Tuesday, June 5, 2012

सुनो मृगांकाः फ़ना

प्लास्टिक के बोरों पर जमी दुकानों में केरोसिन की कुप्पियां जल गईँ। चने के सागवाली के सारे साग बिक गए थे, वह बोरे समेटकर दुकान बढ़ाने की सोच रही थी। उसकी दुकान के ठीक बग़ल में एक मछलीवाली बैठी थी। बोरे पर ही पसरी मछलियां..हरकतहीन.. जीवन का कोई लक्षण शेष नहीं।

अभिजीत मछलीवाली की दुकान के पास आकर ठिठक गया। बोरे पर आधा किलो-तीन पाव के करीब रोहू, थोड़ी झींगा, दस-बारह गरई और उतनी ही गैंची बची रह गईं थीं। थोड़े से घोंघे भी थे। कुल मिलाकर आधे घंटे में साफ हो जाने लायक माल।
उस का ध्यान थोड़ा भंग हुआ। मलाहिन उसी को लक्ष्य करके कुछ पूछ रही थी- का बाउजी, का खरीदेंगे..थोडे गरई-गैंची बचे हैं..तौल दें का ?...गिरहथनी (गृहस्थिन, घरवाली) खुश हो जाएंगी। झोल-भात खा लीजिएगा... अभिजीत बहुत देर बाद मुस्कुरा उठा।

..
गृहस्थिन शब्द को अभिजीत ने बहुत देर तक चबाया। मुस्कुरा उठा वह। कौन है उसकी गृहस्थिन...मृगांका..इस जन्म में तो नहीं मिलेगी वो तो।

... तो इहां काहे के लिए खड़े थे...मलाहिन भी हिंदी सुनकर हिंदी पर उतर आई।
ऐसे हीबस अड्डे तक जाना है, लेकिन पता नहीं किधर से जाऊं..
...
चलिए, हमको भी उधर ही जाना है, आपको बस ही पकड़ना है या कुछ और काम है…?”

नहीं, नहीं, बस ही पकड़नी है।
तो ठीक है, बस अड्डा की बजाय आप मेरे साथ बेला मोड़ तक चलिए..बस वहीं मिल जाएगी.. कहां जाना है वैसे..

..मधुबनी..
हां, मधुबनी के लिए बस मिल जाएगा आपको वहां से.. हर बस वहां जरूर रुकता है।..बस जरा दुकान बढा लें..

मलाहिन ने जल्दी-जल्दी बोरियां समेटकर टोकरी में ढिबरी, बोरियां और मछलियां डाल लीं, और चल पड़ी।...साहिब, आइ-काइल काम नै भेटई हई…(साहब आज-कल काम नहीं मिलता)...उसने अपनी हथेलियां रगडीं... अभिजीत अपनी सोच में डूबा रहा..।

गरम हवा के झोंके ने उसकी सोच को ज्यादा स्थिर नहीं रहने दिया। उसने एक सिगरेट सुलगा ली। थोड़ी देर चुप्पी छाई रही। और चुप्पी उस अभिजीत को ज्यादा खल रही थी। मौन उसी ने तोडा़।

अभिजीत ने बड़े गौर से उसे देखा। बहुत कम रौशनी के बावजूद वह मलाहिन गहरे रंग की थी यह दिख गया उसे। उसे लगा कि इस मलाहिन को कहीं देखा है..लेकिन कहां...?
तुम्हारा नाम क्या है...?
मृगांका...!!

उसे हर जगह मृगांका दिखती है। उसे हर कोई मृगांका-सी क्यों दिखती है। उन दिनों जब वह मृगांका से बात भी नहीं कर पाया था। एक दोपहर स्टोरी पर निकलने से पहले उसने पूरे न्यूज़ रूम में देखा था। मृगांका कहीं नहीं दिखी थी।

निराश होकर वह निकल पड़ा था। पता नहीं कहां है मृगांका। आई क्यों नहीं आज। उसे ऐसे ही खाली-खाली नजरों से घूरते देख उसकी मुंहबोली बहन ने कह दिया क्या भैया, नहीं आई है आज?

वह झेंप-सा गया था। बहन चेहरा पढ़ना जानती है। खासकर, अभिजीत का चेहरा फटाक-देनी से पढ़ लेती है।

उन दिनों वह मजदूरों पर एक स्टोरी कर रहा था। प्रवासी मजदूरों पर। दोपहर का सूरज सिर पर चमक रहा था। आनंद विहार के पास  गंधाते हुए नाले  के किनारे अस्वास्थ्यकर इलाके में बने झोंपड़े। ज्यादातर लोग रेहड़ी लगाने वाले।

अचानक उसे लगा मृगांका वहीं है। पास जाकर देखा था तो पता चला, मृगांका सारे बच्चों को इकट्ठा कर रही है। उसके साथ आया फोटोग्राफर हैरान-परेशान सा खड़ा था। अपने डिजाइनर गमछे से पेशानी पर चुहचुहा आए पसीने पोंछते हुए रवि (फोटोग्रफर) ने बताया कि दिल्ली की झुग्गियों में एजुकेशन की एक स्टोरी करने आई हैं मैडम। स्टोरी हो चुकी है। पिछले एक घंटे से सारे बच्चों को इकट्ठा करके पता नहीं क्या-क्या बातें कर रही हैं।

