Friday, May 25, 2012

सुनो! मृगांकाः ज़िंदगी तन्हा सफ़र की रात है...

जिंदगी में जो होता है, कई बार किताबों में नहीं होता।

'डेस्टिनी! बाबू मोशाय डेस्टिनी!'

***

बाहर बरसात फिर से होने लगी थी। लेकिन इस बार बारिश में वो बात नहीं थी। अंधेरा घिरने ही वाला था। यह वक़्त अभिजीत को बहुत अजीब लगता है। तब तक डोर बेल बजी। कौन होगा, सोचता हुआ अभिजीत आगे बढ़ा और दरवाजा खोल दिया।

सामने प्रशांत खड़ा था।

'हट बे, दरवाजे से हट। ऐसे क्या देख रहा है, क्या मैं हमेशा के लिए दफ्तर चला गया था?'

'नहीं ऐसी बात नहीं...अकेलापन फील कर रहा था।'

'अच्छा, तो अब अकेलापन फील भी होने लगा।'--प्रशांत ने मोजे उतारते हुए कहा। उसके कहते न कहते कामवाली आ गई। इन दोनों के लिए पहले चाय और फिर सलाद काट कर रख दिया।

प्रशांत ने अपने लिए एक पूजा का छोटा-स मंदिर बना रखा था। प्रशांत ने ब्लेंडर्स प्राइड की बोतल पूजा वाले टेबल के ऐन सामने रख दी। धीरे से पैग सिप करते हुए अभिजीत मुस्कुराने लगा। बहुत पहले...कम से कम लगता तो ऐसा ही है कि बहुत पहले घटी हो ये बात...मृगांका ने टोका था, 'अभिजीत को, अरे ये क्या कर रहे हो, भगवान जी देख रहे होंगे। उनके सामने शराब...छीः छीः'

अभिजीत के मुंह से यह सुनकर प्रशांत भी मुस्कुरा उठा। अगर ईश्वर ने पूरी सृष्टि बनाई तो शराब बनाने का जिम्मा भी उनके ही सर। दोनों बहुत देर तक ईश्वर की इस गलती पर हो हो करते हंसते रहे।

पांचवे पैग तक दोनों कुछ नहीं बोले। आखिरकार, प्रशांत ने कहा, 'क्या बाबा आज मौनव्रत में हैं क्या?'
'नहीं यार कुछ सोच रहा हूं'
'वैसे ये काम कब से शुरु कर दिया'
'कौन सा काम'
'सोचने का'
'आज ही से, अभी से'
'क्या सोचा'

'देखो प्रशांत, मुझे लग रहा है मुझे आराम की जरुरत है।'
'वो तो मैं कब से कह रहा हूं। खाओपियो आराम करो।' प्रशांत ने जोड़ा।

स शाम को ब्लेंडर्स प्राइड की पांच पैग हलक में उड़ेल लेने के बाद अभिजीत ने घोषणा की कि अब वो दिल्ली में नहीं रहेगा और अपने गांव जाएगा, जहां आराम करता हुआ वह असल में देशसेवा करेगा, कि जहां के लोग अब भी जाहिल हैं और उन लोगों को अभिजीत जैसे पढ़े-लिखे लोगों की बहुत जरुरत है। पांच पैग के बाद अभिजीत आमतौर पर शाहरुख की फिल्म स्वदेश का मोहन भार्गव हो जाता था, या वैसा ही बिहेव करने लग जाता था।

प्रशांत उसको गौर से देखने लग गया। 'क्या हुआ बाबू, इस बार मैं सीरियस हूं'--अभिजीत ने टोका
'हां, लग रहा है'
'तो सोच क्या रहे हो'
'सोच रहा हूं--रुख़सत करो किसी को तो जीभर के देख लो, शायद हो उसकी तुमसे मुलाकात आखिरी

हां'  ये तो सच है। जब तक जियूंगा यह अफसोस रहेगा...जाते वक्त उसका चेहरा तक न देख पाया।'

'कब निकल रहे हो'
'कल ही...'

***

रभंगा स्टेशन। चार बजकर दस मिनट पर जयनगर के लिए चलने वाली ट्रेन छूट चुकी है। स्टेशन पर भीड़ होने के बावजूद एक शांति कायम है। अगले दो -ढाई घंटे तक न तो कोई गाड़ी यहां आने वाली है और न छूटने वाली। जाना ज़रूरी है। शाम गहराती जाएगी और मधुबनी की तरफ जानेवाली बसों और परिवहन के दूसरे साधनों की गिनती कम से कमतर होती जाएगी। वह लपककर बाहर की ओर निकला। इस जगह से उसे जानी-पहचानी गंध मिल रही है। प्लेटफॉर्म नंबर एक से बाहर निकलते हुए उसने देखा, लोगबाग ज़मीन पर ही बैठे हैँ।

सामाजिक न्याय की धारा प्रचंड वेग से बहने के बावजूद सामाजिक स्थिति में बहुत सुधार नहीं आ पाया है। हालांकि जातीय समीकरणो और जातिगत स्थिति में एक बदलाव आया है कि ज़मीन पर सब बैठे हैं, सभी जाति के लोग। अगल-बगल।

हिंदू हों या मुसलमान, एक ही भाषा बोल रहे थे- मैथिली। मान्यता है कि मैथिली मिठासभरी भाषा है। इतनी मीठी कि बोलने वाले और मुमकिन है कि सुनने वाले को भी मधुमेह यानी डायबिटीज हो जाए। इस मिठास की भी एक वजह है। यहां के लोग खाने में मीठे पर ज्यादा जोर देते हैं।

हर बार खाने में मीठेपन-गुड़ या चीनी ही क्यों न हो-का होना एक अपरिहार्य बात है। चूड़ा-दही-चीनी और गरमियों में उसके साथ आम जैसा फल भी यहां की फूड हैबिट है।

वह टहलता हुआ बाहर निकल आया। पान की दुकान तक। बेहद अस्त-व्यस्त सड़क। सड़क पर तरह-तरह की गाड़ियां। नहीं , महानगरों की तरह की किसिम-किसिम की कारें नहीं, बल्कि रिक्शे से लेकर साइकिलों तक, ठेलेगाड़ियों से लेकर मिनी बसें, बैलगाडि़यां, तांगे... ऐसी ही अर्ध-क़स्बाई और गंवई गाडि़यां। चिल्ल-पों। सबको जाने की जल्दी।

वह एक चाय की दुकान पर ठिठक गया। उसने पहले तो चाय और सिरगेट की डिब्बी मांगी। गोल्ड फ्लेक। चाय आई .. खूब उबली हुई महुआ दूध की।

...जारी

2 comments:

  1. मैथिली की मिठास सम्मोहित कर लेती है।

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