Friday, January 28, 2011

जाड़े की सुबह-कविता

बहुत सुबहों के बाद,
आज सुबह जगा,
पाया,
आज बहुत ठंड है,
खोजता रहा कहीं गरमाहट,
उम्मीद की...
लाल सूरज भी सिकुड़ता-सा लगा..
कोहरा तो नहीं था,
फड़कती बाईं आंख ने कह दिया
बहुत कुछ..।

Tuesday, January 25, 2011

ये किसका गणतंत्र है...

ये किसका गणतंत्र है? पूरे देश का या सिर्फ खास लोगों का। और देश है कहां...देश किसके लिए काम कर रहा है? क्या वक्त आ गया है कि जनता सड़कों पर उतरकर अराजकता के पुनर्पारिभाषित कर दे। 

ये कैसा गणतंत्र है कि बीयर, पेट्रोल और प्याज एक ही कीमत पर मिलता है। सडकों पर गाडियों की कतारों से जाम लग जाता है। दूसरी तरफ, उड़ीसा, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ समेत सभी राज्यों में आधी से ज्यादा आबादी गरीबी रेखा से नीचे बसर कर रही है। 

इस साल झारखंड के सभी 22 जिले सूखाग्रस्त हैं, उस पर कोई फेसबुक पर कमेंट नही कर रहा..सरकार के लिए कभी भी यह चिंता का विषय नही रहा। भ्रष्टाचारियों पर किसी किस्म के नकेल से सरकार बिदक जाती है। 

सिर्फ आज की तारीख-25 जनवरी- को आरुषि के पिता पर अदालत के परिसर में हमला हो जाता है, आज ही के दिन छापा मारने गए एक एडीएम को माफिया जिंदा जला देते हैं...और एक सूबे का वजीर कह देता है कि तिरंगा फहरने से सूबे में अशांति हो जाएगी।
आखिर ये गणतंत्र है किसका?
 आम आदमी को सड़क पर चलने की इजाज़त नही है। पेट्रोल मंहगा, दालें मंहगी, चावल, तेल..प्याज..बसों के किराए.मकान के किराए .क्या क्या गिनाएं। दिल्ली जैसे शहर में 25-30 हजार कमाने वाले के दांतों से पसीने आ रहे हैं। जरा सोचिए 5 हजार कमाने वाला कैसे चलाता होगा परिवार।

देश अब सिर्फ इंडिया और  भारत में ही नहीं बंटा है। देश के कई एक हिस्से हो गए हैं। हजारों-करोडो़  की रकम के घोटाले हो रहें हैं...कोई दोषी नही। क्या न्याय तंत्र की इसी घोंघाचाल से परेशान-हताश कोई लड़का उत्सव शर्मा नहीं बन जाता है। 76 जवानों की नक्सलियों ने हत्या कर दी, किसकी जवाबदेही बनी।

अपने ही सुरक्षाकर्मियों को सांप और कुत्तों का नाम देने वाले सरकारी अधिकारियों  का क्या हुआ, जिनकी मायोपिक नजरों की वजह से हमारे जवानों को जान से हाथ धोना पड़ा।

ये सब छोटी बातें है..आखिर गणतंत्र के 62 साल के बाद हम पहुंचे कहां है..। अभी भी एक हिस्सा अलग सूबे के लिए हिंसा पर उतारु है। एक सूबा ऐसा है जहां तिरंगा फहराना इतना बड़ा मुद्दा हो जाता है कि राम-राम जपने वाली पार्टी तिरंगे के जरिए अपना खोया जनाधार पाने की कोशिशों मे लग जाती है।

आखिर नक्सली आए कहां से। क्यों बनता है कोई नक्सली। आखिर उनका व्यवस्था से मोहभंग क्यों हो गया है..। दलालों के राज में, परिवारवाद के दौर में आम आदमी की जगह कहां है..नेता का बेटा नेता बनेगा। वही मंत्री बनेगा...और इन्ही के दरबारी पत्रकारिता में कुंडली मार बैठेंगे। 



इसी गणतंत्र अगर आपको राजपथ पर गणतंत्र दिवस की झांकी देखनी हो, तो ये आप मुफ्त में नहीं देख सकते। सरकार इसके लिए आम लोगों से टिकट वसूलती है और खास लोगों को पास बांटती है। 

संविधान बनने के दिन सेना की ताकत का प्रदर्शन। लोकतंत्र की झांकियों के साथ टैंकों की परेड। भारत महान के इस खूबसूरत प्रदर्शन को देखने के लिए जब से टिकट लगने लगा है, आम लोग कम और खास लोग ज्यादा आते हैं।