एक आदमी प्रसन्नवदन खड़ा था। जिन बच्चों से मृगांका बातें करने में मशगूल थी, उन्हीं में से एक का बाप। उनकी माएं भी वहीं थीं। चेहरे पर एक मुस्कुराहट के साथ।

मृगांका...अभिजीत ने देखा। पीले दुपट्टे को बेतरतीबी से कमर में खोंसे। नीले रंग का सूट। सारे बच्चों से पूछ रही है पढोगे ना। सारे बच्चे सहमति में सिर हिला रहे हैं। एक छोटी-सी लड़की...जिसकी नाक बह रही है। मृगांका के पास आकर खड़ी है..धीरे से उसे खींचकर मृगांका गोद में बिठा लेती है।

अभिजीत को बच्चों से प्यार नहीं है। लेकिन, उसे मृगांका को देखकर लगा कि यह लड़की महज प्यार करने लायक नहीं है। इसके लिए तो दिल में सम्मान और श्रद्धा उमड़ रही है। ओह, जिदंगी भर मृगांका की ताबेदारी कर सकता है वो।

झोंपडी के दरवाजे की जगह टाट का परदा पड़ा था। एक घर से स्टील के बहुत पुराने से कप में चाय आ गई। मृगांका धीरे से मुस्कुराती है...नहीं मैं चाय नही पीती।

अरे मैडम कप को बहुत अच्छे से रगड़ कर धोया है। बच्चे का पिता इसरार करता है, 'मैडम पी लीजिए ना...अच्छा लगेगा।'
'अरे नहीं, भैया, मैं सच में चाय नहीं पीती। वो जो सामने खड़े हैं ना...हमारे सीनियर हैं। उनको चाय बहुत अच्छी लगती है। उनको दीजिए।'-- मृगांका फिर से मुस्कुराती है।
'लेकिन अगर आप को लगता है कि चाय आपके यहां की है इसलिए मैं नहीं पी रही तो ये बात नहीं। मुझे एक प्लेट में थोड़ी-सी चाय दे दीजिए।'

अभिजीत हैरत में पड़ गया। रवि और अभिजीत के पास चाय पहुंच गई। एक रकाबी में मृगांका चाय पीने लगी।

चाय खत्म हुई तो मृगांका वहां तक पहुंची, जहां बिजली के एक खंभे से टेक लगाकर अभिजीत खड़ा था। 'हैलो सर, इधर कैसे...?'

'बस स्टोरी के लिए ही...'
आप हमारे साथ चलेंगे क्या दफ्तर तक...? जवाब में अभिजीत ने टुकड़ों-टुकड़ों में बताया कि वह अपनी बाईक से आया है। रवि ने हैरान होकर देखा..अभिजीत ऐसा तो न था। बोलते वक्त ऐसे तो कभी हकलाता नहीं था कभी अभिजीत। आज...रवि के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई।

अच्छा, आपको...मेरा मतलब है तुमको... कैसे पता चला कि मैं आय़ा हूं?

मृगांका मुस्कुरा उठी।

.ये सोचना गलत है कि तेरी खबर नहीं.....मसरूफ़ हम बहुत हैं मगर बेखबर नहीं...मृगांका फिर से मुस्कुराती हुई गाड़ी में बैठ गई। सारे बच्चे उसे टाटा करने गाड़ी तक चले गए।

अभिजीत ठगा-सा देखता रहा। आज सेलिब्रेट करने का दिन है। उसने प्रशांत को फोन मिलाया...बॉस आज ब्लेंडर्स प्राइड का खंभा ले आना। मृगांका की गाड़ी निकल गई थी...उसने देखा, मृगांका पलटकर उसे ही देख रही है।


क्रमशः

4 comments:

  1. जब दिलो दिमाग पर छाई छवि सामने आकर कुछ पूछ बैठे तो हकलाना तो लाज़मी है...

    अच्छी चल रही है..कहानी....

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  2. मृगांका के सपनों में खोए हुए अभिजीत की मनोदशा मन को बेहद व्याकुल करती है.....दरअसल यह प्रेम ही है जो समय, स्थान और काल का भेद भूला देता है...जहां भी रहो जहां भी चलो प्रेम साथ चलता है और तो और हर किसी में प्रेम ही नजर आता है.....अभिजीत की तरह....मलाहिन आज उसे मृगांका दिख रही है....उत्तम कहानी....

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  3. .ये सोचना गलत है कि तेरी खबर नहीं.....मसरूफ़ हम बहुत हैं मगर बेखबर नहीं...


    वाह,

    कहानी है या हक्कीकत .. नहीं कह सकते,

    बढिया है. पढ़ते चले जाओ.

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  4. बाबा, फिलहाल तो कहानी मान कर पढ़ते चलें। पहली पोस्ट में डिस्क्लेमर है कि इस कथा की सारी घटनाएँ सत्य और कल्पना के बीच की हैं।

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