Monday, October 31, 2016

विवाद के बाद अखिलेश

सारे देश के राजनीतिक पंडितों को यकीन है कि उत्तर प्रदेश में सत्ता-विरोधी लहर होगी और पिछले दो दशकों से ज्यादा वक्त से वैकल्पिक रूप से सत्ता में आ रहे सपा-बसपा के मामले में इस बार बीजेपी का पलड़ा पिछले विधानसभा चुनावों के मुकाबले ज्यादा मजबूत होगा।

कई जानकार इस दफा होने वाले चुनावों में अस्पष्ट जनादेश मिलने के आसार भी व्यक्त कर रहे थे। कई चुनाव-पूर्व सर्वे भी आए, जिसमें सपा को कम सीटें दी गई थीं।

चुनाव-पूर्व विवादों से वोटरों के तय समीकरणों में बदलाव आता है।

उत्तर प्रदेश के पिछले विवाद को याद कीजिए। बीजेपी के नेता ने मायावती के बारे में अपशब्दों का प्रयोग किया, बदले में उनकी पत्नी और बिटिया को गाली दी गई और उससे हुए विवाद और वितंडे के बाद दौड़ से बाहर चल रही बसपा चर्चा में आ गई और लगा कि प्रदेश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बसपा बन जाएगी।

मुख्यमंत्री रहते, अखिलेश यादव ने युवाओं के नेता के रूप में खुद को स्थापित करने को प्रायः सफल चेष्टा की है लेकिन जोरदार मोदी लहर के अंधड़ में लोकसभा चुनावों के दौरान सब कुछ उड़ गया था। बसपा का तो सूपड़ा साफ हो गया था।

लेकिन समाजवादी पार्टी के अगुआ कुनबे में पैदा हुए विवाद के बाद फिलहाल फायदा तो अखिलेश यादव को होती दिख रही है। विवाद के पहले और आज की तारीख की तुलना की जाए तो अखिलेश यादव की इमेज लोगों की निगाह में काफी सुधरी है और यहां तक कि मुलायम सिंह यादव के मुकाबले अखिलेश को पसंद करने वालों की गिनती में तेजी से इजाफा हुआ है।

अखिलेश की लोकप्रियता उस वर्ग में बढ़ी है जो परंपरागत रूप से समाजवादी पार्टी के वोट बैंक माने जाते हैं। यानी यादवों और मुस्लिम मतदाताओं के बीच सितंबर की बनिस्बत अखिलेश अक्तूबर में ज्यादा लोकप्रिय हो गए हैं। और यह आंकड़े सी-वोटर के एक सर्वे में आए हैं।

गौर कीजिए कि लोकप्रियता के मामले में अखिलेश खुद सपा सुप्रीमो नेताजी के बरअक्स खड़े होने की राह पर हैं और शिवपाल तो उनके सामने कहीं नहीं ठहरते।

वैसे, समाजवादी पार्टी की छवि कानून-व्यवस्था के मामले कुछ अच्छी नहीं है, लेकिन सर्वे में शामिल लोगों ने यह माना है कि अखिलेश अपनी पार्टी की इमेज बदलने की कोशिश कर रहे हैं। परिवार के बवाल में दोनों ओर से आरोप-प्रत्यारोप हुए, शिवपाल ने सार्वजनिक रूप से कहा कि मुख्यमंत्री झूठ कह रहे हैं, और सारे देश ने टीवी पर इसका तमाशा देखा, लेकिन इससे शिवपाल को कोई फायदा नहीं हुआ है। इमेज के मामले में, अखिलेश शिवपाल से इक्कीस तो थे ही, इस प्रकऱण में उनकी स्वीकार्यता, चुनावी गणित के लिहाज से पहले से अधिक है और युवाओं मे यह संदेश गया है कि परिवार की खातिर मुलायम अखिलेश पर दवाब डाल रहे हैं।