तामझाम से ऐसा लगता है कि कोई राष्ट्र अपने मर्दाना ताकत का प्रदर्शन कर रहा है। कई लोगों की दिलचस्पी इन झांकियों में होती है। राज्यों की संस्कृति का खास सरकारी रूप दिखता है। मगर ये झांकियां भी रायसीना हिल्स से चलकर इंडिया गेट तक ही खत्म हो जाती है। सेना की परेड लाल किले तक जाकर खत्म होती है। यानी अगर आपको देश की भरी-पूरी संस्कृति का नजारा देखना हो तो राजपथ आना होगा और वहां बगैर टिकट या पास लिए कोई आम आदमी नहीं पहुंच सकता।
इंडिया गेट के चारों ओर की सड़के छावनी में तब्दील कर दी गई हैं। जगह जगह बोरियों में रेत भर कर बंकर बना दिए हैं। डर है कि कोई पडोसी हमारी सेनाओं पर ही हमला ना कर दे, तो इतनी भारी-भरकम मिसाइलें क्या सब्जी पकाने के लिए हैं..?

गणतंत्र माने, जनता का तंत्र...जहां किसी खानदान का राज नही चल सकता। देश का प्रधान हमेशा कोई चुना हुआ व्यक्ति होगा। आप तय करके बताएं कि क्या यह सच है..? क्या हमारे गणतंत्र के प्रमुख को एक परिवार ने चुनकर देश पर थोप नहीं दिया है..?


मेरे दोस्त विकास सारथी को लगता है कि पानी सर के ऊपर चला गया है, अब जनता सड़कों पर उतर जाएगी। यह क्रांति  की पूर्वपीठिका है..लेकिन मुझे तो लगता है जनता की शुरुआती कुसंगतियों-पढे नीतियों-की वजह से वह शीघ्रपतन की शिकार हो गई है। हर मुद्दे पर उसका ध्वजभंग शीघ्र ही हो जाता है..

Monday, January 24, 2011

अब कौन मिलाएगा सुर...

बहुत पहले, दूरदर्शन पर फिलर चला करता था...मिले सुर मेरा तुम्हारा..। दो धारावाहिकों के बीच-खासकर रविवार को-हमें मिले सुर मेरा तुम्हारा सुनने को मिलता था। एकदम शुरुआत में ही गुरुगंभीर आवाज, दिलकश लगती थी।

उसके बाद इस गाने में दूसरी भाषाएं आती थीं...।

हमने उसी गानेसे जाना कि इस गुरुगंभीर आवाज के मालिक पंडित भीमसेन जोशी हैं। आज सुबह दफ्तर जाते ही टीवी स्क्रीन्स चीख-चीख कर भारत माता के एक और रत्न कम हो जाने का ऐलान कर रहे थे। फिर बाईट लेने के लिए मुझे बिजवासन जाना पड़ा, पंडित जसराज के घर। रास्ते भर यही सोचता रहा कि मिले सुर मेरा से शुरु हुआ जोशी जी से मेरा परिचय आज कैसे अनंतिम रुप ले रहा है।

हम बड़े हुए तो फिर पंडित जी के कई गाने सुने..उनकी महानता के बारे में ज्यादा जाना। तमाम छवियों के बाद भी मिले सुर मेरा तुम्हारा, मेरे दिल के बहुत करीब रहा, और करीब रहे, श्वेत-धवल वस्त्रो में अवतरित होते पंडित जी।

इस बीच पंडित जसराज के घर पहुंच गया। पंडित जसराज भावुक हो गए, कहा, सन 42 में पहली बार जोशी जी को सुना...उसी दिन से उनका भक्त हो गया। जोशी जी सभी संगीतकारों की इज्जत करते थे। खासकर, अपने गुरु को बेहद अहम स्थान देते थे। सवाई गंधर्व के नाम पर जोशी जी ने जो संगीत महोत्सव शुरु किया, उसमें कोई भी गायक आमंत्रित होकर ही धन्य मानता है खुद को। खुद पंडित जसराज ने 89 को छोड़कर हर बार शिरकत की है उस संगीत समारोह में।

बहरहाल, अफ्तर वापसी में रास्ते में मैं फिर अपने अतीत में चला गया। जब पढ़ता था तो म्युजिक सिस्टम खरीदने के पैसे नहीं थे पास में। नौकरी लगी तो पहली तनख्वाह में मैंने डीवीडी प्लेयर खरीदी थी। और उसके साथ जो पहली सीडी खरीदी थी वो थी राम धुन। इस अलबम में लता मंगेशकर और पंडित भीमसेन जोशी ने राम के भजन गाए हैं।

हालांकि, धर्म से मेरा कोई बड़ा नाता रहा नही कभी। लेकिन संगीत के लिए कव्वाली और भजनों की गहराईया् हमेशा आकर्षित करती रही हैं।

