Thursday, June 21, 2012

सुनो मृगांका:14: मैं कभी न मुस्कुराता, जो मुझे ये इल्म होता...

मैं कभी न मुस्कुराता जो मुझे ये इल्म होता कि हजारों ग़म मिलेंगे। मेहदी हसन की गाई इन पंक्तियों को याद करता हुआ अभिजीत प्लेटफॉर्म पर बैठा रहा। दारू धीरे-धीरे असर कर रही थी।

सुबह जब उसकी नींद खुली तो गाड़ी जमुई पार कर चुकी थी। माटी का रंग धीरे-धीरे गहरा होता जा रहा था...भूरेपन से पीले पन की ओर और फिर मिट्टी का रंग खूनी लाल हो गया। अभिजीत ने आंखें मलते हुए देखा...किसके दिल का खून है ये।

झाझा स्टेशन से पहले से ही दुनिया की सबसे खराब चाय की रट लगाता हुआ वही चाय वाला आ गया। अभिजीत इस आवाज़ को बचपन से पहचानता है...अब उस चाय वाले की उमर भी ढल गई है। कहता है कि वह सबसे खराब चाय बेचता है लेकिन दरअस्ल उसकी चाय होती बेहतरीन है।

टी-बैग वाली चाय पी-पीकर ऊब चुके अभिजीत को मिट्टी के कुल्हड़ में चाय पीने की जोर की इच्छा हुई। चाय ढलते ही कुल्हड़ सोंधी खुशूबू से भर गया। ओह...मिट्टी की खुशबू। रास्ते में झालमुड़ी, चिनियाबादाम (मूंगफली) और तमाम किस्म के सामान बिकने आए। झाझा स्टेशन का तीखा-चरपरा आलू दम तो बहुत मशहूर है।

झाझा से गाड़ी चली तो कागज के दोने में चना-मसाला खाते हुए अभिजीत ने खिड़की की ओर देखा। तीखी धूप में दोनों तरफ घाटियों में पलाश के फूल खिले हैं। झाझा से आगे जसीडीह कर रेल लाईन तीखी चढ़ाई चढ़ती है, अभिजीत की खुद की जिंदगी की तरह। रेलवे पटरी के दोनों तरफ घने जंगल हैं...और गहरी घाटियां हैं।

गहरी घाटियों की वजह से नजर दूर तलक चली जाती हैं। टेसू या कहें पलाश के सारे पत्ते इस वक्त गिर जाते हैं और उसकी काली-गहरी शाखाओं पर सिर्फ लाल-पीले फूल नजर आते हैं। लगता है जंगल में आग लग गई हो।

दिल की आग को जंगल की आग में बदलते देखना...उफ़्...मृगांका मैंने तुमसे वायदा किया था कि मैं कभी तुम्हें पलाशों के इस दहकते जंगल का नजारा कभी दिखाऊंगा जरूर।

लेकिन किए गए वायदे कभी पूरे नहीं होते। अभिजीत की जिंदगी में पता नहीं मृगांका वापस आए भी या नहीं...और कभी आना भी चाहे तो अभिजीत जानता है...छह या सात महीने। ज्यादा वक्त नहीं अभिजीत के पास।

अभिजीत की निगाहें उस जंगल पर जम सी गईं। लगा सारा जंगल पीछे को भाग रहा है...और ट्रेन स्थिर है। पेट में तेज़ दर्द...उफ़ ये दर्द। अभिजीत ने कुछ ठान लिया था मन में। सिर्फ मृगांका की याद में देवदासत्व ओढ़ने से काम नहीं चलेगा।

प्रेम में घुटते रहने से क्या होगा। कुछ ऐसा किया जाए कि मृगांका को उस पर गर्व हो...उसके नहीं रहने पर भी, और मृगांका चाहे दुनिया के किसी भी कोने में हो। उसे लग रहा था कि मृगांका चाहे उसे अब प्यार करती हो न हो...लेकिन वह कहीं न कहीं से उसे देख जरूर रही होगी। चाहे जहां रहे खुश रहे वो, अभिजीत यही तो चाहता था। उसका पेट दर्द बढ़ता ही जा रहा था...कुछ इस कदर की उसकी आँखें खुद ब खुद मुंदती चली गईँ।

लगा चारों तरफ अंधेरा छा गया हो।

दिल्ली, अभिजीत का घर, अतीत का कोई दिन

काफी इसरार करने के बाद जब अभिजीत मृगांका को अपना घर दिखाने को राजी हुआ तो उस दिन बेहद तेज बारिश हो रही थी। बादल लगता था सारे के सारे , आज ही बरस लेंगे। अभिजीत एनसीआर के यूपी वाले हिस्से में रहता था और वहां बिजली का आना उत्सव का कारण बनता था।

अभिजीत ने दरवाज़ा खोला तो पहले तो मृगांका को बाहर ही रोक दिया। घर का कोई भी सामान अपने सही जगह पर नहीं था। जुराबें बिस्तर पर, बिस्तर पर अखबारों के ढेर...जूते टीवी टेबल के ठीक सामने...डीवीडी प्लेयर पर रखा कंघा...प्रिज पर चाय के तमाम जूठे कप...बस किताबों की आलमारी सजी थी।

घर के हर कोने में सिगरेट के टोटे फिंके पड़े थे। मृगांका मुस्कुरा उठी। ऐसे रहते हो...?

