दाढ़ी केवल फिजिक्स-केमेस्ट्री-बॉयोलॉजी नही , हिस्ट्री-पॉलिटिक्स-सोशियो भी है...
बचपन में हीर-रांझा देखी थी , बेतरतीब-भगंदर टाइप दाढ़ी में राजकुमार जंगल झाड़ सूंघते-सर्च करते दिख रहे थे। लगा दाढ़ी प्रेम का पागलपन है। बैकग्राउंड से ह्रदय छीलती दर्दीली ध्वनि अविरल झरझरा रही था – “ये दुनिया , ये महफिल मेरे काम की नही… “। फिर कुछ दिनों बाद लैला-मंजनू देखी , चॉकलेटी रिषी कपूर सफाचट का इंतजार करते थक चु...की दाढ़ी ओढ़े पत्थर झेल रहे थे। रंजीता के लाख मनुहार के बावजूद पत्थर थे कि उछलते ही जा रहे थे , रंजीता की दर्द भरी आवाज अगल-बगल छोड़ काल और चौहद्दी से परे ऑडिएंस को भावुक किए जा रही थी – “कोई पत्थर से न मारे मेरे दीवाने को”। अब शक के कीड़े को मानो रिवाइटल का डोज मिल गया , विचार पुख्ता हो गया –दाढ़ी प्रेम की परिणति-परिणाम है।
कुछ साल पहले एक मित्र से मुलाकात हुई , करीब साल भर बाद। हमलोग बीते साल के अनुभव गाहे-बेगाहे उछाल रहे थे। वो एलएसआर पढ़ाने के सिलसिले में गया था … और गंवई भाषा में कहे तो छौरा-छपाटा समझ कर चलता कर दिया गया। एंट्री में ही तमाम पापड़ों से पाल पड़ गया उसका। कन्याओं की तो छोड़िए , गार्ड से भी तव्वजो न मिली। अनुभवियों और पके-पकाये , तपे-तपायों से प्रीसक्रिप्शन मिला- 1.मोटे फ्रेम का चश्मा 2. बढ़ी हुई दाढ़ी । दाढ़ी उसके लिए छात्र से शिक्षक के सफर का संवाद-तन्तु साबित हुई । अब रिस्पेक्टपुल हो गया है , इंटेल दिखने लगा है , था तो खैर बचपन से ही। लगा दाढ़ी मजबूरी है।
बीएचयू में पढ़ाई के दौरान एक शख्स से मुलाकात हुई- जहीन, नवीन , आधुनिक ... कमी केवल एक ही। सुबह से लेकर शाम-रात तक चांद हर समय उसके सर पर घोंसला बनाए मिलती। महोदय हर अगली सुबह दाढ़ी के नए ज्यामितिय रुप के साथ अवतरित होते – त्रिभुजाकार , वृत्ताकार , अर्धवृताकर ... दाढ़ी मुझे `अभाव के बीच मेरे प्रयोग` टाइटल आत्म-संस्मरण की विषयवस्तु सी लगी।
डीयू में अध्ययनरत था तो रिसर्च मेथोडोलॉजी की योगेंद्र यादवीय पड़ताल का ज्ञान लेने साऊथ कैंपस जाना हुआ। उन्होंने एक बात बतायी जो कमोबेश `ऑल दैट ग्लीटर्स इज नॉट गोल्ड` के उलट टाइप लगी। बातों-बातों में उन्होंने एक बात बतायी कि बढ़ी हुई दाढ़ी और झोला लटकाए पाए जाने सज्जनों की अच्छी-खासी संख्या लेफ्टिस्ट लीनिंग वाली होती है। दाढ़ी मुझे विचारधारा का आकार लेती नजर आयी।
आजकल मुझे रोजाना फ्रेंचकटीय फुफेरे भाई से दो-चार होना पड़ता है। मेरा फ्लैट पार्टनर भी है। खांटी देहात से आईआईटी के बीच इसकी दाढ़ी ने भी न जाने कितने आकार बदले। दाढ़ी मुझे ग्रोथ की अनेकानेक भाव-भंगिमाओं में से एक लगी।
सच कहूं तो दाढ़ी मुझे किसी बहुरुपिए से कमतर नही लगता। दाढ़ी धर्म भी है , दाढ़ी समाज भी है , दाढ़ी कम्यूनल भी है , दाढ़ी सेक्यूलर भी है । पता नही क्यों लेकिन मैं अक्सर पाता हूं कि सिखों और हिंदू टाइप दाढ़ी तो पुलिस-सेना में `लोगों` की नजरें एडजस्ट कर लेती है , लेकिन मुसलमानों टाइप दाढ़ी पर यही नजरें सवाल करती नजर आती है।
अन्त में यही कहूंगा कि दाढ़ी विज्ञान ही नही समाजविज्ञान की विषय-वस्तु भी है। ये सरकारी और निजी ऑफिसो , लॉनों , गार्डनों में उग आया घास नही , जिस पर माली हर सुबह-शाम कतर-ब्यौंत करता है , यह जीवनधारा भी है।
