Monday, September 29, 2014

ब्लॉगिंग के सात साल

सात साल हो गए। सात साल कुछ यूं निकल गए। बिना कहीं छपे, बिना किसी भुगतान के...सात साल लगातार लिखना, पेंडुलम की तरह बिना कहीं पहुंचे लगातार चलते रहने जैसा है। 

29 सितंबर का ही दिन था, जब मैंने अपना ब्लॉग गुस्ताख़ शुरू किया था।

गुस्ताख़ की शुरूआत गुस्से में हुई थी। बात उऩ दिनों की है जब मेरे पास कंप्यूटर नहीं हुआ करता था। मेरे दोस्त के पास था। साल 2007 के मार्च महीने की बात। दोस्त ने कहा, दोनों मिलकर ब्लॉग शुरू करते हैं। दोस्त के पास इंटरनेट की सुविधा भी थी। तो हमदोनों ने भगजोगनी नाम का ब्लॉग शुरू किया।

लिखना शुरू हो गया। लिखना चलता रहा।  तभी एक दिन दोस्त ने कहा कि चूंकि ब्लॉग उसके मेल आईडी से चलता है, इसलिए एडिटोरियल राईट उसी के पास रहेंगे। और वह मेरे लेख एडिट किया करेगा। 

यह मालिकाना किस्म का व्यवहार पसंद नहीं आया मुझे।

उसी दिन साइबर कैफे जाकर, अपना ब्लॉग बना डाला। नाम मेरे करीबी दोस्त ऋषि रंजन काला ने सुझाया, अनुमोदन किया सुशांत झा ने। (सुशांत भी उन दिनों अपने एक दोस्त के ब्लॉग पर लिखा करते थे, बाद में उन्होंने भी अपना ब्लॉग आम्रपाली बनाया, जो काफी पढ़ा जाता है)

तो सर, यों हमारे ब्लॉग लेखन की शुरूआत हुई, 29 सितंबर को। वह दिन है, और आज का, ब्लॉग लेखन ने लिखना ही सिखा दिया। 

आज कुछ लोग गुस्ताख पढ़ते हैं। कई अखबार अपने ब्लॉग वाले कॉलम में मेरा लिखा छापते हैं, दुख इतना ही होता है कि बताते नहीं, सूचना नहीं देता। भुगतान तो खैर हिन्दी अखबार क्यों करेंगे, आदत में ही शुमार नहीं। उनका सोचना है कि किसी का लिखा छाप देंते हैं तो उपकार है उस बंदे पर...।

मेरे केस में ऐसा नहीं है अखबार वाले मेरे मित्रों। मैं सिर्फ अपने लिए लिखता हूं, या फिर पैसे के लिए। लिखना मेरा शौक भी है, और रोज़ी भी। 

सात साल...। लंबा अरसा है ना। गुस्ताख ब्लॉग को जन्मदिन की हार्दिक बधाई, इसके पढ़नेवालों को भी और लेखक यानी ब्लॉगर को तो खैर बधाई है ही।







Thursday, September 25, 2014

मीडिया के मंगलकाल के बाद...

बड़ी अच्छी ख़बर मिली, भारत का मंगलयान मंगल की कक्षा तक पहुंच गया। प्रधानमंत्री ने कहा, मंगल को मॉम मिल गई। देश के प्रधानमंत्री खुश थे, साइंसदान खुश थे। हमारे चैनल के एंकर ने कहा, बीमींग स्माइल। अर्थात् चौड़ी चकली मुस्कान। सही है।

भारत ने चांद के बाद अब मंगल को भी फतह कर लिया। दोनों ही पहले प्रयास में। देश में बधाई का माहौल है। जितना देश में नहीं है उससे अधिक चैनलों के स्क्रीनों पर है। 

प्रधानमंत्री कई दफा कह चुके हैं कि आने वाला वक्त एशिया का है। ज्ञान-विज्ञान और कारोबार में जिस तरह से तरक्की दर्ज की जा रही है, यह सच भी होगा। 

