शुरुआती फिल्मों के विज्ञापनों पर रहा ललित कलाओं का असर, बाद में शुद्धतावादियों को लगी हेठी
सजीव फोटॉग्रफी जैसे शब्दों के विज्ञापनों में इस्तेमाल ने इसे उत्पाद (सिनेमा) के गुण के तौर पर प्रचारित किया। दरअसल, सजीव तस्वीर कहने से तस्वीरों के गुण के सिनेमा में परिवर्तित और हस्तांतरित होना सुगम हो गया। फोटॉग्रफी का गुण था यथार्थ को पूरी सच्चाई और वस्तुनिष्ठता के साथ छापने का...फोटॉग्रफी इस लिहाज से भी चित्रकला से आगे की चीज थी।
सिनेमा ने फोटॉग्रफी के इसी गुण को आगे बढाया था..लेकिन सिनेमा में सजीवता भी थी..गति भी।
सिनेमा के शुरु के दौर में प्रचार का काम बैलगाडियों के ज़रिए हुआ करता था..परचे बांटे जाते थे। प्रचार का काम तांगों से भी किया जाता था। तांगों से प्रचार करने की तरकीब अभी भी जारी है. कम से कम मेरे शहर मधुपुर में तो फिल्मों का प्रचार अब भी तांगे से ही होता है।
दरअसल, भारतीय सिनेमा पर पारसी थियेटर के असर की बात की जाती है। और यह असर प्रचार के मामले में भी इतना ही सच है। पारसी थियेटरों की ही तरह शुरुआती दौर में सिनेमा में परचे बांटे जाने लगे। लेकिन ये परचे सिर्फ शब्दाधारित होते थे। इनमें तस्वीरें अभी तक जगह नहीं बना पाईं थी।
छपाई तकनीक में विकास के साथ ही इन परचों की छपाई में भी सुधार आने लगा। 1920 के दशक में अक्षरों की छपाई में कैलिग्राफीनुमा लैटर्स के ब्लॉक बनाए जाने लगे। इसी दशक के आखिरी सालों में बुकलेट्स छपने लगे। इन बुकलेट्स में फिल्मों की कुछ तस्वीरें और सिनॉप्सिस भी दी जाने लगीं।
बुकलेट्स लेकर जिस फिल्म का प्रचार सबसे पहले किया गया, वो थी- प्रेम सन्यास। गौतम बुद्ध के जीवन पर बनी यह फिल्म भारत और जर्मनी का संयुक्त निर्माण थी और इसे जर्मन निर्देशक फ्रेंज ऑस्टिन और भारतीय हिमांशु राय ने निर्देशित किया था। 1926 में रिलीज इस फिल्म का हिंदी में नाम प्रेम सन्यास था तो जर्मन दर्शको के लिए यह लाइट ऑफ एशिया था।
फिल्में शुरु से ही कला से जुड़ी चीज मानी जाती रही है। ऐसे में ललित कलाओं से जुड़े लोगों को इसमें(विज्ञापनों में ) प्राथमिकता मिलती रही। लेकिन विज्ञापन कला में ललित कला से जुड़े लोगों को कभी भी पूरी तरह से कलात्मक आजादी नहीं मिली। और कला की शास्त्रीयता से जुड़े लोग पोस्टरों और फिल्म प्रचार सामग्री बनाने को कभी भी उत्कृष्ट कला कार्य मानने में हेठी समझते रहे।
दूसरी तरफ विज्ञापन कला से जुड़े लोगों ने भी शास्त्रीयता को ज्यादा भाव नहीं दिया, हालांकि, वह छवियां गढ़ने की बुनियादी बातें ललित कलाओं की उधारी लेते रहे। विज्ञापन कलाओं के विकास ने भारत की ललित कलाओं को भी एक नया तेवर दिया इसमें शक नहीं। इन विज्ञापनों ने एक नए युग की शुरुआत की, जिसमें सिनेमैटिक छवियों को सिनेमाघरों से बाहर और विस्तार दिया।
छवियों के इस नए युग में दादा साहेब फाल्के-जिनने 1913 से 1937 के बीच फिल्में बनाई- एक अलग मुकाम इसलिए भी रखते हैं क्योंकि उनने सिनेमा को एक नई कलात्मक ऊंचाई बख्शी थी। फाल्के की फिल्मों पर राजा रवि वर्मा की चित्रकला का बहुत असर था...जाहिर है यह प्रभाव विज्ञापन कला पर भी पड़ा।
अगलाः रवि वर्मा का असर