बहरहाल, इस पूरे विवाद की कड़वाहट में अखिलेश यादव के लिए अच्छी बात यह है कि मायावती खबरों की दौड़ से बाहर हो गई हैं और टेलिविज़न चैनलों पर खबरों में तीन दिनों तक लगातार छाए रहने के बाद उत्तर प्रदेश चुनाव में विमर्श का मुद्दा अखिलेश हैं। खबरों में बना रहना भी सियासी बढ़त ही है, फिलहाल अखिलेश ने बीजेपी की सत्ता में वापसी की कयासों के बीच खुद को दूसरे नंबर पर ले जाने की कवायद में अपना हाथ ऊपर किया है।




मंजीत ठाकुर

Saturday, October 22, 2016

धोनी की ढलान

महेन्द्र सिंह धोनी जब विकेट पर बल्लेबाज़ी करने आते थे तो दुनिया के किसी भी हिस्से में हो रहे मैच में किसी भी स्कोर का पीछा करना नामुमकिन नहीं लगता था। दुनिया के सबसे बेहतरीन फीनिशर धोनी का करिश्मा शायद अब चुकने लगा है।

चार महीने के आराम के बाद महेन्द्र सिंह धोनी ज़रूर वनडे मैचों के ज़रिए क्रिकेट की दुनिया में जलवा दिखाने को बेताब होंगे। लेकिन, न्यूज़ीलैंड के साथ बीते दोनों मैचों में महेन्द्र सिंह धोनी का वह जादू गायब था, जिसके दम पर एक फ़िल्म बनकर तैयार हो गई और जिसके तिलिस्म में सुशांत सिंह राजपूत भी अपनी फिल्म को सौ करोड़ के सुनहरे क्लब में शामिल कराने में कामयाब हो गए।

जब टीम मुसीबत में होती थी तो धोनी बल्ला थामकर आते थे और जब वह वापस पवेलियन लौट रहे होते तो चेहरे पर विजयी मुस्कान चस्पां होती थी। यही विजयी मुस्कान गायब हो गई है।

धोनी को अपनी इस जिताऊ भूमिका को निभाए, अगर आपको याद हो, एक अरसा गुज़र गया है। अरसा, यानी पूरा एक साल, जब इंदौर वनडे में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ धोनी ने नाबाद 92 रन बनाए थे।

हैरत की बात नहीं, कि अब तक उनके जिम्मे रहे फिनिशर के इस काम के लिए टीम इंडिया दूसरे विकल्पों की तरफ ताक रही हो। इस सूची में रैना भी रहे लेकिन उनके फॉर्म में उतार-चढ़ाव आता रहा और वह इस रोल के लिए फिट नहीं पाए गए। अब इस फेहरिस्त में नया नाम हार्दिक पंड्या के रूप में देखा जा रहा है। पंड्या ने शुरूआत तो ठीक की है, लेकिन दिल्ली वनडे में वह खेल को अंत तक नहीं ले जा सके।

इन सब बातों के बाद भी, धोनी की स्थिति पर हमें सहानुभूति से विचार करना होगा। उनकी उम्र 35 साल से अधिक की हो चुकी है, अपने टेस्ट करियर को उन्होंने अलविदा कह दिया है। उनके खेल में ढलान आ रहा है और इंदौर वनडे के 92 रनों वाली उस धमाकेदार पारी के बाद से धोनी ने एक भी पचासा तक नहीं लगाया है।

शायद यह बदलते वक्त का इशारा है। धोनी की बल्लेबाज़ी में वह धमक नहीं रही, जिसने उनको लाखों-करोड़ो लोगो के दिलों की धड़कन बना दिया था।

दूसरी पारी में लक्ष्य का पीछा करते हुए धोनी ने 119 पारियों में 50 से अधिक के औसत से रन कूटे थे और करीब 4 हजार रन इकट्ठे किए। गौरतलब यह भी है कि अपने अंतरराष्ट्रीय खेल जीवन में धोनी ने अपने सभी 20 मैन ऑफ द मैच पुरस्कार तभी हासिल किए हैं, जब भारत ने लक्ष्य का पीछा किया है।

