गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर राष्ट्र के नाम संदेश में राष्ट्रपति महोदय ने देश के लोगों से अपील की हिंसा और असहिष्णुता के तत्वों के खिलाफ हमें खुद खड़ा होना होगा। लेकिन लगता है देश के कथित बौद्धिक तबके में इस अपील का असर कुछ ज्यादा ही हो गया।
वाकया जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का है। उम्मीद थी कि जब देश भर के बुद्धिजीवी जयपुर में जमा होंगे तो गुलाबी शहर की गुलाबी ठंडक में लोग देश की समस्याओँ को दूर करने पर चर्चा करेंगे। लेकिन, जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल ने साबित किया कि बुद्धिजीवी तबका भी गाली-गलौज और तू-तड़ाक में हम-आप जैसा ही है।
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का पूरा सत्र तो कुशल-मंगल ही बीता था लेकिन आखिरी दिन ऐसी ज़बानी आतिशबाज़ी हुई कि पूछिए मत। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का मंच गालियों, बाप के नाम की ललकारों और राजनीतिक नारों और जुमलों का गवाह बन गया।
पत्रकार मधु त्रेहन अभिनेत्रियों की तरह बरताव करने लगीं तो अभिनेता अनुपम खेर नेता की तरह, आम आदमी पार्टी के नेता कपिल मिश्रा तो पहलवानों की तरह खैर ताल ठोंक ही रहे थे।
अभिव्यक्ति की आजादी पर शुरू हुई बहस में कोई भी दूसरे की बात सुनने को राजी नहीं था। सब उदारवादी भी अपने उदारवाद को लेकर कट्टर हुए जा रहे थे।
अनुपम खेर ने मंच से सवाल पूछा था कि क्या अभिव्यक्ति की आजादी के साथ जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए? क्या घर में लोग ***** (बहन की गाली) दे सकते हैं? क्या आप अपने पिता से कह सकते हैं कि थप्पड़ मार दूंगा? अनुपम ने इसके बाद भारत में अभिव्यक्ति की आजादी और यहां मिली छूट के कशीदे पढ़े।
दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी के विधायक कपिल मिश्रा का दुख था कि क्या मन की बात एक ही आदमी कर सकता है? कपिल का कहना था कि वह क्या खाएंगे क्या बोलेंगे इस पर दूसरे यह तय न करें। उनका दुख यह भी था कि उनके नेता केजरीवाल को लोग थप्पड़ मार देते हैं, मुंह पर स्याही फेंक देते हैं, उनके नाम को बिगाड़ सकते हैं। लेकिन वह अगर बीजेपी के नेता (प्रधानमंत्री) और कांग्रेस के नेता (राहुल) का नाम बिगाड़े तो लोग उन्हें गालियां देने लगते हैं।
मधु त्रेहन बाबा गुरमीत राम रहीम की नकल उतारने वाले कॉमिडियन कीकू के पक्ष में बोलीं तो स्तंभकार सुहैल सेठ ने आम आदमी पार्टी नेता को आड़े हाथों लिया कि वह इसी फ्रीडम ऑफ स्पीच की वजह से सत्ता में है। उन्होंन कपिल मिश्रा को कहा कि वह बार-बार यह नहीं होने देंगे, वह नहीं होने देंगे न कहा करें।
बहरहाल, जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के मंच पर होनी वाली इस गाली-गलौज भरी बहस ने एक बार फिर यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया है कि क्या हम सच में अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर ज्यादा छूट ले रहे हैं?
आप एक बार टीवी की तरफ नजर दौड़ाएं। जिन चैनलों को, और अखबारों को भी अंधविश्वास और दकियानूसी चीजों के खिलाफ मोर्चा खोलना चाहिए वह अपने बहुमूल्य एयर टाइम और कीमती कागज पर राशिफल दिखाते-छापते हैं। बेसिर-पैर की खबरें और खबरों से ज्यादा सनसनी, जिन टीवी चैनलो को समाचार दिखाने का लाइसेंस सरकार से हासिल हुआ है वह सीरियलों, खासकर कॉमिडी शो के टुकड़े क्यों दिखा रहा है? जाहिर है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर ही।
अगर धारावाहिको की भी बात करें, तो इच्छाधारी नागिन, भूत-प्रेत, जादू-टोने पर आधारित सीरियलों की बाढ़ आई हुई है। यह सब इस नाम पर कि दर्शकों की यही मांग है।
मैंने तो देश के किसी हिस्से में यह आंदोलन होते नहीं देखा कि दर्शक किसी खास किस्म के सीरियल या खबरें दिखाने की मांग को लेकर सड़क जाम कर रहे हों या धरने पर बैठे हों।
केन्द्र की पिछली सरकार ने चैनलों और अखबारों के लिए स्व-नियमन यानी अपना अनुशासन खउद करने की नीति अपनाई थी। यह सरकार भी लगभग वही कर रही है।
लेकिन, यह सवाल टीवी से लेकर सिनेमा तक और खबरिया चैनल से लेकर जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल जैसे आयोजन तक, हर जगह से उठ रहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिल भी जाए, तो अभिव्यक्ति कैसी होनी चाहिए। बाकी जो है सो तो हइए है।
