Wednesday, August 31, 2011

बुंदेलखंड की बेटियां

सरकारी योजनाओं का जंजाल अनपढ़ गांववालों के लिए एक उलझाऊ तानाबाना है।

इसी तानेबाने में फंस कर रह गई उत्तर प्रदेश सरकार की विशेष वृक्षारोपण योजना। साल 2008 में यूपी सरकार ने 10 करोड़ पेड़ लगाने की योजना बनाई। इस काम में वन विभाग के साथ-साथ विद्युत विभाग, पीडब्ल्यूडी, सिंचाई विभाग, पंचायतें और प्राइवेट ठेकेदार लगे। हर पेड़ की लागत बैठी तकरीबन 600 रुपये..पैसा था मनरेगा और वन विभाग का..लेकिन बुंदेलखंड के किसी जिले में वो 10 करोड़ पेड़ कहीं नहीं दिखते।

इस वृक्षारोपण की मॉनीटरिंग करने वाले पी के सिंह कहते हैं कि उन्हें ज्यादातर पौधे पॉलीथीन बैग समेत ही मिले, उन पर मिट्टी डालने की जहमत भी नहीं उठाई गई थी, उन्हें यूं ही गड्ढों में फेंक दिया गया था।

केंद्र सरकार ने 7,277 करोड़ रुपए का पैकेज पिछले साल नवंबर में बुंदेलखंड को दिया। इनमें से 3,506 करोड़ रुपए उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड के हिस्से आएंगे। हालांकि इस रकम से उम्मीदें बढनी चाहिए थीं...लेकिन उम्मीदों से अधिक चिंताओं ने सिर उठाना शुरू कर दिया है।

ये चिंताएं इतनी बड़ी राशि की लूट से जुड़ी चिंताएं हैं, क्योंकि यह रकम भी उसी चैनल के जरिए और उन्हीं योजनाओं पर खर्च होनी है जिनकी कहानी हमने आपको दिखाई है।

2010-11 में केन्द्र सरकार ने बुंदेलखंड को दिए पैकेज से मिले पैसों में राज्य सरकार के 10 विभाग शामिल किए गए। इनकी योजनाओं को 2 साल के लिए मंजूरी मिली। उम्मीद तो जगी लेकिन प्रबंधन की असलियत कुछ और ही है।

बांदा जिले को 2010-11 के लिए 213 करोड़ रुपये आवंटित हुए। जिनमें से पहले साल 10 सरकारी महकमों को 40 करोड़ दिए गए।

पशुपालन विभाग 1.75 करोड़ रुपयों में से महज 4 लाख रुपये खर्च कर पाया। जबकि, भूमि विकास विभाग 5.22 करोड़ में से 2.37 करोड़, लघु सिंचाई विभाग 12.01 करोड़ में से 7.95 लाख, कृषि विभाग 5.30 लाख में से 3.20 करोड़, सिंचाई विभाग 12.89 करोड़ में से 9.72 करोड़ रुपये ही खर्च कर पाया।

इस तरह बांदा जिले को आवंटित 40.38 करोड़ रुपयों में महज 29.73 करोड़ ही खर्च हो पाए और 10.65 करोड़ रुपये बगैर खर्च हुए वापस चले गए। पशुपालन विभाग को पैकेज के तहत 28 कृत्रिम गर्भाधान केन्द्र खोलने थे और इसके लिए 1 करोड़ 44 लाख रुपये उसे मिले भी, लेकिन पशुपालन विभाग एक भी गर्भाधान केन्द्र खोलने में नाकाम रहा।

जिस क्षेत्र में और जिस काम में सरकारी मशीनरी नाकाम रही, वहीं कुछ लोगों के व्यक्तिगत प्रयासों ने साबित किया कि हिम्मत और लगन हो, इच्छा हो तो कोई भी काम नामुमकिन नहीं रहता।

हालांकि, इन व्यक्तिगत प्रयासों से बुंदेलखंड की हर समस्या का स्थायी समाधान मुमकिन नहीं, लेकिन ये प्रयास उम्मीद जगाते हैं..और नई राह दिखाते हैं।

नई राह दिखाने वाली शख्सियतों में से एक हैं नीतू सक्सेना। उनकी दुबली काया पर मत जाइए, एमए पास यह लड़की बुंदेलखंड की असली बेटी है। फौलादी इरादों वाली नीतू ने अपने आस-पास आत्महत्याओँ का दौर देखा। पिता के भी उसी राह चले जाने के डर ने उनके अंदर एक नई राह को रौशनी दिखाई।

नीतू सक्सेना ने अपनी सहेलियों रीना और गुड़िया परिहार के साथ घर-घर जाकर पहले तो कर्जदारों और भूखे परिवारों की सूची बनाई। इनमें से उनके गांव में छह परिवार बूखमरी के शिकार निकले। नीतू ने इसके लिए नई राह खोज निकाली।

महिलाओं को दादरा यानी गाने बजाने के लिए इकट्ठा किया। बुंदेलखंड में दादरा के दौरान आखत की परंपरा है। यानी गाने के लिए आने वाली महिलाएं अपने साथ अनाज लाकर इकट्ठा करती है, जो बुलावा देने वाले नाई का होता है। लेकिन यहीं नीतू ने एक छोटा-सा बदलाव किया।

आखत में आने वाला अनाज नीतू ने भूखे परिवारों में बांट दिया। नीतू का यह प्रयास आज अगल-बगल के 58 गांवों में फैल चुका है। लेकिन, नीतू सिर्फ अनाज बांट कर ही चुप नहीं बैठी..। उन्होंने महिलाओं को साथ लेकर आसपास के नलों के पास बेकार पड़े पानी को जमा करने के लिए वॉटर रिचार्ज पिट बनाए। इससे सूखे पड़े नल भी जी उठे।


...सवाल है कि बुंदेलखंड को क्या चाहिए...बुंदेलखंड को ईमानदार कोशिशों की जरुरत है। साफ-सुथरी सरकारी मशीनरी अगर आम लोगों को साथ लेकर कोशिश करे तो सूखता जा रहा बुंदेलखंड शायद फिर जी उठे। समाज को पानीदार बनाने की कोशिशे...और लोगो के साथ की जरुरत है बुंदेलखंड को। वरना अकाल पड़ने से ज्यादा खतरनाक है अकेले पड़ जाना। 

संकट के समय समाज में एक दूसरे का साथ निभाने की परंपराएं पूंजी की तरह थीं...संवेदना की इस पूंजी के सहारे हमने कई बड़े संकट पार किए हैं। लेकिन सवाल है कि मशीनरी में आए ईमानदारी के अकाल का क्या करें..सवाल ये भी है कि संवेदना की पूंजी हमारे पास बची भी है या नहीं।



1 comment:

  1. गुस्‍ताख जी, मैंने अपनी पिछली टिप्‍पणी में ऐसा ही कुछ होने की आशा की थी, अच्‍छा लगा. बड़ी समस्‍याएं, चाहे छोटे हों, हल ले कर आती हैं.

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