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सजीव फोटॉग्रफी जैसे शब्दों के विज्ञापनों में इस्तेमाल ने इसे उत्पाद (सिनेमा) के गुण के तौर पर प्रचारित किया। दरअसल, सजीव तस्वीर कहने से तस्वीरों के गुण के सिनेमा में परिवर्तित और हस्तांतरित होना सुगम हो गया। फोटॉग्रफी का गुण था यथार्थ को पूरी सच्चाई और वस्तुनिष्ठता के साथ छापने का...फोटॉग्रफी इस लिहाज से भी चित्रकला से आगे की चीज थी।
सिनेमा ने फोटॉग्रफी के इसी गुण को आगे बढाया था..लेकिन सिनेमा में सजीवता भी थी..गति भी।
सिनेमा के शुरु के दौर में प्रचार का काम बैलगाडियों के ज़रिए हुआ करता था..परचे बांटे जाते थे। प्रचार का काम तांगों से भी किया जाता था। तांगों से प्रचार करने की तरकीब अभी भी जारी है. कम से कम मेरे शहर मधुपुर में तो फिल्मों का प्रचार अब भी तांगे से ही होता है।
दरअसल, भारतीय सिनेमा पर पारसी थियेटर के असर की बात की जाती है। और यह असर प्रचार के मामले में भी इतना ही सच है। पारसी थियेटरों की ही तरह शुरुआती दौर में सिनेमा में परचे बांटे जाने लगे। लेकिन ये परचे सिर्फ शब्दाधारित होते थे। इनमें तस्वीरें अभी तक जगह नहीं बना पाईं थी।
शुरुआती दौर की फिल्म का प्रचार हैंडबिल |
छपाई तकनीक में विकास के साथ ही इन परचों की छपाई में भी सुधार आने लगा। 1920 के दशक में अक्षरों की छपाई में कैलिग्राफीनुमा लैटर्स के ब्लॉक बनाए जाने लगे। इसी दशक के आखिरी सालों में बुकलेट्स छपने लगे। इन बुकलेट्स में फिल्मों की कुछ तस्वीरें और सिनॉप्सिस भी दी जाने लगीं।
बुकलेट्स लेकर जिस फिल्म का प्रचार सबसे पहले किया गया, वो थी- प्रेम सन्यास। गौतम बुद्ध के जीवन पर बनी यह फिल्म भारत और जर्मनी का संयुक्त निर्माण थी और इसे जर्मन निर्देशक फ्रेंज ऑस्टिन और भारतीय हिमांशु राय ने निर्देशित किया था। 1926 में रिलीज इस फिल्म का हिंदी में नाम प्रेम सन्यास था तो जर्मन दर्शको के लिए यह लाइट ऑफ एशिया था।
फिल्में शुरु से ही कला से जुड़ी चीज मानी जाती रही है। ऐसे में ललित कलाओं से जुड़े लोगों को इसमें(विज्ञापनों में ) प्राथमिकता मिलती रही। लेकिन विज्ञापन कला में ललित कला से जुड़े लोगों को कभी भी पूरी तरह से कलात्मक आजादी नहीं मिली। और कला की शास्त्रीयता से जुड़े लोग पोस्टरों और फिल्म प्रचार सामग्री बनाने को कभी भी उत्कृष्ट कला कार्य मानने में हेठी समझते रहे।
दूसरी तरफ विज्ञापन कला से जुड़े लोगों ने भी शास्त्रीयता को ज्यादा भाव नहीं दिया, हालांकि, वह छवियां गढ़ने की बुनियादी बातें ललित कलाओं की उधारी लेते रहे। विज्ञापन कलाओं के विकास ने भारत की ललित कलाओं को भी एक नया तेवर दिया इसमें शक नहीं। इन विज्ञापनों ने एक नए युग की शुरुआत की, जिसमें सिनेमैटिक छवियों को सिनेमाघरों से बाहर और विस्तार दिया।
छवियों के इस नए युग में दादा साहेब फाल्के-जिनने 1913 से 1937 के बीच फिल्में बनाई- एक अलग मुकाम इसलिए भी रखते हैं क्योंकि उनने सिनेमा को एक नई कलात्मक ऊंचाई बख्शी थी। फाल्के की फिल्मों पर राजा रवि वर्मा की चित्रकला का बहुत असर था...जाहिर है यह प्रभाव विज्ञापन कला पर भी पड़ा।
अगलाः रवि वर्मा का असर
ए
painstakingly researched n well written...........
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा,,धन्यवाद
ReplyDeleteअब जरा पहली किश्त भी ध्यान से पढ़ लूँ...:)
ReplyDeleteबहुत सुंदर जानकारी, धन्यवाद
ReplyDeleteacchi jankari hai gurudev.
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