मेरे एक दोस्त ने मुझसे पूछा, बंगाल के लोगों की सेहत कैसी है? तभी से मैं सोच रहा हूं कि बंगाल में किसकी सेहत के बारे में बयान किया जाए?
बंगाल में दो तरह के लोग हैं। एक वोटर है, दूसरा नेता है। इन वोटरों में कुछ कैडर हैं, कुछ गैर-कैडर समर्थक हैं। कुछ विरोधी हैं, सबकी सेहत का हाल तकरीबन एक जैसा है।
कैडर का क्या है, जिन कैडरों को वाम ने 34 साल तक पाला-पोसा, उनमें से बेहद प्रतिबद्ध को छोड़कर, बाकी लोग तृणमूल की तरफ मुड़ गए।
जहां तक वोटर का सवाल है, कुछ वोटर बम बना रहे, कुछ खा रहे हैं। पिचके हुए गाल, और पेट के साथ राजनीतिक प्रतिबद्धता बरकरार है। उन्हें लगातार कायदे से प्रशिक्षण दिया जा रहा है कि जीवन व्यर्थ है और उसे अपने पितृदल-मातृदल के लिए निछावर कर देना ही मानव जीवन का सही उपयोग है। सेहत सिर्फ नेताओं की सही है, सभी दल के नेता गोल-मटोल-ताजे-टटके घूम रहे हैं।
आम वोटर, भकुआय़ा हुआ देखता रहता है। वह अपनी झोंपड़ी पर किसी एक दल का या ज्यादा कमजोर हुआ तो सभी दल के झंडे लगा रहा है। स्वास्थ्य सबका ठीक है। बस, खून की कमी है क्योंकि बंगाल की राजनीति में उसे सड़कों पर बहाने की बड़ी गौरवपूर्ण परंपरा है। आज भी उस परंपरा को निभाया जा रहा है।
आम वोटर तब तक सही निशान पर उंगली नहीं लगा पाता, जब तक उसे कायदे से धमकाया न जाए। बंगाल में धमकी देना, राजनीति का पहला पाठ है। इसे सियासत के छुटभैय्ये अंजाम देते हैं, जो चुनाव प्रचार खत्म होने के बाद, अगले 48 घंटों में संपन्न किया जाता है। इसके तहत ज़मीनी पार्टी कार्यकर्ता घर-घर जाकर बाकायदा धमकी देने की रस्म पूरी करते हैं कि अलां पार्टी को बटन दबा देना, बिलकुल सुबह जाकर। इवीएम से बिलकुल सही पार्टी के पक्ष में ‘पीं’ निकलना चाहिए वरना तुम्हे ‘चीं’ बुलवा दिया जाएगा। इसके बाद कार्यकर्ता वोटर को प्यार से समझाता है कि वोट विरोधी पार्टी को देने पर हाथ भी काटे जा सकते हैं, और फिर इसके बाद वह बंगाल के विभिन्न इलाकों में हुए ऐसे महत्वपूर्ण और इतिहास में स्थान रखने वाले उदाहरण गिनाता है।
वोटर का ब्लड प्रेशर सामान्य हो जाता है। वह समझ जाता है कि राजनीतिक हिंसा की इस गौरवपूर्ण परंपरा और इतिहास में उसके हाथ काटे जाने को फुटनोट में भी जगह नहीं मिलेगी।
बंगाल वोटर की आंखें कमजोर हैं क्योंकि दूरदृष्टि-निकट दृष्टि के साथ विकट दृष्टि दोष भी है। याद्दाश्त समय के साथ कमजोर हो गई है, हिप्नोटिज़म का उचित इस्तेमाल किया जा रहा है। वोटरों की आंखों के सामने उन्हें याद दिलाया जा रहा है कि हमने उनके लिए क्या-क्या किया है, क्या-क्या किया जा सकता है।