बचपन में हीर-रांझा देखी थी , बेतरतीब-भगंदर टाइप दाढ़ी में राजकुमार जंगल झाड़ सूंघते-सर्च करते दिख रहे थे। लगा दाढ़ी प्रेम का पागलपन है। बैकग्राउंड से ह्रदय छीलती दर्दीली ध्वनि अविरल झरझरा रही था – “ये दुनिया , ये महफिल मेरे काम की नही… “। फिर कुछ दिनों बाद लैला-मंजनू देखी , चॉकलेटी रिषी कपूर सफाचट का इंतजार करते थक चु...की दाढ़ी ओढ़े पत्थर झेल रहे थे। रंजीता के लाख मनुहार के बावजूद पत्थर थे कि उछलते ही जा रहे थे , रंजीता की दर्द भरी आवाज अगल-बगल छोड़ काल और चौहद्दी से परे ऑडिएंस को भावुक किए जा रही थी – “कोई पत्थर से न मारे मेरे दीवाने को”। अब शक के कीड़े को मानो रिवाइटल का डोज मिल गया , विचार पुख्ता हो गया –दाढ़ी प्रेम की परिणति-परिणाम है।
कुछ साल पहले एक मित्र से मुलाकात हुई , करीब साल भर बाद। हमलोग बीते साल के अनुभव गाहे-बेगाहे उछाल रहे थे। वो एलएसआर पढ़ाने के सिलसिले में गया था … और गंवई भाषा में कहे तो छौरा-छपाटा समझ कर चलता कर दिया गया। एंट्री में ही तमाम पापड़ों से पाल पड़ गया उसका। कन्याओं की तो छोड़िए , गार्ड से भी तव्वजो न मिली। अनुभवियों और पके-पकाये , तपे-तपायों से प्रीसक्रिप्शन मिला- 1.मोटे फ्रेम का चश्मा 2. बढ़ी हुई दाढ़ी । दाढ़ी उसके लिए छात्र से शिक्षक के सफर का संवाद-तन्तु साबित हुई । अब रिस्पेक्टपुल हो गया है , इंटेल दिखने लगा है , था तो खैर बचपन से ही। लगा दाढ़ी मजबूरी है।
बीएचयू में पढ़ाई के दौरान एक शख्स से मुलाकात हुई- जहीन, नवीन , आधुनिक ... कमी केवल एक ही। सुबह से लेकर शाम-रात तक चांद हर समय उसके सर पर घोंसला बनाए मिलती। महोदय हर अगली सुबह दाढ़ी के नए ज्यामितिय रुप के साथ अवतरित होते – त्रिभुजाकार , वृत्ताकार , अर्धवृताकर ... दाढ़ी मुझे `अभाव के बीच मेरे प्रयोग` टाइटल आत्म-संस्मरण की विषयवस्तु सी लगी।
डीयू में अध्ययनरत था तो रिसर्च मेथोडोलॉजी की योगेंद्र यादवीय पड़ताल का ज्ञान लेने साऊथ कैंपस जाना हुआ। उन्होंने एक बात बतायी जो कमोबेश `ऑल दैट ग्लीटर्स इज नॉट गोल्ड` के उलट टाइप लगी। बातों-बातों में उन्होंने एक बात बतायी कि बढ़ी हुई दाढ़ी और झोला लटकाए पाए जाने सज्जनों की अच्छी-खासी संख्या लेफ्टिस्ट लीनिंग वाली होती है। दाढ़ी मुझे विचारधारा का आकार लेती नजर आयी।
आजकल मुझे रोजाना फ्रेंचकटीय फुफेरे भाई से दो-चार होना पड़ता है। मेरा फ्लैट पार्टनर भी है। खांटी देहात से आईआईटी के बीच इसकी दाढ़ी ने भी न जाने कितने आकार बदले। दाढ़ी मुझे ग्रोथ की अनेकानेक भाव-भंगिमाओं में से एक लगी।
सच कहूं तो दाढ़ी मुझे किसी बहुरुपिए से कमतर नही लगता। दाढ़ी धर्म भी है , दाढ़ी समाज भी है , दाढ़ी कम्यूनल भी है , दाढ़ी सेक्यूलर भी है । पता नही क्यों लेकिन मैं अक्सर पाता हूं कि सिखों और हिंदू टाइप दाढ़ी तो पुलिस-सेना में `लोगों` की नजरें एडजस्ट कर लेती है , लेकिन मुसलमानों टाइप दाढ़ी पर यही नजरें सवाल करती नजर आती है।
अन्त में यही कहूंगा कि दाढ़ी विज्ञान ही नही समाजविज्ञान की विषय-वस्तु भी है। ये सरकारी और निजी ऑफिसो , लॉनों , गार्डनों में उग आया घास नही , जिस पर माली हर सुबह-शाम कतर-ब्यौंत करता है , यह जीवनधारा भी है।
स्वयं पर ध्यान देने का समय न होने की अवस्था...
ReplyDelete