लेकिन वह दौर शायद गुजर गया जब गेन्दबाज़ धोनी के सामने गेन्दबाज़ी करने से सहमते थे और कुट-पिसकर ड्रेसिंग रूम में लौटते तो अगले मैच में होने वाली कुटाई से बचने की कोशिशों पर चर्चा करते। धोनी अब उतने घातक और मारक नहीं रहे। इस बात की पुष्टि कर दी दिल्ली वनडे ने, जिसमें भारत 6 रनों से हार गया।

धोनी को शतक लगाए तीन साल बीत गए हैं। याद कीजिए उन्होंने 19 अक्तूबर 2013 में मोहाली में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ सैकड़ा लगाया था। साल 2014 की जनवरी के बाद से धोनी का औसत 41 से थोड़ा ही ऊपर रहा है। वैसे, यह आंकड़े बहुत बुरे नहीं हैं, लेकिन धोनी के स्तर के तो नहीं ही हैं।

शायद यह उम्र का तकाजा है। शायद धोनी खेलते-खेलते थक गए हों। शायद, कप्तानी के बोझ ने उनकी बल्लेबाज़ी पर असर डाला हो। शायद, हम उनसे बहुत ज्यादा उम्मीद लगाए बैठे हैं। शायद...लेकिन हमारी इन उम्मीदों को धोनी ने ही बढ़ाया है। धोनी को, और हमें भी यह मान लेना चाहिए कि वक्त बदल गया है।

भारत में बुढ़ाए खिलाड़ियों को बेइज़्ज़त करके टीम से बाहर बिठाने की बड़ी बदतर परंपरा रही है। उम्मीद है कि धोनी ऐसा नहीं होने देंगे।



मंजीत ठाकुर

Sunday, October 16, 2016

तीन तलाक़ औरत बनाम मर्द की ग़ैर-बराबरी का मामला है।

तीन तलाक़ का मसला सांप्रदायिक रंग लेने लगा है। लेकिन तीन तलाक़ का मामला ना मीडिया ने उठाया था और ना बीजेपी ने। हम मुख्य धारा की मीडिया की बहसों या सोशल मीडिया में इसे ऐसी बिनाह पर खारिज नहीं कर सकते। यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है। बाकी याचिकाओं के साथ, इस जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने खुद संज्ञान लिया और सरकार से इस पर उसका रूख पूछा था।

फिर सरकार ने इस पर अपनी राय हलफनामे के रूप में रखी। सात अक्तूबर को सरकार ने सुप्रीम को दिए अपने हलफनामे में कहा कि ‘तीन तलाक़ के मसले के लिए संविधान में कोई जगह नहीं है। पुरूषों की एक से अधिक शादी की इजाजत भी संविधान नहीं देता और तीन तलाक़ और बहुविवाह इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं है।‘

क्योंकि संविधान सभी लोगों की समानता की बात करता है और तीन तलाक़ मर्दो और औरतों के बीत गैर-बराबरी वाली परंपरा है ऐसे में केन्द्र सरकार का हलफनामा भारत के इतिहास का पहला दस्तावेज़ बन गया है जब सरकार मुस्लिमों के तीन तलाक़, हलाला और बहुविवाह को धर्मनिरपेक्षता और लैंगिक समानता के खिलाफ बताया है।

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और तमाम मुस्लिम संगठन केन्द्र के इस हलफनामे को मुस्लिम-विरोधी और समान नागरिक संहिता की दिशा में आगे बढ़ा एक कदम मान रहे हैं। फिर भी, हलफनामे के बाद जिस तरह से मुस्लिम संगठन हो-हल्ला कर रहे हैं, उसकी वजहों को तलाशना कोई रॉकेट साइंस नहीं हैं। 

वैसे भी, समान नागरिक संहिता देश में क्यों लागू नहीं हो सकता यह बहस का विषय तो है। वैसे भी सुधार की प्रक्रियाएं धीमी चलती हैं। खासकर, वह प्रक्रियाएं अगर धर्म से जुड़ी हों। जैन धर्म से जुड़ी संथारा प्रथा को रोकने के लिए भी मामला सुप्रीम कोर्ट में है।

