हाल ही में एक फिल्म आई थी, दशरथ मांझी पर। उसमें एक संवाद था, जब तक तोड़ेगा नहीं, तब तक छोड़ेगा नहीं। बिहार चुनाव में जीतनराम मांझी भी नीतीश को तोड़ने के संकल्प के साथ हैं।
काफी माथापच्ची के बाद बिहार में एनडीए के बीच सीटों का बंटवारा हो गया। लेकिन इस सीट बंटवारे से भी विवाद कम नहीं हुए हैं। लोजपा खुद को ठगा हुआ महसूस कर रही है। क्योंकि वह सीट बंटवारे में अपनी तुलना उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी के साथ दलित नेता के रूप में उभर चुके मांझी से भी कर रहे हैं। उधर, मांझी की पार्टी के नेता देवेन्द्र यादव ने इस्तीफा दे दिया, उनका तर्क है कि उन्हें कम से कम 50 सीटें तो मिलनी ही चाहिए थीं।
लेकिन सीटों के बंटवारे पर मांझी के पास नाराज़ होने के ज्यादा विकल्प थे नहीं। उनकी पार्टी नवजात है और उनकी पार्टी के सारे के सारे विधायक जेडी-यू के बाग़ी हैं। मांझी की पार्टी नेता अपने इलाकों के ही क्षत्रप हैं और उनका बाकी के इलाकों में कोई नामलेवा नहीं है। मुख्यमंत्री बनने से पहले जीतनराम मांझी को भी बहुत अधिक लोग जानते नहीं थे और उनकी सियासी दुनिया गया-जहानाबाद के इलाकों में थी। शकुनी चौधरी हों, या नरेन्द्र सिंह, नीतीश मिश्रा हों या वृषण पटेल, इनकी पूरे सूबे में कोई पुख्ता पहचान या जनाधार नहीं है और इनका जनाधार एक या दो विधानसभा सीटों तक महदूद है।
इसलिए मांझी के सामने खतरा यह था कि अगर उनकी बीजेपी के साथ सीटों पर समझौते की कोशिश नाकाम रहती या वह नाराज़ होकर एनडीए से बाहर निकल लेते, तो जीत के लिए बेचैन उनके ज्यादातर उम्मीदवारों में फूट पड़ती और पार्टी दोफाड़ हो जाती।
लेकिन, मांझी जिस महादलित वोटों के लिए खड़े हैं, तो राज्य में करीब 18.5 फीसद वोटर इस समुदाय से हैं। इसमें रविदास, मुसहर और पासवान शामिल है। बिहार की कुल अनुसूचित जातियों में से 70 फीसद यही तीन जातियां है। इनमें भी मुसहर की आबादी सबसे ज्यादा करीब साढे पांच फीसदी होती है। जबकि पासवान की आबादी साढ़े चार फीसदी के आसपास है। पासवान वोटों पर पूरी पकड़ रामविलास पासवान की है।
असल में रामविलास पासवान दलितों के बड़े नेता हुआ करते थे, और साल 2005 में उन्होंने 30 सीटें हासिल भी की थीं। बाद में नीतीश एनडीए गठबंधन के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने महादलित वर्ग तैयार करके दलितों को दोफाड़ कर दिया था। नीतीश ने दलितों की कुल 22 उपजातियों में से 21 को महादलित बना दिया और उसमें सिर्फ पासवानों को शामिल नहीं किया।
पासवान का जनाधार इससे कमजोर पड़ गया था।
लेकिन लोकसभा चुनाव में हार के बाद नीतीश ने जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बनाकर अपने हिसाब से जो मास्टरस्ट्रोक खेला था, वही उनके लिए अभिशाप बनता नजर आ रहा है क्योंकि मांझी ने मौके को भुनाने में ज़रा भी ढील नहीं दी।
अब सबकी नजर बिहार की उन सुरक्षित 38 सीटों पर हैं और इस बात पर भी कि आखिर महादलितों का सर्वमान्य नेता बनता कौन है। नीतीश कुमार के साथ ही इस पदवी के लिए पासवान, रमई राम, श्याम रजक, उदय नारायण चौधरी और अशोक चौधरी जैसे नेता कतार में खड़े हैं।
वैसे, नीतीश कुमार ने एक निजी चैनल पर एक कार्यक्रम में कहा भी कि अगर बिहार की जनता उन्हें वोट नहीं करेगी तो वह यानी जनता लूज़र होगी, खुद नीतीश लूज़र नहीं होंगे। लूज़र कौन होगा यह नवंबर में नतीजों के दिन पता चलेगा लेकिन मांझी के उभार और एनडीए के आक्रामक चुनाव प्रचार अभियान के बरअक्स नीतीश का ऐसा बयान उनके डिगते आत्मविश्वास को ही बताता है।