लता ताई भी उस अलबम में जोशी जी के सामने संघर्ष करती दिख रही थी, और पंडित जी की पुरकशिश आवाज, बेदाग, निर्दोष, निष्पाप...एक दम अंतरतम में उतरती चली गई।

जोशी जी के सुर और स्वर थे...राम प्रभु की भद्रता का, सभ्यता का मान धरिए, राम का गुणगान करिए। लगा स्वर ही ईश्वर है।

स्वरों का उतार-चढाव, अद्भुत गहराई...मेरे पास शब्द नही हैं। उस आनंद अखंड घने क्षण को व्यक्त करने के  लिए...। जोशी जी को सिर्फ एक बार आमने-सामने मंच पर सुन पाया, एक बार फिर डीडी का धन्यवाद कि उसने मुझे बहुत पहले इस कवरेज पर भेजा था।

दुबारा मौका आया नहीं, जोशी जी बीमार पड़ गए।

इस बीच कहीं फिल्म देख रहा था, फिल्म शुरू होने से पहले जन-गण-मन गायन हुआ, एक बार फिर देश को सदेश देते पंडित भीमसेन जोशी सामने थे।

अब उनसे मिलना होगा भी नहीं।

हर इंसान को एक न एक दिन जाना होता है, पंडित जी भी चले गए। लेकिन अपनी आवाज के जरिए भारत भर को एक कर हर जाति संप्रदाय के सुर करने वाले पंडित जी हमेशा जीवित रहेंगे, हमारे दिलों में।

Tuesday, January 18, 2011

क्या आप गायक बालेश्वर को जानते हैं?



क्या आप भोजपुरी संगीत को सिर्फ अश्लील सिनेमाई गानों और गुड्डू रंगीलाओं और पवन सिंहों की वजह से जानते हैं? अगर आपका उत्तर हां है तो इसका मतलब यह हुआ कि आप हिंदी सिनेमा को सिर्फ डेविड धवन और हिंदी को सिर्फ वेदप्रकाश शर्मा की वजह से जानते हैं। 

भोजपुरी संगीत के पुराने रसिकों को नीक लागे टिकुलिया गोरखपुर के, और बलिया नीचे बलमा हेराइल सजनी जैसे गीत याद होंगे। इन दोनों ही रेकॉर्ड 1979 में ग्रामोफोन कंपनी एचएमवी ने रिलीज किए थे। गायक थे बालेश्वर यादव। 

इन्ही बालेश्वर का पिछले दिनों निधन हो गया। 

बालेश्वर भोजपुरी रंगमंच के पहले शोमैन माने जाते रहे हैं। निहायत ठेठ-गंवई अंदाज़ और अनोखे किस्म की थिरकन और रई रई रई रे के आलाप के साथ बालेश्वर मंच पर छा जाते थे। 

बालेश्वर के निधन के साथ ही भोजपुरी अंचल में एक ऐसे युग का अंत हो गया, जिसके साथ ही एक गायक पहले महानायक और फिर उसी लोकप्रियता के सहारे चुनावी परचम तक लहरा गया। ऐसा उत्तरी भारत में पहली बार हुआ था। 


ठेठ किस्म के आंचलिक कलाकार को स्टारडम मिलने का यह पहला मौका था। 

बालेश्वर का जन्म पुराने आज़मगढ़ और आज के मऊ जिले में हुआ था। बचपन से बिरहा सुनते-सुनते बालेश्वर के भीतर भी एक आशुकवि पैदा हो गया। तुरत-फुरत तुकबंदियां गढ़कर मंच पर सुना देना, वो भी भीतर तक छीलने वाली पंक्तियां...कई बार बालेश्वर को इसकी वजह से नाराजगी का सामना भी करना पड़ा।

बालेश्वर 1965 से 1975 तक लगातार रेडियो के लिए स्वर-परीक्षा देते रहे। लेकिन अमिताभ की ही तरह बालेश्वर भी स्वर परीक्षा में नाकाम होते रहे। हालांकि, रेडियोवालों ने उनकी आवाज की कूवत देर से सही, पहचानी, लेकिन उससे पहले ही सोशलिस्ट नेता बिष्णुदेव गुप्ता इस आवाज में छिपी लोक-अपील का अंदाज भांप गए। 
बालेश्वर का जानाः आज भोजपुरी अचल उदास है


गुप्ता की सभाओं में बालेश्वर गाने लगे। कद्दावर कम्युनिस्ट नेता झारखंडे राय की घोसी से जीत के साथ ही वह लखनऊ पहुंच गए। 

इन्ही दिनों एचएमवी के वही दोनों मशहूर रेकॉर्ड रिलीज हुए जिनकी चर्चा मैं ऊपर कर चुका हूं।