भारत ने मंगल हो या चांद बेहद कम कीमत पर यान प्रक्षेपित किए हैं। कुछ दशक पहले आर्यभट्ट और एप्पल जैसे उपग्रह कक्षा में स्थापित करने के वास्ते भारत को विदेशी मदद की दरकार हुआ करती थी, अब भारत दूसरे देशों के उपग्रह अपने यानों से कामयाबी से कक्षाओं तक पहुंचा रहा है।

यह भी याद है कि बारह-पंद्रह साल पहले तक भारत क्रायोजेनिक इंजन की तकनीक के लिए किस तरह विकसित देशों के आगे हाथ पसारे हुए था और उन विकसित देशों ने कैसी ना-नुकुर की थी यह तकनीक देने में। मंगल अभियान की कामयाबी उन संस्थानों को भारतीय करारा जवाब है।

भारत की तकनीक विदेशी अंतरिक्ष एजेंसियों की भी मुफीद है, क्योंकि यह सस्ती तो है ही विश्वसनीय भी है।

भारतीय साइंसदानों के कारनामे अब मीडिया की सुर्खियाों में जगह पाने लगे हैं। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि विज्ञान में शोध के प्रति छात्रो में रूचि काफी घट गई है। साथ ही, हम अपने जिन वैज्ञानिकों को बतौर नायक देख रहे हैं, वह या तो परमाणु वैज्ञानिक रहे हैं या फिर रॉकेट साइंस से जुड़े लोग। तो शोध क्या सिर्फ इन्ही दो क्षेत्रों में होते हैं?

प्रधानमंत्री खुद कह चुके हैं कि विज्ञान से जुड़े शोध ऐसे हों जो आम जन-जीवन का भला करें। जाहिर है, इसके लिए वैज्ञानिकों को ध्यान देना होगा कि वह ऐसी तकनीक विकसित करे कि साफ पानी के लिए तरसते घरों में पीने का पानी मुहैया हो, अभी तक महंगी सौर ऊर्जा का सस्ते दर पर उत्पादन किया जा सके, जरूरी दवाएं और टीके स्वास्थ्य सुविधाएं सस्ती हों। 

तभी मंगल अभियान की कामयाबी से आदमी भौंचक्का-सा नहीं दिखेगा कि अरे मंगल पर तो पहुंच गए इससे क्या होगा। चांद और मंगल ही क्यों, पूरा अंतरिक्ष पड़ा है फतह करने को, लेकिन असली चुनौती गांवो में बुनियादी सुविधाएं पहुंचाने का है...यह एक ऐसा हिमालयी चुनौती है, जिसे सरकारें फतह नहीं कर पाई हैं।

आखिर, उर्ध्वाधर विकास के साथ क्षैतिज् विकास जरूरी है।


Friday, September 19, 2014

बंगाल डायरीः दुर्गा पूजा, तापस पाल और बंगाल

कुछ दिनों बाद दुर्गा पूजा शुरू होगी। और कुछ दिन पहले तृणमूल नेता तापस पाल के बयान मीडिया में खूब सुर्खियां बटोर रहे थे। बंगाल आम तौर पर बहुत पढ़ा-लिखा और जागरूक सूबा माना जाता है। परिवार में भी महिलाओं की स्थिति ठीक मानी जा सकती है। लेकिन परिवार में रूतबा, समाज में भी वही रूतबा नहीं दिला सकता।

चुनाव कवरेज के दौरान बंगाल में घूम रहा था तो बांकुरा जाने का मौका भी मिला था। वीरभूम जिला। सुबलपुर गांव। लव जिहाद जैसा एक मामला सामने आया। एक जनजातीय लड़की को समुदाय के बाहर के लड़के से प्यार हो गया। 

