अभिजीत खिड़की से कूद कर आया था, उसने कहा था कहा चोरी से मिलने का मज़ा हमेशा मीठा होता है।
अचानक मृगांका को लगा कि उसकी गरदन के पीछे किसी ने हल्का किस किया है। एक दम हल्का। कुछ ऐसा ही स्पर्श था, जैसे अभिजीत करता था। वह लेटी ही रही। फिर अचानक हाथ सरकता हुआ उसके कमर के इर्द-गिर्द लिपट गया। वह चिहुंकी, वह पलटी तो देखा....
अरे, अभिजीत तुम?
अभिजीत की आंखों में शरारत नाच उठी थी। उसने देखा, मृगांका ने बहुत गहरे रंग की लिपस्टिक लगाई थी..लापरवाही से पहनी एक टी शर्ट...शायद हल्के पीले रंग का।
अभिजीत ने कहा, सरसों का फूल लग रही हो।
श्शशश....तुम्हारी मां आई है।
कहां
मेरी मां के कमरे में सो रही होंगी...या शायद गपें मार रही होंगी....लेकिन तुम्हें नहीं पता, अभि...मां तुमसे कितना प्यार करती हैं। तुमको हमेशा लगता रहा कि वो तुमसे प्यार नहीं करतीं...तुम हमेशा कहते रहे कि मां को अचार के मर्तबान मुझसे ज्यादा प्यारे हैं...तुम हमेशा अकेलेपन की शिकायत करते रहे...अभि...मां बहुत दुखी थीं...अभि...
और तुम मृग...
जवाब नहीं दिया मृगांका ने। बस फफक पड़ी।
कमरे में इस रुलाई से कोई भारी पन नहीं आय़ा था। मृगांका जारी रही, अभि, पता है तुम्हारे बिना मैं कितनी अधूरी थी। कहां चले गए थे, क्यों चले गए थे...तुमसे कभी कुछ नहीं कहा...तुमसे हमेशा कहा तुम अपनी तमाम अच्छाईयों और बुराईयों के साथ मेरे हो...फिर क्यों चले गए थे बिना बताए....
अभिजीत ने अपने दोनों हाथों में बस मृगांका का चेहरा पकड़ रखा था। मृगांका के गरम आंसू उसकी हथेलियों की कोर भिंगो रहे थे।
बाहर आसमान में चौदहवीं का चांद पूरे शबाब पर था। बादल का कोई आवारा टुकड़ा कहीं दूर तलक न था। साहिर लुधियानवी से लेकर गुलज़ार और जालेद अख्तर से लेकर सर्वेश्वरदयाल सक्सेना तक की,तमाम बड़े और शानदार कवियों की कविताएं एक साथ साकार हो रही थीं।
हवा में नमी थी। मौसम गरम था। अभिजीत के सीने को मृगांका भिगोए जा रही थी।
कमरे में बत्ती मद्धिम जल रही थी। मृगांका के घर के टैरेस पर कई पौधे थे, जिनको अभिजीत के कदमों की आहट की पहचान थी। हर पत्ते को अभिजीत को छुअन की याद थी। अभिजीत की आदत थी, किसी भी पेड़ के पत्तों को छूकर देखना, मृगांका के टैरेस की लता को, उसके हरेपन को अभिजीत की छुअन याद थी...।
दोनों टैरेस पर आ गए थे। तीन साल विरह के, तीन साल दूरियों के, शिकायतों के...कितना कुछ कहना है मृगांका को...कितनी सारी शिकायतें करनी है अभिजीत से...कितना पीटना है उसे उस तकिए से, जिससे मारने से वाकई बहुत चोट आती है। क्या करे मृगांका...रुठ जाए?
नहीं, कितना रोई है अभि के लिए, रूठेगी नहीं। तकिए से पीटेगी उसको...लाख मिन्नतें करे, इस वक्त चाय बनाकर नहीं देगी।
सुबह होते ही मां के सामने खड़ा कर देगी इसे...मां के सामने, जिनने कितने प्यार से सर फेरा था उसके सर पर। अभि के भाई-भाभी को भी अपने दल में कर लेगी, फिर देखेंगे अभिजीत को,....मृगांका न जाने क्या सोच रही थी। अभिजीत की बांहो का घेरा कसता जा रहा था।
...जारी
अचानक मृगांका को लगा कि उसकी गरदन के पीछे किसी ने हल्का किस किया है। एक दम हल्का। कुछ ऐसा ही स्पर्श था, जैसे अभिजीत करता था। वह लेटी ही रही। फिर अचानक हाथ सरकता हुआ उसके कमर के इर्द-गिर्द लिपट गया। वह चिहुंकी, वह पलटी तो देखा....
