Saturday, September 19, 2015

लेह-लद्दाख में आवारगी

हमारी फ्लाइट लेह उतरने के लिए बादलों से नीेचे उतरी तो दोनों खिड़कियों से झांकने वाली मुंडियां बाहर झांकने लगी थीं। महान हिमालय की बर्फ़ से ढंकी चोटियां दोनों तरफ नज़र आ रही थीं। 

विमान के बाईं तरफ वाली खिड़की से थोड़ा कम, दाहिनी तरफ थोड़ा ज्यादा। विमान को आड़े-तिरछे चक्कर काटकर रनवे पर उतरना पड़ा। मुझे भूटान के पारों अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे की याद हो आई थी। वहां भी एयरपोर्ट ऐसा ही है। 

एक घाटी में बहती एक नदी। नदी के किनारे सड़क। सड़क के बाद एयरपोर्ट का अहाता। पारो में भी ऐसा है, लेह में भी। लेकिन लेह पारो जितना हरा-भरा नहीं है। लेह की घाटी भी पारो से अधिक चौड़ी है। 

बहरहाल, हम दिल्ली वाले (पता नहीं, लेकिन आप मैदानी इलाके के उत्तर भारतीय तो कह ही सकते हैं) जब लेह में उतरे, तो हमारे साथ हिदायतों की एक पोटली थी। लेह उतरते ही, तेज़ मत चलना। सांस फूल सकती है। नो स्मोकिंग एंड नो ड्रिंकिंग एट ऑल।
लेह का हवाई अड्डा फोटोः मंजीत ठाकुर

लेह में हवा हल्की है। एयरपोर्ट पर हमें गैलसन महोदय मिले। गैलसन अगले हफ्ते भर तक हमारे साथ रहने वाले थे। एयरपोर्ट पर बार-बार यह उद्घोषणा हो रही थी कि अलां होने पर मेडिकल मदद लें, फलां होने पर मेडिकल मदद लें, और ढिमकाना होने पर भी मेडिकल मदद ही लें। हमारा आत्मविश्वास पहले से डगमग था, यह सब सुनकर और छीज गया। 

हमें लगा कि पता नहीं अगले किस कदम पर हमारी सांस फूलने लग जाए।लेकिन सांस नहीं फूली हां, आशंका में सांस अटकी रही कि सांस अब फूली कि तब फूली। 

लेह को आंख फाड़कर घूर-घूरकर देखते और जितना हो सकता था उतना अपनी आंखों में बसाते हुए हम सुबह के नौ बजे ही सर्किट हाउस में पहुंच गए। 

हमें कहा गया था कोई काम नहीं। बस हाथ मुंह धोकर चाय-नाश्ता। सुबह के 9 भी नहीं बजे थे। 
लेह  में सर्किट हाउस के सामने, आईस हॉकी की जगह फोटोः मंजीत ठाकुर


सारा दिन बस आराम ही करना था। मैं बिस्तर पर लेटकर कुछ पढ़ने लग गया था। आखिर मैं रात में सोया नहीं था। हमारी फ्लाइट सुबह सवा 6 बजे की थी और इसके लिए रात को नींद पूरी नहीं हो पाई थी।


आंखों में नींद भरी थी। 

ठीक इसी वक्त तो नहीं लेकिन थोड़ी देर बाद सिरे भारी होने जैसे लक्षण उभरने लगे थे। लेकिन शारीरिक कमजोरियों के मुकाबले मन के भीतर डर हावी था। लेकिन बेडरेस्ट की हिदायत के बावजूद हमने पहले ही दिन से काम शुरू कर दिया था। 

पढ़ना और पढ़ना। दिल्ली की ऊमस भरी गरमी से निकलकर लेह की ठंडी हवा में, अचानक अजीब सा फील होने लगा था। 


सिर के पिछले हिस्से में तेज़ दर्द। बहुत मन था कि हम बाज़ार घूमें। लेकिन सिरदर्द बढ़ता ही गया। आखिरकार, हमारे डॉक्टर ने मुझे दवा दी। सिरदर्द की। फिर मैंने कड़क चाय बनवाई...और शाम को हम लेह के बाजार में निकले। 

लेह की हर शै में धुआं मौजूद है। बाजार में, दुकान में, घर में, गली में, चौबारे में, खूबानी में, मेन मार्केट से लेकर किसी माने तक...हर जगह एक गंध

आपको मिलेगी वह है अधजले डीज़ल की।
लेह का मोती बाज़ार, फोटोः मंजीत ठाकुर


मुझे पहले लगा था कि लेह बहुत साफ-सुथरा होगा। एक शहर के तौर पर लेह ठोस कचरे से साफ भी है। लेकिन, हवा गंदी लगी मुझे। 

जो भी सैलानी वहां जाता है, वह मोटर साइकिल की राइड ज़रूर करता है और उस छोटे से शहर में गाड़ियों की रेलमपेल भी बहुत है। तो मुझे हर हमेशा डीज़ल की गंध आती रही। 

शाम ढली तो हम सर्किट हाउस के आसपास ही घूम रहे थे। तीखी लगने वाली धूप ढल चुकी थी और इसकी जगह ले ली थी, चांद ने। 

लेह में चांद बेहद चमकीला नजर आ रहा था। लग रहा था कोई हैलोजन लाइट आसमान में टंगी हो। मैं जादू के नगरी में आए बच्चे की तरह ठगा सर्किट हाउस के लॉन से कभी चांद तो कभी चांदनी में चमचमा रहे बर्फीले पहाड़ो को देख रहा था। 

सर्किट हाउस के ठीक सामने एक तालाब-सा बना हुआ है, जिसमें जाने कैसे जंगली खर-पतवार उग आए थे। हमने बहुत अंदाज़ा लगाया कि आखिर यह होगा क्या...तब गैलसन ने बताया, इस जगह पर जाड़े में आउस हॉकी होती है। 

मैं बस अंदाजा ही लगाता रह गया कि यह तालाब जैसी जगह जाड़ो में जमकर सफेद होकर कैसी हो जाती होगी। 

बस, लेह में आठ बडे मार्केट बंद होने शुरू हो जाते हैं। हमलोगों को जाड़ा कुछ अधिक ही लग रहा था, ऐसे में जल्दी से जाकर खाना खा लेना मुफीद था और हमने वही किया। 

जारी




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