सालिशी सभा यानी जनजातीय पंचायत, जिसे सुविधा के लिए आप इलाके की खाप पंचायत मान सकते है, ने उस आदिवासी लड़की पर पचास हजार रूपये का जुर्माना ठोंक दिया। लड़की गरीब थी, जुर्माना नहीं दे सकी तो सालिशी सभा के मुखिया के आदेश पर, बारह लोगों ने उस लड़की के साथ बलात्कार किया। बलात्कार करने वालों में मुखिया महोदय भी थे।

बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी न जाने कितने तर्क देती हैं, लेकिन विधि-व्यवस्था पर उनकी पकड़ बदतर है। जरा गिनिएगा, फरवरी 2012 में पार्क स्ट्रीट रेप कांड, वर्धमान में कटवा रेप कांड, दिसंबर 2012 में उत्तरी 24 परगना में बारासात में सामूहिक बलात्कार, जुलाई 2013 मुर्शिदाबाद के रानी नगर में शारीरिक रूप से अशक्त लड़की का रेप, आरोपी था तृणमूल का नेता-पुत्र, अक्तूबर 2013 में  उत्तरी 24 परगना में मध्यमग्राम में एक नाबालिग के साथ सामूहिक बलात्कार, लड़की का परिवार डर कर मकान बदल लेता है, अपराधी वहां भी उसका पीछा करते हैं। जनवरी 2014 में दक्षिणी कोलकाता के फिटनेस सेंटर की कर्मचारी को ट्रक में अगवा कर लिया जाता है और 5 लोग उसके साथ रेप करते हैं। जून 2014 में कामदुनी में कॉलेज छात्रा का रेप कर उसकी हत्या कर दी जाती है। मुखालफत पर उतरी महिलाओं को ममता बनर्जी माओवादी बता देती हैं।

यह उन बलात्कारों की सूची है जो मीडिया की नजर में आए, और मीडिया के जरिए लोगों की निगाह-ज़बान पर चढे। नैशनल क्राइम रेकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़े पश्चिम बंगाल में महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों की तरफ इशारा करते हैं।
साल 2006--1731
साल 2007--2106
साल 2008--2263
साल 2009--2336
साल 2010--2311
साल 2011--2263

महिलाओं के प्रति अपराधों में पश्चिम बंगाल देश में पहले स्थान पर है। बलात्कार के मामलों में तीसरे पायदान पर है। महिलाओं के प्रति अपराधों के लिए बदनाम शहरो में कोलकाता तीसरे नंबर पर है।

पूरे पश्चिम बंगाल में देश का आबादी का साढे सात फीसद हिस्सा रहता है, लेकिन महिलाओं के प्रति अपराध में यह 12.2 फीसद हिस्सा बंटाता है।

यह सवाल जब कुछ बुद्धिजीवी महिलाओं, मिसाल के तौर पर शांति निकेतन की एक प्राध्यापिका, और कोलकाता में एक महिला पत्रकार से किए गए तो दोनों ने यही उत्तर दिया कि आखिर अपराध किस सूबे में नहीं होते। 

तापस पाल हों या शांति निकेतन की शिक्षिका...उनके लिए दुर्गा पूजा के दौरान भी राजनीतिक प्रतिबद्धता अव्वल नंबर पर है।

Thursday, September 11, 2014

हम भारत को कैसा जापान बनाना चाहते है?

जापान यात्रा का जमा-खर्चः

जापान एक देश के तौर पर बहुत विकसित है। भारत ने पूर्व की ओर देखो की नीति कह लीजिए या फिर चीन का मुकाबला करने के लिए जापान से दोस्ती गांठने की कूटनीति कह लीजिए, जापान के साथ अपने रिश्ते की गरमाहट बढ़ाई है।

हमारे देश की अर्थव्यवस्था की आज की स्थिति कुछ वैसी ही है जैसी जापान की आज से चार दशक पहले थी। युद्ध से टूटा हुआ देश, तब कृषि आधारित अर्थव्यवस्था का ही था। रूपया उसका भी उसी तरह कमजोर था, जैसा आजकल हमारा रह रहा है।

