुर देखे।

Sunday, February 7, 2010

नॉट माइ जॉब पुरस्कार के विजेता- तस्वीर देखिए

ये तस्वीर मुझे सहयोगी और नज़दीकी मित्र निशांत ने भेजी है। इसमें नॉट माइ जॉब का अवॉर्ड नैशनल हाईवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया को दिया गया है। तस्वीर पर गौर फरमाएं....


Thursday, February 4, 2010

बाल ठाकरे और दाऊद के समधी




तमाम उम्र वह दूसरों को शीशा दिखाने में बिजी रहे, इतना कि खुद को आईने में देखने की कभी फुरसत ही नहीं मिली। विचारशून्य और दूरदृष्टिदोषग्रस्त राजनीतिक दल शिवसेना के प्रमुख बाल ठाकरे ने कभी खुद को आईने में देखा होता तो उन्हें अपनी कथनी और करनी का अंतर पता चलता।



सबसे पहला तो यही दाग जो वह शाह रुख़ में देख रहे हैं, यानी पाक क्रिकेटरों के साथ खड़े होने का। कल टीवी चैनल वालों ने बाल ठाकरे की पोल खोल दी और 2004 का एक फुटेज पेल दिया जिसमें ठाकरे, दाउद के समधी जावेद मियांदाद के साथ दिख रहे थे।



मियांदाक की अगवानी में बड़बोले राज और उद्धव भी हाथ बंधे खड़े दिखे। चैनलों ने पूरे देश को एक ऐसे शख्स की असलियत दिखा दी, जिसके दो चेहरे हैं। एक और तो वह भारत-पाकिस्तान के बीच होने वाले क्रिकेट मैच में पिच पर डामर उड़ेल देते हैं, विकेट खोद देते हैं और तमाम किस्म का गुलगपाड़ा मचाते हैं, दूसरी तरफ मियांदाद को दावत देते हैं।



अब वह शाहरुख को धमकी दे रहे है कि मन्नत मुंबई में ही है। अर्थात् माफी तो मांग ही लो।
यह सेना की फिसलती जा रही सियासत पर सान चढाने की कवायद भर ही माना जाना चाहिए और एक तरह से बयानबाजियों के दौर से शिवसेना प्रमुख ने राज ठाकरे की सियासत में सेंध तो लगा ही दी है।



दरअसल, कथित रुप से हिंदू हृदय सम्राट कहे जाने वाले ठाकरे की राजनीतिक ज़मीन बेहद पोली है। विकास का विज़न नहीं। भावनात्मक मुद्दों के अलावा उनके पास और कोई विजन ही नहीं। आमची मुंबई, मराठी मानुष और पाकिस्तान के खिलाफ़ ज़हर उगलने के सिवाय भविष्य के बारे में उनकी सोच और दिशा अभी तक साफ नहीं हो पाई है। सत्ता में रह कर ही शिवसेना ने कौन सा तीर मार लिया यह भी साफ नहीं।



बेतुके बाइटों के ज़रिए वह मीडिया में चढायमान तो हैं, लेकिन इससे उनका वोटबैंक कैसे समृद्ध होगा। मुझे तो लगता है कि सोचने और विचार करने वाला मराठी भी उनके जैसे संकीर्ण सोच वाले नेता को अपना समर्थन नहीं देगा। पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में यह बात साबित हो ही चुकी है। 12-13 सीटें तो चिरकुट नेता भी जीत जाते हैं।



तो लब्बोलुआब यह कि या तो शिवसेना जैसी पार्टी को अपना भविष्य संवारने के लिए विकास और समग्र विकास के लिए अपना अजेंडा तय करना चाहिए और भड़काऊ बयानबाजी से दूर रहकर आम आदमी के हित में काम करना चाहिए, दूसरी और भूमिपुत्रों के हित को ध्यान में ऱखने के लिए विस्तृत विज़न अपनाना चाहिए।



अपना विकास ज्यादा ज़रुरी है, दूसरों के पेट पर लात मारने से। वैसे भी ऐसी ही हालत रही तो जिसतरह तमिलों के विरोध में उनकी गुंडागर्दी के खिलाफ दॿिण में सिनेमा विकसित हो गया। वैसे ही मुंबईया फिल्म इंडस्ट्री कहीं और शिफ्ट हो जाएगी।



विकास के लिए सबसे अहम गुंडागर्दी पर लगाम लगाना होता है, सत्ताधारी कांग्रेस जितनी जल्दी यह समझे उतना बेहतर। शिवसेना वाले चाहें तो बिहार के विकास के ग्राफ से सीख ले सकते हैं। गुंडागर्दी ने बिहार में विकास को जितना नुकसान पहुंचया और वहां के मेहनतकश लोगो को राज्य छोड़ने को मजबूर किया, यह जगजाहिर है।


Wednesday, February 3, 2010

बीच बहस में-आखिर अमिताभ महानालायक क्यों?

