Monday, June 4, 2012

राउडी राठौड़ः खालिस मनोरंजन, नो दिमाग़

फिल्म के बारे में कुछ लिखने से पहले आपको वैधानिक चेतावनी देना जरूरी हैः इस फिल्म को देखते वक्त दिमाग को घर पर ही छोड़ कर आएं, और तभी आप इस फिल्म का मज़ा ले पाएंगे।

राउडी राठौड़ खालिस फॉर्म्युला फिल्म है। सबसे बेहतर बात की आप प्रभु देवा से अनुराग कश्यप या हबीब फैसल जैसी उम्मीद लगा कर जाते भी नहीं है। फिल्म खालिस मनोरंजन की अपील करती है और कई हद तक उसे पूरा भी करती है।

फिल्म की कहानी में कुछ भी नया नहीं है।  शिवा यानी चोर बने अक्षय कुमार की कारस्तानियां भी कई फिल्मों का बासी कूड़ा लगता है। लेकिन फिल्म में उन लोगों के लिए बहुत कुछ है जो फिल्मों से कुछ उम्मीदें लगाकर नहीं जाते। यह रेडी, दबंग, बॉडीगार्ड और सिंह इज किंग के कतार की फिल्म है।

फिल्म शुरु होती है एक चोर की कारस्तानियों और पटना से आई एक लड़की से उसके प्रेम के शुरु होने से। जब अक्षय कुमार फिल्म में सोनाक्षी सिन्हा से इश्क़ कर रहे होते हैं तब तक परदा बहुत सुहाना लगता है।

अक्षय कुमार की लगातार पिट रही फिल्मों के दौर से भी यही फिल्म सुहाना अहसास दिलवाएगी। कम से कम अक्षय इसमें अपने खिलाड़ी और एक्शन इमेज की झलक तो देते हैं। इस फिल्म की कॉमिडी में भी वो अपनी ही किसी पुरानी फिल्म का दोहराव भी नहीं लगते।

लेकिन देखा जाए तो पूरी फिल्म बॉलिवुड स्टीरियोटाइप से भरी पड़ी है, जिसमें गुंडो की अनंत फौज है। हालांकि फिल्म में गोलियां बहुत कम चलाई गई हैं, लेकिन असीम मारकाट है। एक अतिरेकी शक्तियों के स्वामी की तरह अपने दो अवतारों में (अक्षय का डबल रोल है) अक्षय लगभग अठारह अक्षौहिणी सेना का वध कर डालते हैं।

फिल्म का खलनायक पक्ष बेहद कमजोर है। घटनाएं पटना के आसपास के किसी देवगढ़ की रची गईं हैं। कोई भी दृश्य कहीं से भी बिहार का नहीं लगता। खलनायक बिहारी हैं,लेकिन निर्देशक के फैसले के मुताबिक बोलते समय लार टपकाने और प्राय- थूकते रहने वाले मुख्य खलनायक (नासिर) जब मुंह खोलते हैं तो दक्षिण भारतीय लगते हैं। बाकी के खलनायक मुंह नहीं खोलते। वे या तो स्त्रियों के साथ बलात्कार या हीरो के साथ मारकाट में रत रहते हैं।


अक्षय कुमार ने पूरी फिल्म अपने कंधों पर ढोई है। एक हद तक वो इसमें कामयाब भी रहे हैं। पीठ दर्द से परेशान रहे अक्षय को फिर से राउंड किक लगाते देखना पुराने दिनों की याद की ताजा करने जैसा है।

फिल्म बहुत लाउड है। इसका संगीत सामान्य है। और एक दो गाने जो पहले ही लोकप्रिय हो गए हैं, बाकी के गाने बेदम हैं। यहां तक आइटम सॉन्ग भी शोरगुल से ज्यादा कुछ नहीं है, जिसमें कॉरियोग्रफर ने जरूरत से ज्यादा भीड़ इकट्ठी कर ली है।

फिल्म पहले ही हिट हो चुकी है, लेकिन छोटे सेंटर्स पर इसे दर्शकों की तालियां और सीटियां दोनों मिलेंगी। फौलाद की औलाद, मैं जो कहता हूं वो करता हूं और जो नहीं कहता वो तो डेफिनेटली करता हूं जैसे संवाद तालीबटोरू हैं।

लेकिन फिल्म की सबसे खूबसूरत बात, सोनाक्षी सिन्हा रहीं। उनका रोल महज तीन या चार रीलों में सिमटा है जहां वो अक्षय के साथ गाने गाती हैं और रोमांस-सा कुछ करती हैं। कैमरे की तरफ लुक देती हैं, मुस्कुराती हैं। सोनाक्षी उन फिल्मों में ज्यादा जमेंगी जहां अभिनय करने की कोई खास जरूरत न हो। मसलन, दबंग और राउडी राठौड़।

वैसे, कटरीना के कंटीले सौन्दर्य के मुकाबले यह बिहारी बाला भी खूबसूरती के पैमान गढ़ती है। दबंग में हम उनके मस्त-मस्त नैन देख चुके हैं। इस फिल्म में उनकी मादक कमर को निशाना बनाया गया है। कई बार पूरा कैमरा ज़ूम होकर उनकी कमर पर टिक जाता है। खासी मादक कमर है।

फिल्म में अक्षय ने जबर्दस्त मूंछें रखी हैं। मूंछे मरोड़ते हुए कई दफा वे अपना नाम विक्रम राठौड़ दोहराते हैं। यह अदा भाती है, लेकिन बारिश के वक्त एक्शन के एक दृश्य में मूंछे मरोड़ते वक्त साफ हो जाता है कि मूंछें नकली हैं। मेकअप मैन की इस नाकामी को और संपादक की इस गलती को स्वीकार नहीं किया जा सकता। इस दृश्य को डीवीडी में कई दफा देखें तो साफ हो जाएगा।

फिल्म का एक्शन जबर्दस्त है। यही फिल्म की यूएसपी भी है। तो अगर आप फिल्म देखने जाएँ और अपने जॉनर की इस ईमानदार फिल्म को देखें (क्योंकि कहीं से भी यह फिल्म कला पक्ष या कथा तत्व का दावा नहीं करती) तो कृपया दिमाग़ का इस्तेमाल न करें।


3 comments:

  1. बिना दिमाग के ही फिल्म देखना अच्छा लगता है..

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