दक्षिणपंथी देशभक्तों को शायद रूपया कमजोर होना खल रहा होगा, लेकिन सच तो यह है कि कमजोर रूपया निर्यात को मजबूत करेगा। 

प्रधानमंत्री के तौर पर नरेन्द्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से जो झंडा फहराया, तब उन्होंने कहा था- मेक इन इंडिया। यानी भारत में आकर निर्माण कीजिए। जापान में वहां के व्यवसायियों-उद्योगपतियों को संबोधित करते हुए भी पीएम ने वही कहा था कि भारत में चल कर उत्पादन कीजिए। भारत में उत्पादन की सारी सुविधाएं दी जाएंगी, एकल खिड़की व्यवस्था होगी, और भारत में उत्पादन की लागत कम आएगी। साथ ही, व्यापार की नजर से मध्य-पूर्व और पश्चिमी देशों से भारत नजदीक भी पड़ेगा। परिवहन खर्च कम होगा।

मोदी ने अपनी यात्रा में अगले पांच भारत के लिए निवेश के तौर पर 2.10 लाख करोड़ रूपये जुटा लिए। यह मेरी जापान यात्रा के उस पत्रकारिय अनुभव का निचोड़ भर है, जिसकी रिपोर्टिंग मैं सार्वजनिक प्रसारक के रिपोर्टर होने के नाते करता रहा।

उगते सूरज का देश या मशीनी मानवों की बस्तीः

अब एक वाकया ऐसा, जो कुछ आंखें खोलने वाला, कुछ विचारने पर मजबूर करने वाला रहा। हमें क्योटो से टोकियो के लिए उड़ना था। हमें ओसाका हवाई अड्डे से ही टोकियो के लिए उड़ान भरना था। क्योटो से ओसाका एयरपोर्ट तक  की दूरी कार से तय करनी थी। 

जापानी ड्राइवरों की सुविधा के लिए हर कार में जीपीएस सिस्टम लगा रखा है। इससे वहां की यातायात व्यवस्था में कहीं उनको दिक्कत नहीं होती। 

ड्राइवर बस गंतव्य तक का नाम फीड कर देते हैं, और जीपीएस सिस्टम का स्क्रीन उनको गाइड करता चलता है कि उनको कहां और किसतरह चलना-मुड़ना है।

इस जीपीएस तंत्र ने हमें लगभग धोखा दे ही दिया था। ओसाका एयरपोर्ट के पास फ्लाईओवरों का जाल-सा है। अगल-बगल, ऊपर-नीच तिमंजिला फ्लाईओवर...ड्राइवर की जीपीएस मशीन धोखा दे गई। एक ही रास्ते पर पांचवी बार जाने के बाद हमारे पीटीआई के फोटोग्रफर अतुल यादव ने उनको अच्छी हिन्दी में समझाया और रास्ता भी बताया। 

तब जाकर हम ओसाका एयरपोर्ट तक पहुंच पाए थे। 

यही नहीं, जिस एलीमेंट्री स्कूल में हम गए, वहां बच्चों के पढ़ाने के लिए मशीनों पर निर्भरता बहुत ज्यादा है। कंप्यूटर के जरिए पढ़ाना, अच्छी बात हो सकती है लेकिन इससे दिमाग का विकास कितना हो पाता होगा, मुझे शक है। 

हर बच्चे के हाथ में टैबलेट। कोई सवाल पूछने पर वह सीधे अपनी मशीन का रूख करता था। किसी बड़े से कुछ पूछो तो विनम्रता से अपने फोन या टैब की तरफ देखता था। 

अगर इतना विकास ही असली विकास है, तो शायद यह इंसानों को मशीन में बदलना ही होगा। घर-घर बिजली पहु्ंचाना, सेहत की सुविधाएं पहुंचाना, अच्छी सड़कें तक तो ठीक है, इंसानों की डिजाईन अगर मशीन तय करने लगे, तो मानव प्रजाति के लिए घातक होगा। 

जापान को भी इसके परिणाम जल्द दिखेंगे।