फिलहाल, उत्तर प्रदेश चुनाव के सिर पर आने की पृष्ठभूमि में इस मामले के आने और हो-हल्ले में ज्यादातर प्रगतिशील लोगों का चेहरा खुलकर सामने आ गया है। कल तक महिला प्रगतिशीलता की बात करने वाले लोग, आज इसे धर्म पर सरकार का हमला मानने लगे हैं और नरेन्द्र मोदी पर निजी कटाक्ष कर रहे हैं।

एक निजी अंग्रेजी खबरिया चैनल में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के एक साहब ने खम ठोंककर कह ही दियाः वह पहले मुसलमान हैं फिर भारतीय। और वह भारतीय संविधान नहीं मानते। ठीक है। लेकिन संविधान की जिस धारा 25 के तहत वह धार्मिक परंपराएं मानने की आजादी का अधिकार मांगा जाता है, वह भी तो संविधान प्रदत्त ही है। जिस संविधान के तहत आप अधिकार का उपभोग करते हैं, वह अधिकार भी तभी मिलेगा जब आप संविधान को मानेंगे। सुविधाजनक बातें हमेशा अच्छी लगती हैं।

तीन तलाक़ देना अगर धर्म के लिहाज़ से ज़रूरी है, फिर तो पाकिस्तान, मोरक्को, ट्यूनीशिया और मिस्र जैसे एक दर्जन इस्लामी देशों के लोग मुसलमान ही नहीं है, जहां तीन तलाक़ खत्म भले ही नहीं किया गया हो, लेकिन एक हद तक नियंत्रित कर दिया गया है।

गलत परंपराओं की लड़ाई लंबी होती है और कानून एक मज़बूत हथियार होता है लड़ने के लिए। इसलिए तीन तलाक, हलाला और बहुविवाह पर कानूनी प्रतिबंध ज़रूरी है।

कई मुस्लिम धर्मगुरूओ ने कहा कि तीन तलाक़ की प्रथा पर बंदिश लगते ही महिलाओं पर रेप, हमले और अपराध बढ़ जाएंगे। कोई बताएगा कि यह कैसे होगा? वैसे आधिकारिक तो नहीं, लेकिन एक अध्ययन बताता है कि हिन्दू समुदाय में जहां तलाक के आंकड़े जहां सवा दो फीसद के आसपास हैं, वहीं यह मुस्लिम समुदाय में पांच फीसद के आसपास है।

हम मानते हैं कि यूपी में इलेक्शन पास है, और इलेक्शन, इश्क़ और लड़ाई में सब जायज़ होता है। इसके लिए आप सुप्रीम कोर्ट के एक सुधारवादी कदम को धर्म के खिलाफ साजिश करार देकर चीख सकते हैं, लेकिन सच यही है कि यह मसला महिला अधिकार बनाम पुरूष वर्चस्व भर का है।




मंजीत ठाकुर

Wednesday, October 12, 2016

एम एस धोनीः द अनटोल्ड स्टोरी की लेट-लतीफ समीक्षा

मुझे क्रिकेट पसंद है और धोनी भी। ऐसे में मुझे एस एम धोनीः द अनटोल्ड स्टोरी तो देखनी ही थी। मैंने फिल्म देर से देखी, और कायदे से देखी।

महेन्द्र सिंह धोनी, में अभी क्रिकेट काफी बाकी है और उनका स्टारडम खत्म नहीं हुआ है। ऐसे में उन पर बनने वाली बायोपिक के रिलीज़ का यही सही वक्त है। मैं शर्तिया कह सकता हूं कि सचिन पर बने बायोपिक से बाजा़र सौ करोड़ कमाकर नहीं देगा।

