किसानों के लिए दूरदर्शन ने अपना एक खास चैनल शुरू कर दिया
है। डीडी किसान। यह काम सिर्फ दूरदर्शन ही कर सकता है। किसान खुद बाज़ार नहीं है।
भोंडे से भोंडे गीत-संगीत,
कार्टून, फिल्म सबके लिए
बाजार है, किसान के लिए
नहीं है। किसानों के उत्पादों के लिए भी नहीं।
प्रसार भारती पर बाज़ार का ऐसा कोई दबाव नहीं है। लिहाजा
किसानों के लिए चौबीस घंटे का चैनल खुल गया। उम्मीद है कि किसानों के लिए बना यह
चैनल कृषि दर्शन के दर्शन को नई ऊंचाई तक ले जाएगा, और नई तकनीक के साथ उनके मनबहलाव का साधन भी
मुहैया कराएगा।
देश की जीडीपी में किसान का हिस्सा घट रहा है। गांव की गोरी
और किसान फिल्मों में हमेशा रूमानी तरीके से पेश किए जाते रहे हैं। असल स्थिति
इसके उलट है।
बेमौसम बारिश के बाद छह सप्ताहों में उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, मध्य प्रदेश और
महाराष्ट्र के 150 से ज्यादा किसान
आत्महत्या कर चुके हैं। हद तो यह है कि राज्य सरकारें अब भी सच्चाई से मुंह मोड़ने
की कोशिश कर रही हैं। वे यह मानने को तैयार नहीं हैं कि इन घटनाओं का कारण कृषि
क्षेत्र में लंबे समय से चली आ रही समस्याएं हैं। आपको याद होगा, इसी स्तंभ में
मैंने बंगाल में किसान आत्महत्याओं पर ममता की बयानबाज़ी का मसला उठाया था। ममता
ने मरने वाले किसानों को धनपति बताया था।
किसानों की आत्महत्या कोई ताजा मामला नहीं है। पिछले 20 वर्षों में करीब
तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। हर साल औसतन 14 से 15 हजार किसान अपनी जान ले रहे हैं, जबकि देश में हर
घंटे में दो किसानों की मौत हो रही है। आत्महत्या करने वाले ये किसान राजनीतिक
तंत्र तक अपनी आवाज पहुंचाने की कोशिश कर रहे थे,लेकिन उनकी मौतें भी संवेदनहीन हो चुकी व्यवस्था
को तंद्रा से जगा नहीं सकी हैं।
मेरे खयाल से खेती से लगातार कम होती आमदनी आत्महत्याओ की
बड़ी वजह है। साल 2014 की एनएसएसओ
रिपोर्ट के अनुसार खेती के कामों से एक किसान परिवार को हर महीने केवल 3,078 रुपए की आमदनी
होती है। मनरेगा जैसे गैर-कृषि कार्यों में लगने के बाद भी उनकी औसत मासिक आमदनी 6 हजार रुपए
प्रतिमाह होती है। हैरत नहीं कि देश के 58 फीसदी किसान भूखे पेट सोने को मजबूर हैं तो 76 फीसदी रोजगार का
विकल्प मिलने पर खेती छोड़ने को तैयार हैं।
साल 1970 में गेहूं का
न्यूनतम समर्थन मूल्य 76 रुपए प्रति
क्विंटल था। आज यह 1450 रुपए प्रति
क्विंटल है यानी बीते 45 वर्षों में
इसमें करीब 19 गुना वृद्धि हुई
है। इससे किसानों की बढ़ी आमदनी की तुलना दूसरे तबकों के वेतन में हुए इजाफे से
करें। इन वर्षों में केंद्र सरकार के कर्मचारियों की तनख्वाह 110 से 120 गुना, स्कूल शिक्षकों
की 280 से 320 गुना और कॉलेज
शिक्षकों की 150 से 170 गुना बढ़ी है। इस
दौरान स्कूल फीस और इलाज के खर्चों में 200 से 300 गुना और शहरों में मकान का किराया 350 गुना तक बढ़ गया
है।
इस साल भी गेहूं का समर्थन मूल्य 50 रुपए प्रति
क्विंटल बढ़ाया गया है, जिससे खाद्यान्न
की कीमतें नियंत्रित रहें। धान के मूल्य में भी इतना ही इजाफा किया गया है, जो पिछले साल के
मुकाबले 3.2 फीसदी ज्यादा
है। इसी बीच केंद्रीय कर्मचारियों को महंगाई भत्ते की दूसरी किस्त भी मिल गई, जो पहले से 6 फीसदी ज्यादा
है। उन्हें जल्दी ही सातवें वेतन आयोग के अनुरूप वेतन और भत्ते भी मिलने लगेंगे।
इसमें सबसे निचले स्तर पर काम करने वाले कर्मचारी का वेतन भी 26 हजार रुपए महीने
करने की मांग हो रही है।
फसलों का समर्थन मूल्य बढ़ाने से खाद्यान्न की कीमतें बढ़
सकती हैं, लेकिन इसके लिए
ज्यादा चिंतित होने की भी जरूरत नहीं है। खेती से होने वाली आमदनी में इजाफा नहीं
हुआ तो किसानों के लिए कोई उम्मीद नहीं हो सकती। उत्पादकता बढ़ाने या सिंचाई के
साधनों का बेहतर इस्तेमाल करने की सलाह देने से खास फायदा नहीं, क्योंकि ये सब तो
नई तकनीकों को बेचने के तरीके भी हो सकते हैं।
आसान और कम ब्याज पर ऋण की सुविधाएं बढ़ाने से भी किसान कर्ज
के दुष्चक्र से बाहर नहीं निकल सकते। किसान को कर्ज नहीं, आमदनी चाहिए।
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