अरे, अभिजीत तुम?
अभिजीत की आंखों में शरारत नाच उठी थी। उसने देखा, मृगांका ने बहुत गहरे रंग की लिपस्टिक लगाई थी..लापरवाही से पहनी एक टी शर्ट...शायद हल्के पीले रंग का।
अभिजीत ने कहा, सरसों का फूल लग रही हो।
श्शशश....तुम्हारी मां आई है।
कहां
मेरी मां के कमरे में सो रही होंगी...या शायद गपें मार रही होंगी....लेकिन तुम्हें नहीं पता, अभि...मां तुमसे कितना प्यार करती हैं। तुमको हमेशा लगता रहा कि वो तुमसे प्यार नहीं करतीं...तुम हमेशा कहते रहे कि मां को अचार के मर्तबान मुझसे ज्यादा प्यारे हैं...तुम हमेशा अकेलेपन की शिकायत करते रहे...अभि...मां बहुत दुखी थीं...अभि...
और तुम मृग...
जवाब नहीं दिया मृगांका ने। बस फफक पड़ी।
कमरे में इस रुलाई से कोई भारी पन नहीं आय़ा था। मृगांका जारी रही, अभि, पता है तुम्हारे बिना मैं कितनी अधूरी थी। कहां चले गए थे, क्यों चले गए थे...तुमसे कभी कुछ नहीं कहा...तुमसे हमेशा कहा तुम अपनी तमाम अच्छाईयों और बुराईयों के साथ मेरे हो...फिर क्यों चले गए थे बिना बताए....
अभिजीत ने अपने दोनों हाथों में बस मृगांका का चेहरा पकड़ रखा था। मृगांका के गरम आंसू उसकी हथेलियों की कोर भिंगो रहे थे।
बाहर आसमान में चौदहवीं का चांद पूरे शबाब पर था। बादल का कोई आवारा टुकड़ा कहीं दूर तलक न था। साहिर लुधियानवी से लेकर गुलज़ार और जालेद अख्तर से लेकर सर्वेश्वरदयाल सक्सेना तक की,तमाम बड़े और शानदार कवियों की कविताएं एक साथ साकार हो रही थीं।
हवा में नमी थी। मौसम गरम था। अभिजीत के सीने को मृगांका भिगोए जा रही थी।
कमरे में बत्ती मद्धिम जल रही थी। मृगांका के घर के टैरेस पर कई पौधे थे, जिनको अभिजीत के कदमों की आहट की पहचान थी। हर पत्ते को अभिजीत को छुअन की याद थी। अभिजीत की आदत थी, किसी भी पेड़ के पत्तों को छूकर देखना, मृगांका के टैरेस की लता को, उसके हरेपन को अभिजीत की छुअन याद थी...।
दोनों टैरेस पर आ गए थे। तीन साल विरह के, तीन साल दूरियों के, शिकायतों के...कितना कुछ कहना है मृगांका को...कितनी सारी शिकायतें करनी है अभिजीत से...कितना पीटना है उसे उस तकिए से, जिससे मारने से वाकई बहुत चोट आती है। क्या करे मृगांका...रुठ जाए?
नहीं, कितना रोई है अभि के लिए, रूठेगी नहीं। तकिए से पीटेगी उसको...लाख मिन्नतें करे, इस वक्त चाय बनाकर नहीं देगी।
सुबह होते ही मां के सामने खड़ा कर देगी इसे...मां के सामने, जिनने कितने प्यार से सर फेरा था उसके सर पर। अभि के भाई-भाभी को भी अपने दल में कर लेगी, फिर देखेंगे अभिजीत को,....मृगांका न जाने क्या सोच रही थी। अभिजीत की बांहो का घेरा कसता जा रहा था।
...जारी
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (1-12-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
ReplyDeleteसूचनार्थ!
अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी ...
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