Tuesday, April 21, 2015

दो -टूकः बंगाल में किसानी का मर्सिया

पिछले दिनों उत्तर भारत के किसान बारिश से हलकान रहे। खेतों में खड़ी फसल बरबाद हुई...साथ ही किसान भी। कश्मीर घाटी में तो खैर बाढ़ जैसी स्थिति पैदा भी हो गई थी। बारिश को रोमांटिक कहने वाले लोग भी किसानों की हालत पर चिंतित होते नज़र आए। यही हमारे देश की खासियत है। हम सब सामूहिक रूप से चिंतित होते हैं।

हम सब एक साथ किसानों की आत्महत्याओं पर चिंतित हो उठे हैं, लेकिन हममें से कोई अनाजों के न्यूनतम समर्थन मूल्य के बढ़ने पर खुश नहीं होता।

हम सब हमेशा किसानों की आत्महत्याओं पर दुख जाहिर करते हैं। हम खबरों में बुंदेलखंड और विदर्भ को पढ़ते हैं...और फिर एक आह भरकर  रह जाते हैं। सियासी तबका इन किसानों की जिंदगी बदल देने को लिए कटिबद्ध होने का दम भरता है।

बुंदेलखंड और विदर्भ के बाद किसानों की खुदकुशी की इस समस्या के लिए एक ज़मीन भी मिली है। पश्चिम बंगाल। जी हां, भूमि सुधारों की भूमि।

अक्तूबर 2011 से अप्रैल 2015 के बीच पश्चिम बंगाल के वर्धमान जिले में ही करीब 169 किसानों ने आत्महत्या की है। यह स्थिति उस ज़िले की है जिसे बंगाल में धान का कटोरा कहा जाता है। जी नहीं, ना तो विदर्भ की तरह यहां सामाजिक वजहों से किसानों ने आत्महत्या की, न ही बुंदेलखंड की तरह यहां के किसानों को लगातार डेढ़ दशक से सूखा झेलना पड़ा है। बल्कि यहां धान की उत्कृष्ट पैदावार हासिल की जाती है।

यहां के किसान लगातार इसलिए आत्महत्या कर रहे हैं क्योंकि अच्छी फसल के बावजूद खेती अब फायदे का सौदा नहीं रही और राज्य सरकार के पास किसानों के लिए कोई बीमा पॉलिसी नहीं है। सबसे पहले तो हमें पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का वह बयान याद आता, जिसमें उन्होंने किसानों की आत्महत्या पर कहा कि मारे गए किसानों को राज्य सरकार ने मुआवज़ा दिया है और इन सब पर करोड़ो का कर्ज था।

फिर उन्होंने सार्वजनिक मंच से कहा कि आत्महत्या किए सुशांतो नाम का आदमी किसान नहीं करोड़पति था। असल में, वर्धमान जिले के गोलसी थाना के फुट्टा गांव में सुशांतो घोष नाम के किसान ऩे साल 2012 की सर्दियों में आत्महत्या कर ली थी। वह अपने पीछे दो बच्चों समेत एक बड़ा परिवार छोड़ गया था। सुशांतो पर महज 5 लाख रूपये का कर्ज़ था। लेकिन उसके कर्ज का एक तिहाई हिस्सा महाजनों का था।

बहरहाल, उसकी मौत के बाद सियासी बदनामी से पीछा छुड़ाने के लिए मुख्यमंत्री उस किसान को करोड़पति बता गईं। हम सुशांतो के घर पहुंचे थे। मुझे नहीं लगता कि कोई भी करोड़पति शख्स अचानक पहुंचे अभ्यागतों के लिए भी पहले से टूटी चारपाई बिछाकर रखेगा। फटे कपड़े पहन लेगा और अपने घर को झोंपड़ानुमा बना लेगा।

असली समस्या यह भी है कि किसानों के ऐसी आत्महत्याओं की ठीक से रिपोर्टिंग नहीं होती। टीवी चैनलों के लिए ऐसी खबर कोई मायने नहीं रखती।

खेती की बढ़ती लागत को देखकर फिलहाल तो यही चिंता है कि जिसतरह देश के बाकी के हिस्सों में भी खेती-किसानी का हालत ठीक नहीं, उसमें उत्पादन लागत को कम करना ही होगा। उर्वरक, बीज, कीटनाशकों की कीमत कम करनी ही होगी। फसलों का बीमा और न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाना ही होगा।

सियासी झूठ हमने बहुत देखे और सुने हैं। लेकिन ममता जिस मां, माटी और मानुष के नारे पर सवार होकर राइटर्स बिल्डिंग पहुंची हैं...उसका खयाल उनको जरूर करना चाहिए। हालांकि यह भी तय है कि अभी ममता की राजनीतिक ज़मीन बेहद मजबूत बनी हुई है, बल्कि बंगाल का उनका क़िला दुर्जेय है। बंगाल में भाजपा अभी सिर्फ वोटशेयर बढ़ा पाई है और वाम से अभी भी अवाम दूर है।

फिलहाल तो हमेशा की तरह अदम गोंडवी याद आ रहे हैं,
भुखमरी की ज़द में है या दार के साए में है
आदमी गिरती हुई दीवार के साए में है।।



No comments:

Post a Comment