वोटर गजनी की तरह शॉर्ट टर्म मेमरी लॉस का शिकार हो गया है। उसे दो महीने पहले की बात याद नहीं रहती, यह बात सभी पार्टियों को पता है। सीपीएम को पता है, कांग्रेस के पास विकल्प नहीं है। डायनासोर बनने से अच्छा है, खुद को बदल लिया जाए। कांग्रेस जानती है कि वोटर को यह कत्तई याद नहीं होगा कि वर्धवान जिले में 1971 में साईंबाड़ी में सीपीएम के कैडरों ने उसके कार्यकर्ता के साथ क्या किया था।
असल में पार्टी को मजबूत बनाना हो तो ऐसे कारनामे करने होते हैं। साईं बाड़ी में कांग्रेस के एक कार्यकर्ता की हत्या कर उसके खून में भात सानकर उसकी मां को जबरन खिलाया गया था। क्रांति की राह में ऐसी वारदातें बहुत आम हैं।
ज़मीनी कार्यकर्ता रूठ भले जाए लेकिन सियासी खेल में एंडीजेन-एंडीबॉडी की तरह फ्रेंडली फाइट उर्फ दोस्ताना संघर्ष होते रहना चाहिए। ज़मीनी कार्यकर्ता का क्या है, वो तो झक मारकर आएगा ही।
बंगाल में वोटर को नेता-कार्यकर्ता सधे हुए डॉक्टर की तरह दवा लेने का नुस्खा समझाते हैं, हंसिया-हथौड़ा दिए चो कि फूल छाप? कोन फूल टा? एकला फूल ना जोड़ा फूल?
कुपोषण से ग्रस्त वोटर के पास दाल-रोटी की चिंता है, राइटर्स में ममता बैठें या बुद्धो बाबू, उसके लिए सब बराबर हैं। बंगाल के नेता के लिए वोटर महज सरदर्द के बराबर है। दिल्ली में बैठे पत्रकार अपनी बातचीत में कहते जरूर हैं, कि बंगाल का वोटर बहुत जागरूक है।
लेकिन सच यह है कि बंगाल का नेता बहुत जागरूक है और उससे भी अधिक जागरूक है वह कैडर, जो बंगाल में अधिक से अधिक वोटिंग को सुनिश्चित करता है अब इसमें कुछ मृतक वोटरों के भी वोट डल जाएं तो इस कार्यकर्ता का क्या कुसूर?
मंजीत ठाकुर
कैडर का क्या है, जिन कैडरों को वाम ने 34 साल तक पाला-पोसा, उनमें से बेहद प्रतिबद्ध को छोड़कर, बाकी लोग तृणमूल की तरफ मुड़ गए।
जहां तक वोटर का सवाल है, कुछ वोटर बम बना रहे, कुछ खा रहे हैं। पिचके हुए गाल, और पेट के साथ राजनीतिक प्रतिबद्धता बरकरार है। उन्हें लगातार कायदे से प्रशिक्षण दिया जा रहा है कि जीवन व्यर्थ है और उसे अपने पितृदल-मातृदल के लिए निछावर कर देना ही मानव जीवन का सही उपयोग है। सेहत सिर्फ नेताओं की सही है, सभी दल के नेता गोल-मटोल-ताजे-टटके घूम रहे हैं।
आम वोटर, भकुआय़ा हुआ देखता रहता है। वह अपनी झोंपड़ी पर किसी एक दल का या ज्यादा कमजोर हुआ तो सभी दल के झंडे लगा रहा है। स्वास्थ्य सबका ठीक है। बस, खून की कमी है क्योंकि बंगाल की राजनीति में उसे सड़कों पर बहाने की बड़ी गौरवपूर्ण परंपरा है। आज भी उस परंपरा को निभाया जा रहा है।
