भूमि अधिग्रहण पर तकरार के बीच वतनवापसी के बाद
राहुल गांधी ने बड़े जोर का भाषण दिया। कायदे से यह भाषण किसान-मजदूरों की हिमायत
करने का दावा करने वाली पार्टी को देना चाहिए था, लेकिन सीपीएम जैसी आधी सदी
पुरानी पार्टी—जिसने हफ्ते भर पहले ही अपना नया सेनापति चुना हो—का मर्सिया पढ़े
जाने से ज्यादा बदतर क्या होगा? लेकिन यही वक्त है, जब सीपीएम को
अपने वजूद के औचित्य की तरफ गौर करते हुए अपनी रणनीतियों की पुनर्समीक्षा करनी
होगी।
हालांकि, यह स्तंभकार
इस छोटे लेख में सीपीएम को राष्ट्रीय पार्टी के रूप में पुनर्जीवित करने की सलाह
नहीं दे सकता, लेकिन सिर्फ दशक भर में धराशायी हो रही पार्टी को अभी दवा और दुआ
दोनों की जरूरत जान पड़ती है।
2014 के लोकसभा चुनाव
नतीजों ने हालांकि कई सियासी समीकरण भोथरे कर दिए और चुनावी भूगोल की
नई कंटूर रेखाएं खींच दीं। तो यह जानना दिलचस्प होगा कि 2004 में अपनी सबसे बड़ी जीत दर्ज करने वाली पार्टी क्यों 2014 में शर्मनाक हार
झेलती है।
यकीनन यह उस पार्टी का प्रदर्शन नहीं है जिसे
1964 में ए के गोपालन, ईएमएस नम्बूदिरीपाद, टी नागीरेड्डी, प्रमोद दासगुप्ता, हरे कृष्ण कोनार और ज्योति बसु के हरावल दस्ते ने वर्ग संघर्ष को अमली जामा पहनाने के लिए भारतीय
कम्युनिस्ट पार्टी से अलग करके बनाया था।
पिछले लोकसभा चुनाव में सीपीएम ने 90 सीटों पर
चुनाव लड़कर महज 9 सीटों पर जीत हासिल की। देशभर में पार्टी को महज 3.2 फीसद वोट
ही मिले। स्थापना के बाद से सीपीएम को मिला यह सबसे कम वोट है।
वाम के तीन किलों में से एक बंगाल के भद्रलोक पत्रकार
एक कहावत कहा करते थे, वाम को अगर बंगाल में कोई हरा सकता है तो वह खुद वाम ही है।
एकतरह से वाम की लंबी जीत के सिलसिलों में ही उसकी हार की वजहें छिपी हैं।
1977 के बाद से बंगाल में वाम मोर्चे ने अपना
एक शानदार तंत्र खड़ा कर लिया था। पार्टी ने अपना सामाजिक आधार औद्योगिक सर्वहारा
से आगे बढ़ाते हुए उसे भूमिहीन मज़दूरों, छोटे किसानों और सीमांत किसानों तक फैलाया। इस समीकरण में वाममोर्चे ने वर्ग
को भी जोड़ा और दलितों और मुस्लिमों का वोटबैंक उसके साथ आ जुड़ा। इस वोटबैंक की
वजह से ही वाम की हेजिमनी 2006 के विधानसभा चुनाव तक
बरकरार रही।
पार्टी को राज्य में 2009 के आम चुनावों में
33.1 फीसदी, 2011 के विधानसभा चुनावों में 30 फीसदी और 2014
के आम चुनावों में मात्र 22.7 फीसदी वोट मिले। यानी सिर्फ बंगाल की बात करें तो भी
पार्टी की राजनीतिक ढलान साफ दिखती है।
पिछले एक दशक में आए इस ढलान की फौरी वजह कभी लेफ्ट
फ्रंट के घटक दलों में आई दरार, तो कभी नंदीग्राम की घटनाओं के लगातार विरोध के
बाद धीरे-धीरे बुद्धिजीवियों का एक तबके के गोलबंद होकर वाम के खिलाफ़ खड़े होने
को माना गया। बंगाल के गांवों में भी-जो कि वाम का एकमुश्त वोट रहा है- वाम के
खिलाफ़ सुगबुगाहट शुरू हो गई थी।
उधर, केरल में पार्टी करिश्माई नेता वीएस
अच्युतानंदन और राज्य सचिव पी विजयन के बीच दो धडों में बंटी हुई है। उनकी इस दशक
भर से चली आ रही खींचतान से पार्टी का हाल बेहाल है। वाम के लिए एकमात्र उम्मीद की
किरण त्रिपुरा है, जहां माणिक सरकार ने अपना दबदबा कायम रखा है।
वाम के खिलाफ यह जनादेश फौरी भावनाओं की
अभिव्यक्ति मात्र नहीं है, एक हद तक उसके लिए वाम की ठसक भरी राजनीति ज़िम्मेदार
है। यकीनन, वाम को मिला यह आखिरी जनादेश नहीं है और यह
चुनाव भी आखिरी नहीं था, लेकिन अब सीपीएम को नया सेनापति मिला है तो उसे
यह जरूर याद रखना चाहिए कि उसके जनाधार में छीजन इसलिए ही आई थी क्योंकि वह अपने
वैचारिक ज़मीन की बजाय प्रयोगों पर अधिक ध्यान देने लगी थी। वैसे भी पार्टी ने कई
रणनीतिक और ऐतिहासिक भूलें की हैं, अब उनको ज़मीनी स्तर पर पार्टी का ढांचा दोबारा
खड़ा करना होगा।
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