बहरहाल, इस कमाऊ फ़िल्म से आप शिल्प और कला पक्ष की उम्मीद न करें, तो बेहतर। यह महेन्द्र सिंह धोनी के जीवन पर आधारित एक मनोरंजक फिल्म है, जिसकी पटकथा का बड़ा हिस्सा सतही है। धोनी का किरदार नीरज पांडे कायदे से रजत पट पर उकेर नहीं पाए हैं। जबकि, हमारी उम्मीदें उस निर्देशक से हद से ज्यादा थीं जिन्होंने इससे पहले अ वैडनेसडे और स्पेशल छब्बीस जैसी फिल्में दी हैं।

इस फिल्म को बायोपिक कहना गलत होगा क्योंकि धोनी की जिंदगी को यह कुछ बारीकी से पेश नहीं कर पाई है। जो बारीकी आपने भाग मिल्खा भाग या मैरी कॉम में देखी होगी, या पान सिंह तोमर में, वह सूक्ष्मता इस फिल्म से नदारद है। खबरें हैं कि नीरज पांडे ने शूट तो बहुत किया था, लेकिन धोनी ने फिल्म देखकर कट लगावा दिए। इस खबर की सच्चाई का कोई सुबूत नहीं है। सिवाय, इस बात के कि इंटरवल के बाद फिल्म में झटके आने शुरू हो जाते हैं और अलाय-बलाय शॉट और सीक्वेंस आते हैं।

जब नाम में लिखा हो अनटोल्ड स्टोरी, तो हम धोनी की जिंदगी के अनछुए पहलुओं से रू ब रू होने की उम्मीद बांधते हैं। एक हद तक पहले एक घंटे में यही सब होता है। धोनी के बचपन की कहानी दिलचल्प भी है और प्रेरणादायी भी।

फिल्म की शुरूआत बेहतरीन है। विश्वकप 2011 के फाइनल के मुसीबत भरे क्षणों से शुरू हुई इस फिल्म को फ्लैश-बैक तकनीक में फिल्माया गया है। दृश्य ड्रेसिंग रूम का है। अचानक धोनी फैसला लेते हैं कि युवराज की बजाय वे बल्लेबाजी के लिए जाएंगे।

यह सीन फिल्म का मूड सेट कर देता है। इसके बाद फिल्म सीधे 30 साल पीछे जाकर धोनी के जन्म से शुरू होती है। इसके बाद धोनी किस तरह क्रिकेट की दुनिया में धीरे-धीरे आगे कदम बढ़ाते हैं, उनके इस सफर को दिखाया गया है।

यह कहानी बताती है कि शुरू में धोनी फुटबॉलर थे, कि उन्हें क्रिकेट में रूचि नहीं थी, कि वह गोलकीपर थे, कि जब वह अच्छा खेलते थे स्कूल में छुट्टी हो जाती थी। यह फिल्म यह स्थापित करती है कि धोनी को धोनी बनाने में उनकी मां और उनके दोस्तों का कितना भारी योगदान है।

फिल्म बताती है कि धोनी, सचिन के भारी फैन थे, कि एक मैच में उनका युवराज सिंह से दिलचस्प तरीके से सामना होता है। कूचबिहार ट्रॉफी के दौरान युवराज सिंह से धोनी का सामना होता है। और खास बात यह कि युवराज के किरदार में हैरी टंगड़ी जबरदस्त लगे हैं। क्या देह-भाषा, क्या लाजवाब एंट्री...। वाह।

यहां आकर फिल्मकार स्थापित कर देता है कि बड़े शहरों के बच्चों की केयरलेस एट्टीट्यूड से कैसे छोटे शहरों के बच्चे धराशायी हो जाते हैं। यह फिल्म यह भी बताती है कि धोनी ने हेलिकॉप्टर शॉट लगाना अपने दोस्त संतोष लाल से सीखा था। संतोष इसे थप्पड़ शॉट कहते थे। लेकिन फिल्म में यह बात मिसिंग लिंक की तरह है। अगर धोनी हेलिकॉप्टर शॉट लगाना सीखते दिखाए गए हैं तो किसी मैच में उस शॉट को खेलते भी दिखाना चाहिए था।