काफी माथापच्ची के बाद बिहार में एनडीए के बीच सीटों का बंटवारा हो गया। लेकिन इस सीट बंटवारे से भी विवाद कम नहीं हुए हैं। लोजपा खुद को ठगा हुआ महसूस कर रही है। क्योंकि वह सीट बंटवारे में अपनी तुलना उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी के साथ दलित नेता के रूप में उभर चुके मांझी से भी कर रहे हैं। उधर, मांझी की पार्टी के नेता देवेन्द्र यादव ने इस्तीफा दे दिया, उनका तर्क है कि उन्हें कम से कम 50 सीटें तो मिलनी ही चाहिए थीं।
लेकिन सीटों के बंटवारे पर मांझी के पास नाराज़ होने के ज्यादा विकल्प थे नहीं। उनकी पार्टी नवजात है और उनकी पार्टी के सारे के सारे विधायक जेडी-यू के बाग़ी हैं। मांझी की पार्टी नेता अपने इलाकों के ही क्षत्रप हैं और उनका बाकी के इलाकों में कोई नामलेवा नहीं है। मुख्यमंत्री बनने से पहले जीतनराम मांझी को भी बहुत अधिक लोग जानते नहीं थे और उनकी सियासी दुनिया गया-जहानाबाद के इलाकों में थी। शकुनी चौधरी हों, या नरेन्द्र सिंह, नीतीश मिश्रा हों या वृषण पटेल, इनकी पूरे सूबे में कोई पुख्ता पहचान या जनाधार नहीं है और इनका जनाधार एक या दो विधानसभा सीटों तक महदूद है।
इसलिए मांझी के सामने खतरा यह था कि अगर उनकी बीजेपी के साथ सीटों पर समझौते की कोशिश नाकाम रहती या वह नाराज़ होकर एनडीए से बाहर निकल लेते, तो जीत के लिए बेचैन उनके ज्यादातर उम्मीदवारों में फूट पड़ती और पार्टी दोफाड़ हो जाती।
लेकिन, मांझी जिस महादलित वोटों के लिए खड़े हैं, तो राज्य में करीब 18.5 फीसद वोटर इस समुदाय से हैं। इसमें रविदास, मुसहर और पासवान शामिल है। बिहार की कुल अनुसूचित जातियों में से 70 फीसद यही तीन जातियां है। इनमें भी मुसहर की आबादी सबसे ज्यादा करीब साढे पांच फीसदी होती है। जबकि पासवान की आबादी साढ़े चार फीसदी के आसपास है। पासवान वोटों पर पूरी पकड़ रामविलास पासवान की है।
असल में रामविलास पासवान दलितों के बड़े नेता हुआ करते थे, और साल 2005 में उन्होंने 30 सीटें हासिल भी की थीं। बाद में नीतीश एनडीए गठबंधन के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने महादलित वर्ग तैयार करके दलितों को दोफाड़ कर दिया था। नीतीश ने दलितों की कुल 22 उपजातियों में से 21 को महादलित बना दिया और उसमें सिर्फ पासवानों को शामिल नहीं किया।
पासवान का जनाधार इससे कमजोर पड़ गया था।
लेकिन लोकसभा चुनाव में हार के बाद नीतीश ने जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बनाकर अपने हिसाब से जो मास्टरस्ट्रोक खेला था, वही उनके लिए अभिशाप बनता नजर आ रहा है क्योंकि मांझी ने मौके को भुनाने में ज़रा भी ढील नहीं दी।
अब सबकी नजर बिहार की उन सुरक्षित 38 सीटों पर हैं और इस बात पर भी कि आखिर महादलितों का सर्वमान्य नेता बनता कौन है। नीतीश कुमार के साथ ही इस पदवी के लिए पासवान, रमई राम, श्याम रजक, उदय नारायण चौधरी और अशोक चौधरी जैसे नेता कतार में खड़े हैं।
वैसे, नीतीश कुमार ने एक निजी चैनल पर एक कार्यक्रम में कहा भी कि अगर बिहार की जनता उन्हें वोट नहीं करेगी तो वह यानी जनता लूज़र होगी, खुद नीतीश लूज़र नहीं होंगे। लूज़र कौन होगा यह नवंबर में नतीजों के दिन पता चलेगा लेकिन मांझी के उभार और एनडीए के आक्रामक चुनाव प्रचार अभियान के बरअक्स नीतीश का ऐसा बयान उनके डिगते आत्मविश्वास को ही बताता है।
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