एक शेर याद आ रहा है, बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का...सच
साबित हो गया। इशकजादे ने अर्जुन कपूर, हबीब फैज़ल और खुद इस फिल्म को लेकर बहुत
उम्मीदें पैदा कर दी थीं। प्रोमो ने फिल्म देखने पर मजबूर कर दिया। कई कन्याओं ने
अर्जुन कपूर को लेकर आहें भरनी भी शुरु कर दी थीं...कई लड़कों ने परिणीति चोपड़ा
को लेकर। हम फिल्म देखर दर्द भरी आह भरने पर मजबूर हुए।
फिल्म की विचारधारा से मुझे सख्त शिकायत है, जहां लड़की शिकार
की शौकीन है, जो बंदूक तनी होने पर भी हीरो को सख्ती से कहती है कि सॉरी बोल।
लेकिन हमारा खलनायक टाइप हीरो जब उसका शिकार करता है तो तुरंत वह अबला भारतीय नारी
बन जाती है।
हीरो कई दफा हीरोइन से कहता है कि वह उससे प्यार करता है लेकिन उसकी करतूतों से यह कहीं भी जाहिर नहीं होता। इंटरवल से पहले फिल्म एक उम्मीद की तरह देख सकते हैं, लेकिन धीरे-धीरे फिल्म बोझिल होती चली जाती है। जहां निर्देशक दर्शक को तकरीबन बेवकूफ (और मैं अपनी भाषा में कहूं तो चूतिया) समझता है।
पूरी फिल्म में दो राजनीतिक परिवार है, शहर है, कॉलेज है,
गलियां है। लेकिन समाज नहीं है। गलियां सूनी हैं। कॉलेज में छात्र नहीं है। अपराध
है लेकिन कहीं पुलिस नहीं है। कहानी से सारे किरदार एक से हैं, तकरीबन बुद्धिहीन,
अपने दिमाग के इस्तेमाल से बचनेवाले।
बहरहाल, इशकजादे के हबीब फैसल ने बैंड बाजा बारात और दो दूनी चार से उम्मीद जगाई थी, लेकिन अब लगता है वो भी भेड़चाल का हिस्सा बन गए हैं। अर्जुन कपूर की मुस्कुराहट अभिषेक बच्चन की खिलंदड़ेपन जैसी है। लेकिन उन्हें अगर नकल ही करनी थी तो किसी समर्थ अभिनेता की करते, फिर भी लगा कि वो मेहनती हैं। परिणीती चोपड़ा तो खैर संभावनाशील हैं ही।
बंदूक तो है प्यार नदारद |
फिल्म में इशकजादे तो हैं लेकिन इश्क गायब है। यह फिल्म हमारे
समाज की कड़वाहट हमारे चेहरे पर तेज़ाब की तरह फेंकती है। यह फिल्म उन हजारों
इशकजादों की तलाश करती है जो कभी हजारों में हुआ करते थे, लेकिन अब जहानों में
नहीं। वो हर साल मरते हैं, कभी खापों के हुक्म से, कभी परिवारों के सम्मान के लिए।
फिर भी, इशकजादे एक कमजोर फिल्म लगी। यह फिल्म समाज तो खैर
जाने दीजिए, इश्क को भी कायदे से पहचान नहीं पाती। हां, परिणीती चोपड़ा ने अपनी
अदाकारी से फिल्म ढोने की कोशिश जरूर की है, लेकिन एक हद तक ही। बाद को फिल्म मुंह
के बल गिर जाती है।
उफ़्...जैसा पोस्टर में है वैसा फिल्म में भी होता |
फिल्म हीरोइन की दशा को लेकर बहुत कन्फ्यूज़ है।
हीरो कई दफा हीरोइन से कहता है कि वह उससे प्यार करता है लेकिन उसकी करतूतों से यह कहीं भी जाहिर नहीं होता। इंटरवल से पहले फिल्म एक उम्मीद की तरह देख सकते हैं, लेकिन धीरे-धीरे फिल्म बोझिल होती चली जाती है। जहां निर्देशक दर्शक को तकरीबन बेवकूफ (और मैं अपनी भाषा में कहूं तो चूतिया) समझता है।
इशकजादे अपने कथानक में भी बेहद कन्फ्यूज़ फिल्म है। इसमें
परेश रावल की वो छोकरी और आमिर खान की क़यामत से क़यामत तक का घटिया घालमेल है।
गंभीर सिनेमा और प्रकाश झा की फिल्मों की तरह इशकजादे भी एक ही साथ राजनीतिक भी
होना चाहती है और ज़मीनी, यथार्थवादी और खुरदरी भी। लेकिन फिल्म यशराज की है तो
उसे हल्की-फुल्की होने की जिम्मेदारी भी ओढ़नी है। नतीजाः बेड़ा गर्क।
परिणीति और अर्जुन दोनों ने मेहनत की, काश कोई कहानी भी होती |
कई दफ़ा तो मुझे लगा कि इशकज़ादे में निर्देशक ने अपने विवेक
की बजाय कमअक्ली का सुबूत दिया है।
गलियों में दौड़-भाग करते समय हमें मकान दिखते हैं, लेकिन कही
भी एक आदमी नहीं दिखता। शहर छोटा है लेकिन एक रेहड़ी तक नजर नहीं आती। हद तो तब हो
जाती है जब लड़की और लड़के के परिवारों के सैकड़ों गुंडे भूंजे की तरह गोलियां
चलाते हैं। उनका जवाब भी हीरो सैकड़ों गोलियां चला कर देता है। हालांकि, मौत एक भी
नहीं होती।
जीन्स पहने हुए हीरो के पास अनगिनत गोलिया हैं, जो कभी खत्म
नहीं होतीं। आखिरी दृश्य में नायिका अपने पास बची तीन गोलियां नायक को दिखाती है।
लेकिन खुदकुशी करने के फ़ैसले के बाद दोनों एक दूसरे को छह-छह गोलियां मारते हैं।
बहरहाल, इशकजादे के हबीब फैसल ने बैंड बाजा बारात और दो दूनी चार से उम्मीद जगाई थी, लेकिन अब लगता है वो भी भेड़चाल का हिस्सा बन गए हैं। अर्जुन कपूर की मुस्कुराहट अभिषेक बच्चन की खिलंदड़ेपन जैसी है। लेकिन उन्हें अगर नकल ही करनी थी तो किसी समर्थ अभिनेता की करते, फिर भी लगा कि वो मेहनती हैं। परिणीती चोपड़ा तो खैर संभावनाशील हैं ही।
इस फिल्म को देखने का इरादा नहीं था और अब आपकी समीक्षा ने तो ये इरादा और पक्का कर दिया .
ReplyDeleteअब अर्जुन कपूर किसी अच्छी फिल्म में काम करेंगे तब देखी जायेगी उनकी शक्सियत और उनका अभिनय.
आजकल इश्क कोमल नहीं रहा है।
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