फिल्म हमें बताती है कि दलीप ट्रॉफी में धोनी विमान मिस कर देते हैं। वहीं फिल्मकार किरदार उभारने में यह सीन भी रख सकते हैं कि बाद में उनके बड़े बनने के बाद विमान ने उनका इंतजार भी किया था। लेकिन यह मिसिंग है।

नीरज पांडे ने फिल्म को रियल लोकेशन पर शूट किया है इससे फिल्म विश्वनीय दिखती है। खासकर, धोनी के बचपन का घर, उनकी मां (बहुत शानदार सरलता के साथ) उनकी बहनों के साथ बरताव...सब कुछ नीरज पांडे शैली में विश्वसनीय है। लेकिन फिल्म में कहीं भी धोनी के भाई नरेन्द्र सिंह धोनी का जिक्र भी नहीं। क्यों...यह तो नीरज पांडे ही बता पाएंगे या फिर खुद धोनी।

टीसी की नौकरी में धोनी की कुंठा को अच्छे से दिखाया है जब वह पूरा दिन रेलवे प्लेटफॉर्म पर दौड़ते हैं और शाम को मैदान में पसीना बहाते हैं। उसका टीम में चयन नहीं होता तो वह रात में टेनिस बॉल से खेले जाने वाले टूर्नामेंट में खेल कर अपने गुस्से को बाहर निकालता है। एक दिन दिल की बात सुन कर वह नौकरी छोड़ देता है।

धोनी के मन का यह फ्रस्टेशन फिल्माने में नीरज पांडे पूरी तरह कामयाब हुए हैं और इन क्षणों को जीवंत करने कि लिए सुशांत सिंह बधाई के पात्र हैं। फिल्म में धोनी की जद्दोजहद को बखूबी उभारा गया है। कई छोटे-छोटे दृश्य प्रभावी हैं। धोनी के अच्छे इंसान होने के गुण भी इन दृश्यों से सामने आते हैं। लेकिन आह, इंटरवल के बाद फिल्म लड़खड़ाने लगती है।

लेकिन, फिल्म कहीं से भी धोनी के कैप्टन कूल स्थापित नहीं करती। हम फिल्म में प्रायः धोनी को टूटते, रोते और रुआंसा होते देखते हैं। चाहे विमान छूटने की घटना हो या टीम में चयन नहीं होने की खबर हो या फिर पहली प्रेमिका प्रियंका झा की मौत की खबर। लेकिन मैदान पर हमेशा भावनाविहीन और संतुलित कप्तान वह कैसे बने रहते हैं इसका कहीं जिक्र नहीं, कोई उल्लेख नहीं।

दर्शकों की उत्सुकता यह जानने में रहती है कि ड्रेसिंग रूम के अंदर क्या होता था? धोनी किस तरह से बतौर कप्तान अपनी रणनीति बनाते थे? करोड़ों उम्मीद का तनाव 'कैप्टन कूल' किस तरह झेलते थे? अपने खिलाड़ियों के साथ किस तरह व्यवहार करते थे? उन्हें क्या टिप्स देते थे? सीनियर खिलाड़ियों को कैसे नियंत्रित करते थे? सीनियर खिलाड़ियों को टीम से बाहर करने का जिक्र एक बार जरूर आता है, लेकिन बिना किसी रेफरेंस के।

धोनी के कत्पान बनने का ब्योरा गायब है, फिर टेस्ट में नंबर एक टीम बनने का कहीं उल्लेख नहीं। टी-ट्वेंटी में फाइनल जीत है लेकिन उसकी तैयारियां...वह कहां हैं? याद कीजिए भाग मिल्खा भाग...उस फिल्म में योगराज सिंह के साथ फरहान अख्तर की ट्रैनिंग के दृश्य और जोशीले गीत से क्या आपका एड्रेनलिन नहीं बढ़ गया था?