आंचलिकता के अनूठे अंदाज ने बालेश्वर के गीत के पानवाले से लेकर रिक्शेवालों तक की ज़बान पर चढा दिया। 

इसके बाद आवा चली ए धनिया ददरी के मेला से लेकर मतलबी यार न मिले, हिटलर शाही मिले मगर मिलीजुली सरकार न मिले..जैसे बेशुमार लोकप्रिय गीतों ने बालेश्वर को देश ही विदेशों में भी खासा लोकप्रिय बना दिया। 


1995 में मुलायम सिंह यादव की सरकार ने बालेश्वर को यश भारती सम्मान दिया। 

लेकिन मौजूदा दौर के बेढब भोजपुरिया गीतों ने उन्हें आखिरी दिनों मे उदास कर दिया था..उनके जाने से भोजपुरी जगत को एक ऐसी क्षति हुई है जिसे बाजार में खड़ा भोजपुरी संगीत शायद ही भर पाए।


Friday, January 14, 2011

याद शहर...

एफ एम रेडियो से तब से बावस्ता हूं, बतौर एक श्रोता...जब से एफएम शुरु हुए। रेडियो जॉकीज़ की चीख-चिल्लाहट...उनकी उल्टी-पुल्टी खुराफातों और लफ्फाजियों...बकवास और बेसिर-पैर की बातों की आदत हो गई धीरे-धीरे।

सिंधी घोड़ीवालों से लेकर बेहूदा किस्म के विज्ञापनों के बीच...रेडियों ज़ॉकीज़ की बातों को झेलना आदत बनी..तो गानों के लिए लंबा इंतजार करना...पारंपरिक अनुष्ठान बन गया। गाने भी ऐसे थे जो सुन तो लें लेकिन गुनगुनाने के लिए बिलकुल मुफीद नहीं।

एफएम गोल्ड और रेनबो अपवाद था। लेकिन इसके जॉकी उपदेशक की मुद्रा अपनाए रहते। गानों और कथ्य का कोई तालमेल नहीं...बात कर रहे हों दार्जिलिंग के पर्यटन और आबोहवा की..गाना बिग ट्विस्ट। लफ्फाजियां..जोर-जोर से बकवास, फूहड़ किस्म के चुटकुले.. रात हो जाए तो शेरो-शायरी..फुसफुसाकर बातें करना...आधुनिक रेडियों ज़ॉकिइँग इसी के इर्द गिर्द घूमती नजर आती रही।

फिर कल, एक बेहद साधारण-सी शाम को एक रेडियों कार्यक्रम ने बेहद खास तजुरबेवाला बना दिया।

नीलेश कल शाम को नौ बजे बिग एफ एम पर किस्सा सुना रहे थे।  किस्सा एक आलमारी से जुडी थी, तीन पुश्तों वाली आलमारी...।

कहानी से जुड़े गाने आप ही आप सिलसिलेवार ढंग से आते गए..। जगजीत सिंह से लेकर कैलाश खेर तक...और भूपिंदर की पुरकशिश आवाज से आशा तक....मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है...नीलेश की कहानी को आगे बढाते गए..उनके मूड के लिहाज से शानदार गानों का खूबसूरत चयन। नीलेश की किस्सागोई का तरीका सबसे अलहदा है..। नीलेश मिसरा को सुनकर महसूस होता है कि दरअसल अब तक हमारे यहां कायदे के रेडियो जॉकी हुए ही नहीं।

पत्रकारिता और लेखन में अपनी छाप छोड़ने के बाद नीलेश ने रेडियों जॉकिइंग में भी नई ज़मीन फोड़ी है। कुछ परिभाषाएं बदलनी शुरु होंगी अब। मेरे दोस्त विकास सारथी भी नीलेश के प्रशंसकों में से एक हैं। पूछने पर बताते हैं, कि नीलेश रेडियो के सबसे बेहतरीन और सेंसिबल बन कर सामने आए हैं।

मैं रोजाना इसके श्रोताओं में शामिल हो रहा हूं, इस कार्यक्रम की तारीफ में मेरे पास शब्द नही है। उम्मीद यही कि यह ऐसा ही बना रहे..।

Monday, January 3, 2011

मेरा फोटो ब्लॉग

मित्रो   मैंने एक फोटो ब्लॉग शुरु किया है। लीडिंग लाईन्स नाम से...। आप कृपया आप देखें और अपनी राय दें। नीचे ताजा पोस्ट का लिंक डाल  रहा हूं। अभी तक डाली ज्यादातर तस्वीरें मोबाइल फोन से ली गई हैं।

आपकी बहुमूल्य राय का इंतजार रहेगा।

मंजीत का फोटो ब्लॉग, लीडिंग लाइन्स...


मंजीत



http://candidpic.blogspot.com/2011/01/mumbai-birds-eye-view.html