आसनसोल झारखंड की सरहद से लगा पश्चिम बंगाल का दूसरा सबसे बड़ा शहर है। रेलवे का बड़ा केन्द्र। पहले कभी इस इलाके में कोयले की बहुत सारी खदानें थीं, और कांच के सामान बनाने वाले कारखानों से लेकर इस इलाके में उद्योगो का जाल बिछा था।
लेकिन आसनसोल के पास कुल्टी में राहुल गांधी एक जनसभा को संबोधित करने वाले थे तो मेरी मुलाकात परचून की दुकान में काम करने वाले भास्कर घोष से हुई। भास्कर पहले आसनसोल औद्योगिक क्षेत्र के एक तापबिजली घर में कर्मचारी थे, लेकिन वाम मोर्चे के शासनकाल में बीमार चल रहा उद्योग ममता के शासन में आकर बंद हो गया और कारखाने में काम कर रहे डेढ़ सौ नियमित और करीब दो सौ ठेके पर काम करने वाले कर्मचारी बेरोजगार हो गए। अब ये लोग सड़क पर आ गए हैं।
बिजलीघर के बंद होने की मुखालफत में कर्मचारी तीस महीने तक धरने पर बैठा रहा। वामपंथी कामगार यूनियनों से उनका साथ नहीं दिया। वजहः यह कारखाना बंद करने का आदेश तो उनकी सरकार ने ही दिया था। अब फैक्ट्री के ज्यादातर कर्मचारी सड़क पर आ गए। रोज़ी-रोटी की तलाश अधेड़ हो चुके लोगों के लिए आसान नहीं थी।
यह स्थिति सिर्फ आसनसोल के किसी भास्कर घोष या किसी चंदन चक्रवर्ती की ही नहीं हुई, बल्कि पूरे बंगाल में उद्योग बीमार हो गए, बंद हो गए।
आजादी के वक्त रोजजगार देने के मामले में बंगाल के उद्योग उस वक्त के बंबई यानी आज के गुजरात और महाराष्ट्र दोनों राज्यो के बराबर था। सन 60 के दशक तक बंगाल कारखानों के मामले में पूरे देश में अव्वल था। सन 1971 के आंकड़े बताते हैं कि नेट वैल्यू के लिहाज से यहां कारखाने पूरे देश के 14 फीसद थे और आज की तारीख में यह 4 फीसद से भी कम है। लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने के मामले में सन 1971 का यह आंकड़ा 16 फीसद से 2012 में घटकर 6 फीसद हो गया।
पूरे औद्योगिक उत्पादन के लिहाज से बंगाल पिछले तीस साल में पचास फीसद की कमी आई है। सल् 1991 के बाद से भारत में हुए कुल विदेशी निवेश का महज 2 फीसद यहां आया है। एक अनुमान के मुताबिक बंगाल में स्टेट डोमेस्टिक प्रोडक्ट गुजरात के 28 फीसद की बनिस्बत महज 10 फीसद है। जाहिर है, तमाम दावों और न जाने कितने व्यापार मेलों के बाद भी ममता बनर्जी बंगाल के उद्योगों को धीमी मौत मरने से नहीं उबार पाई हैं।
वाम मोर्चे ने एक रिकॉर्ड ज़रूर बनाया हैः दुनिया में सबेस लंबे वक्त तक चलने वाली चुनी हुई कम्युनिस्ट सरकार चलाने का। लेकिन उनके खाते में एक और शर्मनाक रिकॉर्ड होगाः किसी सूबे में सबसे अधिक कारखाने बंद होने का। एक फलता-फूलता राज्य तबाही की कगार पर जा खड़ा हुआ और ओवरड्राफ्ट का शिकार हो गया।
साल 2011 के विधानसबा चुनावों के वक्त ममता बनर्जी ने वादा किया था कि वह सूबे में छोटे, लघु और मंझोले उद्योगो को तरज़ीह देकर औद्योगिक सूरतेहाल की शक्ल बदल देंगी। बंद उद्योगों को फिर से खोला जाएगा, इंजीनियरिंग, इस्पात, चाय और कपड़ा जैसे भारी उद्योग खोले जाएंगे।
