वो आंखे,
जिनमें जहान समाया था
वो आंखे,
जो बोलती थीं
फर-फर
पुरवैया की तरह,
वो आंखे,
जिनमें थी हरकतें किसी-
गोरैया की तरह,
वो आंखे-उनींदी-सी आंखें
जिनमें देखा था मैंने खुद को
खुदा को
जिनमें बहती थी नदी
अविरल
जिनमें मैं बह गया
अविकल
उसी नदी के किनारे
बैठकर देखता रहा अपनी ही परछाई
उन्हीं आंखों में,
जिनमें जहान समाया था
जिनके बंद पलकों को-
जिनको मैं बस छू भर पाया था।
उन्हीं आंखो-पलकों में
बंद हैं मेरे सपने
मेरे अपने
जैसे भंवरा क़ैद हो जाता है
किसी कमल की पंखुडियों में।।
उन्हीं आंखो-पलकों में
ReplyDeleteबंद हैं मेरे सपने
मेरे अपने
जैसे भंवरा क़ैद हो जाता है
किसी कमल की पंखुडियों में।।खुबसूरत अभिवयक्ति....
वाह भई, तुम्हारी ये कविता याद दिला गई उन फुर्सत के पलों में खुले आसमान के नीचे बैठने के मौके वाले बीते हुये कल की। इसी बात पर कहना चाहूंगा...
ReplyDeleteदुनिया की भीड़ में!
हम सब दुनिया की भीड़ में शामिल हैं जो सुबह से लेकर शाम तक कोई-न-कोई काम लेकर यहाँ से वहाँ दौड़ती रहती है। सड़क, गाडियाँ, रेड लाईट ये सब इस भीड़ की जिंदगी की रोजमर्रा में शामिल है। लेकिन क्या कभी आपने इस भीड़ से ख़ुद को अलग कर कहीं दूर बैठकर इस भीड़ को देखा है। लोगों को शायद ये अटपटा लगे लेकिन मुझे इस तरह के अनुभव लेने की आदत है। इस अनुभव पर मैं अपनी एक कविता के कुछ अंश नीचे दे रहा हूँ।
कभी देखिये
भीड़ से अलग होकर
दुनिया की भीड़ को
सड़क पर बेतहाशा
दौड़ती-भागती भीड़ को
सुबह से शाम तक
बस भागती हुई भीड़ को!
लेकिन ये भीड़ कभी रूकती नहीं है। दुनिया के हजारों-लाखों शहर और ग्रामीण इलाकों के सडकों और चौराहों पर पर यह भीड़ उतनी ही शिद्दत से दौड़ रही है। फर्क इतना है कि आज हम इस भीड़ का हिस्सा हैं, कल कोई और था और आने वाले कल में इस भीड़ में कोई और शामिल होगा...
आगे.........
कभी नहीं रूकती ये
बस थमती है
आधी रात को
केवल एक पहर के लिए
और फ़िर चल पड़ती है
सुबह होते ही।।
Posted by Sundip Kumar Singh