क़स्बे पर रवीश ने टीआरपी बटोरु पोस्ट लिख मारी। अमिताभ को महानालायक बता डाला। फौरी तौर पर इसकी वजह एक ही है कि महानायक कहे जाने वाले- और यह उपाधि भी किसी टीवी चैनल वाले ने ही चस्पां किया है उन पर- अमिताभ ने नरेंद्र मोदी की तारीफ कर दी। गुजरात के ब्रांड अंबेसेडर बन गए। इससे पहले वह उत्तर प्रदेश के ब्रांड अंबेसेडर बने हुए थे। यूपी को उत्तम प्रदेश कहने पर भी कुछ बौद्धिकों को एतराज़ था।

एतराज तो लोगों को अमिताभ के कंघी-शीशा-तेल-साबुन बेचने पर भी है। लेकिन आप ज़रा सोचिए कि क्या मुझे तेल-साबुन बेचने के लिए करोड़ों -या चलिए लाखों मिलेंगे- तो हम नहीं बेचेंगे? दरअसल, हम-अर्थात् औसत लोग- जलते हैं। ऐसे लोंगों से, जो कुछ पा जाते हैं। उसके पीछे कितनी मेहनत है, कितना खून-पसीना है, यह नज़रअंदाज़ करते हुए।

हम खुद को महान मानते हुए-और यह मानते हुए कि हम तो दूध के धुले हैं- दूसरों पर राय जाहिर कर देते हैं। रवीश ने अपनी पोस्ट में साफ़ लिखा है-"अमिताभ आज की मीडिया के संकट का प्रतीक है। अपनी विश्वसनीयता का व्यापार करने का प्रतीक। वैसे इनकी विश्वसनीयता तो काफी समय से सवालों के घेरे में हैं।" जनाब, विश्वसनीयता है किसकी, ज़रा खम ठोंक कर कहे तो सही। कोई चैनल, या अखबार या वेबसाईट इस बात को सीना ठोंक कर कह सकता है कि श्रीमान हमारी विश्वसनीयता बेदाग है? अरे, यहां बड़े तो बड़े छोटे भी सुभान अल्लाह.. ब्लॉग वाले भी गूगल एडसेंस के लिए मुंह बाए हुए ललचा रहे हैं। है या नहीं।

तो विश्वसनीयता की बात तो कोई ना ही करे तो बेहतर।

बचे नरेंद्र मोदी, राजनीतिक रुप से घोषित अछूत दल के महाअछूत नेता। भाई ब्लॉगर्स आप तो डिक्टेटर हो गए..। मोदी लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार के मुखिया हैं.. और गुजरात के सारे वोटर घास तो नहीं ही छीलते होंगे। वैसे ब्लॉग रवीश का है और पोस्ट भी उनने लिखी है तो विचार भी उनके निजी होंगे, इस पर ज्यादा उज्र नहीं किया जा सकता लेकिन इस पोस्ट पर धांसू प्रतिक्रियाएं आईं।

कई लोग आस्तीनें चढ़ा कर मैदान में कूदे भी, लेकिन कई ऐसे लोग भी सामने आए तो पता नहीं क्यों इस पोस्ट के पक्ष में खड़े नज़र आए। अगर अमिताभ का पाला बदलना गलत है तो उनका भी गलत है ना।

मेरे बेहद नज़दीकी मित्र सुशांत झा, इनकी राजनैतिक समझ का मैं सम्मान करता हूं लेकिन कल तक संघी होने और दक्षिणपंथ का परचम लहराने के बाद जब ये सेकुलर होने चले हैं, तो अमिताभ ने प्रतिबद्धता बदल ली तो क्या गलत किया?