पांच बरस बीत गए। इस बार के चुनावी मैनिफेस्टो में ममता के पास कहने के लिए कुछ आंकड़े हैं। अभी तक 2.26 लाख करोड़ के निवेश पर बात चल रही है और सवा दो लाख करोड़ की अन्य परियोजनाएं भी आ रही हैं। ममता ने 48 घंटो के भीतर 143 कारोबारी बैठकें कीं, और 68 सहमति पत्रो पर दस्तख़त किए। राज्य की 7 करोड़ आबादी को 2 रूपये किलो चावल दिया जा रहा है और बंगाल के किसानों की सालाना आमदनी 1.60 लाख रूपये है।
ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और है। कुल मिला कर पांच लाख करोड़ की परियोजनाएं और विनेश हवा में हैं और उनके कागज़ों पर कोई काम नहीं हुआ है। कारोबारी बैठकें चाहे कितनी कर लें लेकिन उनका नतीजा सिफर रहा है। 2 रूपये किलो चावल पर 27 रूपये की सब्सिडी केन्द्र सरकार देती है और यह चावल जरूरतमंदो तक पहुंचने से पहले कहीं शून्य में विलीन हो जाता है। ममता के दावे के हिसाब से बंगाल का किसान भारत का सबसे अमीर किसान है लेकिन वीरभूम-बांकुड़ा-वर्धवान से प्रायः किसान आत्महत्याओं की खबरें आती रहती हैं।
ममता ने वाम को बेदखल करके सत्ता हासिल की थी तो आम लोगों को उम्मीद जगी थी उनसे। इस बार ममता बनर्जी की वापसी राइटर्स बिल्डिंग में तय है। लेकिन कोई उनको बताए कि आंकड़ों की हवाबाज़ी और ज़मीन सच्चाई में ज़मीन आसमान का फर्क है।
बंद होते उद्योग आंकड़ों से नहीं, निवेश से शुरू होंगे और तब ही किसी चंदन चक्रवर्ती और किसी भास्कर घोष के घर का चूल्हा दोनों वक्त जला करेगा। आमीन
लेकिन आसनसोल के पास कुल्टी में राहुल गांधी एक जनसभा को संबोधित करने वाले थे तो मेरी मुलाकात परचून की दुकान में काम करने वाले भास्कर घोष से हुई। भास्कर पहले आसनसोल औद्योगिक क्षेत्र के एक तापबिजली घर में कर्मचारी थे, लेकिन वाम मोर्चे के शासनकाल में बीमार चल रहा उद्योग ममता के शासन में आकर बंद हो गया और कारखाने में काम कर रहे डेढ़ सौ नियमित और करीब दो सौ ठेके पर काम करने वाले कर्मचारी बेरोजगार हो गए। अब ये लोग सड़क पर आ गए हैं।
बिजलीघर के बंद होने की मुखालफत में कर्मचारी तीस महीने तक धरने पर बैठा रहा। वामपंथी कामगार यूनियनों से उनका साथ नहीं दिया। वजहः यह कारखाना बंद करने का आदेश तो उनकी सरकार ने ही दिया था। अब फैक्ट्री के ज्यादातर कर्मचारी सड़क पर आ गए। रोज़ी-रोटी की तलाश अधेड़ हो चुके लोगों के लिए आसान नहीं थी।
यह स्थिति सिर्फ आसनसोल के किसी भास्कर घोष या किसी चंदन चक्रवर्ती की ही नहीं हुई, बल्कि पूरे बंगाल में उद्योग बीमार हो गए, बंद हो गए।
आजादी के वक्त रोजजगार देने के मामले में बंगाल के उद्योग उस वक्त के बंबई यानी आज के गुजरात और महाराष्ट्र दोनों राज्यो के बराबर था। सन 60 के दशक तक बंगाल कारखानों के मामले में पूरे देश में अव्वल था। सन 1971 के आंकड़े बताते हैं कि नेट वैल्यू के लिहाज से यहां कारखाने पूरे देश के 14 फीसद थे और आज की तारीख में यह 4 फीसद से भी कम है। लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने के मामले में सन 1971 का यह आंकड़ा 16 फीसद से 2012 में घटकर 6 फीसद हो गया।