वाकया जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का है। उम्मीद थी कि जब देश भर के बुद्धिजीवी जयपुर में जमा होंगे तो गुलाबी शहर की गुलाबी ठंडक में लोग देश की समस्याओँ को दूर करने पर चर्चा करेंगे। लेकिन, जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल ने साबित किया कि बुद्धिजीवी तबका भी गाली-गलौज और तू-तड़ाक में हम-आप जैसा ही है।
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का पूरा सत्र तो कुशल-मंगल ही बीता था लेकिन आखिरी दिन ऐसी ज़बानी आतिशबाज़ी हुई कि पूछिए मत। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का मंच गालियों, बाप के नाम की ललकारों और राजनीतिक नारों और जुमलों का गवाह बन गया।
पत्रकार मधु त्रेहन अभिनेत्रियों की तरह बरताव करने लगीं तो अभिनेता अनुपम खेर नेता की तरह, आम आदमी पार्टी के नेता कपिल मिश्रा तो पहलवानों की तरह खैर ताल ठोंक ही रहे थे।
अभिव्यक्ति की आजादी पर शुरू हुई बहस में कोई भी दूसरे की बात सुनने को राजी नहीं था। सब उदारवादी भी अपने उदारवाद को लेकर कट्टर हुए जा रहे थे।
अनुपम खेर ने मंच से सवाल पूछा था कि क्या अभिव्यक्ति की आजादी के साथ जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए? क्या घर में लोग ***** (बहन की गाली) दे सकते हैं? क्या आप अपने पिता से कह सकते हैं कि थप्पड़ मार दूंगा? अनुपम ने इसके बाद भारत में अभिव्यक्ति की आजादी और यहां मिली छूट के कशीदे पढ़े।
दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी के विधायक कपिल मिश्रा का दुख था कि क्या मन की बात एक ही आदमी कर सकता है? कपिल का कहना था कि वह क्या खाएंगे क्या बोलेंगे इस पर दूसरे यह तय न करें। उनका दुख यह भी था कि उनके नेता केजरीवाल को लोग थप्पड़ मार देते हैं, मुंह पर स्याही फेंक देते हैं, उनके नाम को बिगाड़ सकते हैं। लेकिन वह अगर बीजेपी के नेता (प्रधानमंत्री) और कांग्रेस के नेता (राहुल) का नाम बिगाड़े तो लोग उन्हें गालियां देने लगते हैं।
मधु त्रेहन बाबा गुरमीत राम रहीम की नकल उतारने वाले कॉमिडियन कीकू के पक्ष में बोलीं तो स्तंभकार सुहैल सेठ ने आम आदमी पार्टी नेता को आड़े हाथों लिया कि वह इसी फ्रीडम ऑफ स्पीच की वजह से सत्ता में है। उन्होंन कपिल मिश्रा को कहा कि वह बार-बार यह नहीं होने देंगे, वह नहीं होने देंगे न कहा करें।
बहरहाल, जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के मंच पर होनी वाली इस गाली-गलौज भरी बहस ने एक बार फिर यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया है कि क्या हम सच में अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर ज्यादा छूट ले रहे हैं?
आप एक बार टीवी की तरफ नजर दौड़ाएं। जिन चैनलों को, और अखबारों को भी अंधविश्वास और दकियानूसी चीजों के खिलाफ मोर्चा खोलना चाहिए वह अपने बहुमूल्य एयर टाइम और कीमती कागज पर राशिफल दिखाते-छापते हैं। बेसिर-पैर की खबरें और खबरों से ज्यादा सनसनी, जिन टीवी चैनलो को समाचार दिखाने का लाइसेंस सरकार से हासिल हुआ है वह सीरियलों, खासकर कॉमिडी शो के टुकड़े क्यों दिखा रहा है? जाहिर है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर ही।
अगर धारावाहिको की भी बात करें, तो इच्छाधारी नागिन, भूत-प्रेत, जादू-टोने पर आधारित सीरियलों की बाढ़ आई हुई है। यह सब इस नाम पर कि दर्शकों की यही मांग है।
मैंने तो देश के किसी हिस्से में यह आंदोलन होते नहीं देखा कि दर्शक किसी खास किस्म के सीरियल या खबरें दिखाने की मांग को लेकर सड़क जाम कर रहे हों या धरने पर बैठे हों।
केन्द्र की पिछली सरकार ने चैनलों और अखबारों के लिए स्व-नियमन यानी अपना अनुशासन खउद करने की नीति अपनाई थी। यह सरकार भी लगभग वही कर रही है।
लेकिन, यह सवाल टीवी से लेकर सिनेमा तक और खबरिया चैनल से लेकर जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल जैसे आयोजन तक, हर जगह से उठ रहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिल भी जाए, तो अभिव्यक्ति कैसी होनी चाहिए। बाकी जो है सो तो हइए है।
अभिव्यक्ति के नाम पर व्यक्त शाब्दिक अश्लीलता..
ReplyDeleteअभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता कई जगहों से आती है: जेएनयू जैसे शिक्षा केन्द्रों से, जनसत्ता जैसे पत्रों से, जागरण से भी. अपनी-अपनी तरह की स्वतन्त्रता, अपनी अपनी व्याख्याएं. शिव सेना और उदित राज से लेकर आज़म खान और योगी आदित्यनाथ तक. कल तक १० जनपथ दिल्ली से तो आजकल नागपुर से संचालित होती है स्वतन्त्रता की सीमा. जयपुर फेस्टिवल तो बस एक प्लेटफार्म था जिसे उपयोग में ला पाए कुछ लोग.
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