सुशांत और अमिताभ एक ही कतार के लोग नहीं हैं। लेकिन अगर सुशांत को पाला बदलने की छूट है तो वह छूट अमिताभ को भी मिलनी चाहिए। और अगर रवीश उदारवादी हैं तो उनके कट्टर उदारवाद का कुछ वैसा ही चेहरा सामने आ रहा है. जैसा मार्क्सवादियों के एरोगेंस और तेवरों में दिखता है।

रवीश से बस इतनी ही शिकायत है कि आप तो बेहद शानदार पत्रकार हैं, और आप का अनुसरण करने वाले कई युवा है टीवी में, आप भी एकपक्षीय और एकांगी आलेख लिखने लग जाएंगे, तो क्या होगा!

पूरी गऊ पट्टी के हिंदी टीवी पत्रकारों ने आपको अपना प्रेरणास्रोत मान रखा है। आपसे संतुलित विचार की उम्मीद रहती है, वैसी ही जैसे कि आप अमिताभ से निजी जिंदगी में भी वैचारिक रुप से किसी अच्छी पार्टी से जुड़ने या प्रतिबद्ध होने की रखते है।

Tuesday, February 2, 2010

मेरा मधुपुर

आज मुझे बचपन के दिन याद आ रहे हैं। क्या पता बहुत दिनों के बाद खाली हूं शायद इसीलिए...। मधुपुर में हमारा घर खपरैल था, उसके आंगन में बहुत पेड़ थे। सामने दक्षिण में एक तालाब था। तालाब के किनारे इमली का विशाल पेड़, हमको लगता था कि इस इमली के पेड़ पर भूत रहता होगा।

भूत तो कभी मिला नहीं, लेकिन इमली बहुत बेहतरीन थी पेड़ की। गरमी की छुट्टियों में हम दिन भर इमली के पेड़ के नीचे रहते, इमली गिरी नहीं हवा के झोंके से कि बस... उसके बीज निकाल कर उसमें गुड़ भर देते। अभी लिख रहा हूं तो मुंह में पानी आ रहा है।

आंगने के बीचोंबीच एक नीम का पेड़ था। मां चैत के महीने में नीम की पत्तियां खिलाती थीं, कहती कि इससे गरमी में फोड़े-फुंसियां नहीं होंगी। वैसे हम थोड़ा विधर्मी टाइप हैं, लेकिन घर में सारे लोग शाकाहारी थे तो हमें नीम खाना पड़ता था और तालाब के मीन नहीं.।

घर के पूरब की तरफ, एक खाली ज़मीन का टुकड़ा था। जिसपर एक गुहा साहब थे जो भुट्टे बो देते। मुहल्ले को लड़कों के लिए, जब इच्छा हो, भुट्टे की बाली तोड़ लो , घर में कोयले के चूल्हे जलते, उस पर पका लो। एक अजीब किस्म की सहिष्णुता का वातावरण था। गुहा जी निःसंतान थे, सो अब उनका बच्चा प्रेम समझ में आता है। उनके आंगन के अमरुद भी हमीं चरते।

भुट्टे के उन्हीं खेतों के पीछे, बेर के पेड़ थे, मिठुआ.। पैर में कांटा चुभे तो चुभे.. बेर नहीं छूटने चाहिए यह मंशा रहती थी हमारी।

शहर में हर आदमी एक दूसरे को जानता। पिताजी को बागवानी का बड़ा शौक़ था, आंगन में पत्ताबहार (क्रोटन) के बहुत से पौधे उनने लगाए थे। पौधों से मेरी दोस्ती शायद वहीं से शुरु हुई।

सामने रोड की दूसरी तरफ यूकेलिप्टस का बड़ा पेड़ था। उसमें मुझे कई तरह की आकृतियां दिखती थीं। कभी अनिल कपूर जैसी मुच्छड़, तो कभी हनुमान जैसी। आज वह पेड़ होता तो इंडिया टीवी को कई कहानियां मिल जाती उससे। बहरहाल, पेड़ अब नहीं रहा। हाल में घर गया था तो पेड़ का अंतिम संस्कार हो चुका था। मुहल्ले में मेरा आखिरी बचा दोस्त भी किसी इमारत का हिस्सा हो गया।

लगा मधुपुर से आखिरी नाता भी टूटता -सा लगा। लगा पिताजी के दौर की आखिरी निशानी भी छीन ली गई है।