आम वोटर तब तक सही निशान पर उंगली नहीं लगा पाता, जब तक उसे कायदे से धमकाया न जाए। बंगाल में धमकी देना, राजनीति का पहला पाठ है। इसे सियासत के छुटभैय्ये अंजाम देते हैं, जो चुनाव प्रचार खत्म होने के बाद, अगले 48 घंटों में संपन्न किया जाता है। इसके तहत ज़मीनी पार्टी कार्यकर्ता घर-घर जाकर बाकायदा धमकी देने की रस्म पूरी करते हैं कि अलां पार्टी को बटन दबा देना, बिलकुल सुबह जाकर। इवीएम से बिलकुल सही पार्टी के पक्ष में ‘पीं’ निकलना चाहिए वरना तुम्हे ‘चीं’ बुलवा दिया जाएगा। इसके बाद कार्यकर्ता वोटर को प्यार से समझाता है कि वोट विरोधी पार्टी को देने पर हाथ भी काटे जा सकते हैं, और फिर इसके बाद वह बंगाल के विभिन्न इलाकों में हुए ऐसे महत्वपूर्ण और इतिहास में स्थान रखने वाले उदाहरण गिनाता है।
वोटर का ब्लड प्रेशर सामान्य हो जाता है। वह समझ जाता है कि राजनीतिक हिंसा की इस गौरवपूर्ण परंपरा और इतिहास में उसके हाथ काटे जाने को फुटनोट में भी जगह नहीं मिलेगी।
बंगाल वोटर की आंखें कमजोर हैं क्योंकि दूरदृष्टि-निकट दृष्टि के साथ विकट दृष्टि दोष भी है। याद्दाश्त समय के साथ कमजोर हो गई है, हिप्नोटिज़म का उचित इस्तेमाल किया जा रहा है। वोटरों की आंखों के सामने उन्हें याद दिलाया जा रहा है कि हमने उनके लिए क्या-क्या किया है, क्या-क्या किया जा सकता है।
वोटर गजनी की तरह शॉर्ट टर्म मेमरी लॉस का शिकार हो गया है। उसे दो महीने पहले की बात याद नहीं रहती, यह बात सभी पार्टियों को पता है। सीपीएम को पता है, कांग्रेस के पास विकल्प नहीं है। डायनासोर बनने से अच्छा है, खुद को बदल लिया जाए। कांग्रेस जानती है कि वोटर को यह कत्तई याद नहीं होगा कि वर्धवान जिले में 1971 में साईंबाड़ी में सीपीएम के कैडरों ने उसके कार्यकर्ता के साथ क्या किया था।
असल में पार्टी को मजबूत बनाना हो तो ऐसे कारनामे करने होते हैं। साईं बाड़ी में कांग्रेस के एक कार्यकर्ता की हत्या कर उसके खून में भात सानकर उसकी मां को जबरन खिलाया गया था। क्रांति की राह में ऐसी वारदातें बहुत आम हैं।
ज़मीनी कार्यकर्ता रूठ भले जाए लेकिन सियासी खेल में एंडीजेन-एंडीबॉडी की तरह फ्रेंडली फाइट उर्फ दोस्ताना संघर्ष होते रहना चाहिए। ज़मीनी कार्यकर्ता का क्या है, वो तो झक मारकर आएगा ही।
बंगाल में वोटर को नेता-कार्यकर्ता सधे हुए डॉक्टर की तरह दवा लेने का नुस्खा समझाते हैं, हंसिया-हथौड़ा दिए चो कि फूल छाप? कोन फूल टा? एकला फूल ना जोड़ा फूल?
कुपोषण से ग्रस्त वोटर के पास दाल-रोटी की चिंता है, राइटर्स में ममता बैठें या बुद्धो बाबू, उसके लिए सब बराबर हैं। बंगाल के नेता के लिए वोटर महज सरदर्द के बराबर है। दिल्ली में बैठे पत्रकार अपनी बातचीत में कहते जरूर हैं, कि बंगाल का वोटर बहुत जागरूक है।
लेकिन सच यह है कि बंगाल का नेता बहुत जागरूक है और उससे भी अधिक जागरूक है वह कैडर, जो बंगाल में अधिक से अधिक वोटिंग को सुनिश्चित करता है अब इसमें कुछ मृतक वोटरों के भी वोट डल जाएं तो इस कार्यकर्ता का क्या कुसूर?
मंजीत ठाकुर
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