पूरे औद्योगिक उत्पादन के लिहाज से बंगाल पिछले तीस साल में पचास फीसद की कमी आई है। सल् 1991 के बाद से भारत में हुए कुल विदेशी निवेश का महज 2 फीसद यहां आया है। एक अनुमान के मुताबिक बंगाल में स्टेट डोमेस्टिक प्रोडक्ट गुजरात के 28 फीसद की बनिस्बत महज 10 फीसद है। जाहिर है, तमाम दावों और न जाने कितने व्यापार मेलों के बाद भी ममता बनर्जी बंगाल के उद्योगों को धीमी मौत मरने से नहीं उबार पाई हैं।
वाम मोर्चे ने एक रिकॉर्ड ज़रूर बनाया हैः दुनिया में सबेस लंबे वक्त तक चलने वाली चुनी हुई कम्युनिस्ट सरकार चलाने का। लेकिन उनके खाते में एक और शर्मनाक रिकॉर्ड होगाः किसी सूबे में सबसे अधिक कारखाने बंद होने का। एक फलता-फूलता राज्य तबाही की कगार पर जा खड़ा हुआ और ओवरड्राफ्ट का शिकार हो गया।
साल 2011 के विधानसबा चुनावों के वक्त ममता बनर्जी ने वादा किया था कि वह सूबे में छोटे, लघु और मंझोले उद्योगो को तरज़ीह देकर औद्योगिक सूरतेहाल की शक्ल बदल देंगी। बंद उद्योगों को फिर से खोला जाएगा, इंजीनियरिंग, इस्पात, चाय और कपड़ा जैसे भारी उद्योग खोले जाएंगे।
पांच बरस बीत गए। इस बार के चुनावी मैनिफेस्टो में ममता के पास कहने के लिए कुछ आंकड़े हैं। अभी तक 2.26 लाख करोड़ के निवेश पर बात चल रही है और सवा दो लाख करोड़ की अन्य परियोजनाएं भी आ रही हैं। ममता ने 48 घंटो के भीतर 143 कारोबारी बैठकें कीं, और 68 सहमति पत्रो पर दस्तख़त किए। राज्य की 7 करोड़ आबादी को 2 रूपये किलो चावल दिया जा रहा है और बंगाल के किसानों की सालाना आमदनी 1.60 लाख रूपये है।
ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और है। कुल मिला कर पांच लाख करोड़ की परियोजनाएं और विनेश हवा में हैं और उनके कागज़ों पर कोई काम नहीं हुआ है। कारोबारी बैठकें चाहे कितनी कर लें लेकिन उनका नतीजा सिफर रहा है। 2 रूपये किलो चावल पर 27 रूपये की सब्सिडी केन्द्र सरकार देती है और यह चावल जरूरतमंदो तक पहुंचने से पहले कहीं शून्य में विलीन हो जाता है। ममता के दावे के हिसाब से बंगाल का किसान भारत का सबसे अमीर किसान है लेकिन वीरभूम-बांकुड़ा-वर्धवान से प्रायः किसान आत्महत्याओं की खबरें आती रहती हैं।
ममता ने वाम को बेदखल करके सत्ता हासिल की थी तो आम लोगों को उम्मीद जगी थी उनसे। इस बार ममता बनर्जी की वापसी राइटर्स बिल्डिंग में तय है। लेकिन कोई उनको बताए कि आंकड़ों की हवाबाज़ी और ज़मीन सच्चाई में ज़मीन आसमान का फर्क है।
बंद होते उद्योग आंकड़ों से नहीं, निवेश से शुरू होंगे और तब ही किसी चंदन चक्रवर्ती और किसी भास्कर घोष के घर का चूल्हा दोनों वक्त जला करेगा। आमीन
मंजीत ठाकुर
No comments:
Post a Comment