बड़ी अच्छी ख़बर मिली, भारत का मंगलयान मंगल की कक्षा तक पहुंच गया। प्रधानमंत्री ने कहा, मंगल को मॉम मिल गई। देश के प्रधानमंत्री खुश थे, साइंसदान खुश थे। हमारे चैनल के एंकर ने कहा, बीमींग स्माइल। अर्थात् चौड़ी चकली मुस्कान। सही है।
भारत ने चांद के बाद अब मंगल को भी फतह कर लिया। दोनों ही पहले प्रयास में। देश में बधाई का माहौल है। जितना देश में नहीं है उससे अधिक चैनलों के स्क्रीनों पर है।
प्रधानमंत्री कई दफा कह चुके हैं कि आने वाला वक्त एशिया का है। ज्ञान-विज्ञान और कारोबार में जिस तरह से तरक्की दर्ज की जा रही है, यह सच भी होगा।
भारत ने मंगल हो या चांद बेहद कम कीमत पर यान प्रक्षेपित किए हैं। कुछ दशक पहले आर्यभट्ट और एप्पल जैसे उपग्रह कक्षा में स्थापित करने के वास्ते भारत को विदेशी मदद की दरकार हुआ करती थी, अब भारत दूसरे देशों के उपग्रह अपने यानों से कामयाबी से कक्षाओं तक पहुंचा रहा है।
यह भी याद है कि बारह-पंद्रह साल पहले तक भारत क्रायोजेनिक इंजन की तकनीक के लिए किस तरह विकसित देशों के आगे हाथ पसारे हुए था और उन विकसित देशों ने कैसी ना-नुकुर की थी यह तकनीक देने में। मंगल अभियान की कामयाबी उन संस्थानों को भारतीय करारा जवाब है।
भारत की तकनीक विदेशी अंतरिक्ष एजेंसियों की भी मुफीद है, क्योंकि यह सस्ती तो है ही विश्वसनीय भी है।
भारतीय साइंसदानों के कारनामे अब मीडिया की सुर्खियाों में जगह पाने लगे हैं। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि विज्ञान में शोध के प्रति छात्रो में रूचि काफी घट गई है। साथ ही, हम अपने जिन वैज्ञानिकों को बतौर नायक देख रहे हैं, वह या तो परमाणु वैज्ञानिक रहे हैं या फिर रॉकेट साइंस से जुड़े लोग। तो शोध क्या सिर्फ इन्ही दो क्षेत्रों में होते हैं?
प्रधानमंत्री खुद कह चुके हैं कि विज्ञान से जुड़े शोध ऐसे हों जो आम जन-जीवन का भला करें। जाहिर है, इसके लिए वैज्ञानिकों को ध्यान देना होगा कि वह ऐसी तकनीक विकसित करे कि साफ पानी के लिए तरसते घरों में पीने का पानी मुहैया हो, अभी तक महंगी सौर ऊर्जा का सस्ते दर पर उत्पादन किया जा सके, जरूरी दवाएं और टीके स्वास्थ्य सुविधाएं सस्ती हों।
तभी मंगल अभियान की कामयाबी से आदमी भौंचक्का-सा नहीं दिखेगा कि अरे मंगल पर तो पहुंच गए इससे क्या होगा। चांद और मंगल ही क्यों, पूरा अंतरिक्ष पड़ा है फतह करने को, लेकिन असली चुनौती गांवो में बुनियादी सुविधाएं पहुंचाने का है...यह एक ऐसा हिमालयी चुनौती है, जिसे सरकारें फतह नहीं कर पाई हैं।
आखिर, उर्ध्वाधर विकास के साथ क्षैतिज् विकास जरूरी है।
भारत ने चांद के बाद अब मंगल को भी फतह कर लिया। दोनों ही पहले प्रयास में। देश में बधाई का माहौल है। जितना देश में नहीं है उससे अधिक चैनलों के स्क्रीनों पर है।
प्रधानमंत्री कई दफा कह चुके हैं कि आने वाला वक्त एशिया का है। ज्ञान-विज्ञान और कारोबार में जिस तरह से तरक्की दर्ज की जा रही है, यह सच भी होगा।
भारत ने मंगल हो या चांद बेहद कम कीमत पर यान प्रक्षेपित किए हैं। कुछ दशक पहले आर्यभट्ट और एप्पल जैसे उपग्रह कक्षा में स्थापित करने के वास्ते भारत को विदेशी मदद की दरकार हुआ करती थी, अब भारत दूसरे देशों के उपग्रह अपने यानों से कामयाबी से कक्षाओं तक पहुंचा रहा है।
यह भी याद है कि बारह-पंद्रह साल पहले तक भारत क्रायोजेनिक इंजन की तकनीक के लिए किस तरह विकसित देशों के आगे हाथ पसारे हुए था और उन विकसित देशों ने कैसी ना-नुकुर की थी यह तकनीक देने में। मंगल अभियान की कामयाबी उन संस्थानों को भारतीय करारा जवाब है।
भारत की तकनीक विदेशी अंतरिक्ष एजेंसियों की भी मुफीद है, क्योंकि यह सस्ती तो है ही विश्वसनीय भी है।
भारतीय साइंसदानों के कारनामे अब मीडिया की सुर्खियाों में जगह पाने लगे हैं। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि विज्ञान में शोध के प्रति छात्रो में रूचि काफी घट गई है। साथ ही, हम अपने जिन वैज्ञानिकों को बतौर नायक देख रहे हैं, वह या तो परमाणु वैज्ञानिक रहे हैं या फिर रॉकेट साइंस से जुड़े लोग। तो शोध क्या सिर्फ इन्ही दो क्षेत्रों में होते हैं?
प्रधानमंत्री खुद कह चुके हैं कि विज्ञान से जुड़े शोध ऐसे हों जो आम जन-जीवन का भला करें। जाहिर है, इसके लिए वैज्ञानिकों को ध्यान देना होगा कि वह ऐसी तकनीक विकसित करे कि साफ पानी के लिए तरसते घरों में पीने का पानी मुहैया हो, अभी तक महंगी सौर ऊर्जा का सस्ते दर पर उत्पादन किया जा सके, जरूरी दवाएं और टीके स्वास्थ्य सुविधाएं सस्ती हों।
तभी मंगल अभियान की कामयाबी से आदमी भौंचक्का-सा नहीं दिखेगा कि अरे मंगल पर तो पहुंच गए इससे क्या होगा। चांद और मंगल ही क्यों, पूरा अंतरिक्ष पड़ा है फतह करने को, लेकिन असली चुनौती गांवो में बुनियादी सुविधाएं पहुंचाने का है...यह एक ऐसा हिमालयी चुनौती है, जिसे सरकारें फतह नहीं कर पाई हैं।
आखिर, उर्ध्वाधर विकास के साथ क्षैतिज् विकास जरूरी है।
अमां, खामख्वाह टेंसनियाए रहे हैं। मंगल पर पहुंचे बस हैं। टेक्नोलॉजी डिमांस्ट्रेसन किया है। लाव लश्कर के साथ कब तक पहुंचेंगे पता नहीं। गांव का भी तो यही हाल है। पर आप गंभीर टिप्पणियों में मुझे अच्छे नहीं लगते, जितने कहानियों में।
ReplyDeleteहर उपलब्धि का अपना मजा है ... आशा है इसे भी पा ही लेंगे ...
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