अरे नहीं, कामवाली नहीं आई बहुत दिनों से न...अभिजीत सिर खुजलाने लगा। प्रशांत उसके साथ ही रहता था..उसी के फ्लैट में। लेकिन दस दिनों से वो भी नहीं था।

मृगांका ने गहरा नीला कुरता पहना था जिसपर सुनहरे त्रिकोण के डिजाइन बने थे। उसे पता है अभिजीत को उसकी ये ड्रेस बहुत पसंद है। साथ में हल्के पीले रंग का दुपट्टा। हमेशा की तरह मृगांका होठ दबाकर मुस्कुराई।

दस मिनट के अंदर कमरे में झाड़ू-पोंछा लग गया। अखबारों को सहेज दिया गया। कूड़ेदाने के लायक चीजें कूड़ेदान में पहुंच गईं। चाय बनकर अभिजीत के सामने थी। एश ट्रे चमचमा गई थी। कोने में सजाकर रखी गईं ह्विस्की और बीयर की बोतलों को भी एक कार्टन में बंद कर बालकनी में रख दिया गया।

मृगांका ने देखा, और कुछ हो न हो, अभिजीत ने पौधे ढेर सारे लगा रखे थे--"तुम्हें पेड़-पौधों से बहुत लगाव है?"
"हां, पेड़ पौधे कभी दगा नहीं देते...इनको रूपयों-पैसों का भी लालच नहीं।"---मृगांका उसका मुंह देखती रह गई।

अभिजीत का मुंह कसैला हो गया था।

उस रोज़ मृगांका ने अभिजीत के लिए रात का खाना बना दिया। अभिजीत कुछ लिख रहा था और मृगांका से उसने बैठे-बैठे ही पूछा था, मेरा ये छोटा घर पसंद आया तुम्हें। तुम तो उतने बड़े हवेली जैसे मकान में रहती हो...यहां दो कमरों के फ्लैट में कैसे रह पाओगी। न खुली हवा, न लॉन...न बड़ी डिजाइनर रसोई...

मृगांका आकर उसके पास बैठ गई, तुम रहोगे न यहां...मेरे साथ? बस इतने में ही मृगांका ने बहुत कुछ कह दिया था।

पैसा सब कुछ नहीं होता अभिजीत। वह जीने के लिए जरूरी है, लेकिन वह नंबर एक पर नहीं है प्राथमिकताओं की सूची में। जीने के लिए जिंदगी चाहिए...और मेरे लिए जिंदगी हो तुम। हम दोनों मिलकर इतनातो कमा ही लेंगे कि ठीक-ठाक गुजर बसर कर लेंगे।

...और तुम्हारे पापा मम्मी?

वो लोग तुम्हें पसंद करते हैं।

कैसे, कब उन्होंने तो मुझे देखा तक नहीं।

तुम भी न भोले शंकर हो अभि। ये जमाना कहां से कहां पहुंच गया और तुम अब भी टाइपराइटर बने हुए हो। फेसबुक पर तुम्हारी फोटो मैंने घर में सबको दिखा दी है। और अखबार में तुम्हारे साप्ताहिक कॉलम के तो सारे कटिंग पापा और मम्मी पढ़ चुके हैं।

अभिजीत चकित रह गया। उसे हैरत हो रही थी कि उसकी जिंदगी में भी स्वीकार्यता के ऐसे बेशकीमती क्षण आएंगे, जहां उसके लिखे हुए शब्द उसकी पहचान बन जाएंगे। जहां, उसे इस तरह से प्यार मिलेगा वो भी मुलायमियत के साथ....ग़ोकि उसकी जिंदगी में मुलायम लम्हे कम ही आए थे अब तक।

अभिजीत के चेहरे पर एक मुस्कुराहट खेल गई। मृगांका ने जाते-जाते एक हल्का सा किस किया था उसके माथे पर। लगा जैसे उसकी जीवन भर की साध पूरी हो गई।

उस नरम चुंबन की छाप अब तक है अभिजीत के माथे पर। वह मखमली अहसास...वो प्यार का गुनगुनापन। इसमें कुछ वैसी ही मासूमियत थी जैसे किसी बच्चे के माथे पर कोई हल्का सा प्यारा सा चुम्मा लेता है।



क्रमशः


5 comments:

  1. अभिजीत के लिए यादें जीने की उम्मीद है.......और मृंगाका के लिए....... प्रेम का इतना बारीक विश्लेषण.......बेहतरीन है...

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  2. इस कहानी का अंत न जाने क्या हो, एक अजीब उथल पुथल मच गई आगे पढ़ने की जिज्ञासा बढ़ गई. बहुत कोमल और सुन्दर चित्रण, शुभकामनाएँ.

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  3. कहानी में एक बहाव है और एक ठहराव भी । आगे क्या हुआ मृगांका अभिजीत के प्रेम कहानी का । खाली यादें या और कुछ भी ।

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  4. बहुत खूब। अभीजित और मृगांका के प्रेम को आपनी बेहद जहीनी तौर पर परिभाषित किया है। कहानी में गतिशीलता है, रोमांच है, ड्रामा भी है। उम्‍मीद है यह कायम रहेगा।

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