फिल्म में कुछ दृश्य बेवजह लगते हैं। मसलन, धोनी से मिलने आए उनके टीसी दोस्त का होटल में आना। उस सीन को कोई रेफरेंस नहीं मिलता और आने की वजह से किरदार या फिल्म आगे बढ़ती हो, इसके सुबूत भी हासिल नहीं होते।

फिल्म तीन घंटे से भी ज्यादा लंबी है फिर भी ज्यादातर वक्त दर्शकों को बांधे रखती है। बीच-बीच में ऐसे कई दृश्य हैं जो धोनी के फैंस को सीटी और ताली बजाने पर मजबूर कर देते हैं। धोनी के जीवन में परिवार, दोस्त, प्रशिक्षक और रेलवे में काम करने वाले उनके साथियों का कितना महत्वपूर्ण योगदान रहा है इस बात को उन्होंने अच्छे से रेखांकित किया है।

आमतौर पर फिल्मों में खेल वाले दृश्य कमजोर पड़ जाते हैं, लेकिन इस मामले में फिल्म बेहतरीन है। सुशांत सिंह राजपूत पूरी तरह क्रिकेटर लगते हैं। हालांकि तकनीकी रूप से कुछ खामियां भी हैं जैसे धोनी को कम उम्र में रिवर्स स्वीप मारते दिखाया गया है। उस समय शायद ही कोई यह शॉट खेलता हो और खुद धोनी भी यह शॉट खेलना पसंद नहीं करते हैं।

एक्टिंग के मामले में फिल्म लाजवाब है। सुशांत सिंह राजपूत में पहली फ्रेम से ही धोनी दिखाई देने लगते हैं। बॉडी लैंग्वेज में उन्होंने धोनी को हूबहू कॉपी किया है। क्रिकेट खेलते वक्त वे एक क्रिकेटर नजर आएं। इमोशनल और ड्रामेटिक सीन में भी उनका अभिनय देखने लायक है।

जो भी हो, फिल्म में इंटरवल के बाद बारीक ब्योरों की कमी है फिर भी फिल्म मनोरंजक है। भारतीय फिल्मों में शायद यह पहली फिल्म है जिसने बिना किसी खान के सौ करोड़ की कमाई का बुलंद आंकड़ा छुआ है। जाहिर है, धोनी की स्टार हैसियत किसी खान से कम नहीं।

अनुपम खेर, भूमिका चावला, कुमुद मिश्रा, राजेश शर्मा, दिशा पटानी, किआरा आडवाणी ने अपनी-अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय किया है।

महेंद्र सिंह धोनी हमारी पीढ़ी के क्रिकेटर हैं। उनने हमें गर्व के कई मौके दिए हैं और फिल्म में उन्हें दोबारा जीना बहुत अच्छा लगता है। कलात्मकता के तौर पर फिल्म से ज्यादा कुछ हासिल नहीं होगा, लेकिन बायोपिक की विधा में बावजूद कई खामियो के यह फिल्म (कमाई के मामले में) मील का पत्थर है।

Saturday, October 8, 2016

सिर्फ़ शौचालय बनाकर क्या होगा?

जी हां, सही कह रहा हूं मैं। देश भर में सरकार स्वच्छ भारत अभियान के तहत शौचालय बनवाने पर काफी जोर दे रही है। सरकारी दावे हैं, और अगर सही हैं तो काफी उत्साहवर्धक बात है, कि पिछले साल भर में देश में दो लाख स्कूलों में बच्चों के लिए शौचालय बना दिए गए हैं। ग्रामीण विकास मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने स्पष्ट किया है, कि इन शौचालयों में पानी की उपलब्धता सुनिश्चित की जा रही है।

ग्रामीण इलाकों में स्वच्छता की आदतें विकसित करने के लिए सरकार की यह कोशिश सराहनीय है। लेकिन शौचालय बनाने और इसके लिए जागरूकता फैलाने के विज्ञापन अभियानों में बड़ी नायिकाओं के ज़रिए टीवी पर संदेश दिखाने के बाद, मेरी राय में, सरकार की जिम्मेदारी खत्म हो जाती है और यह जिम्मेदारी हम पर, आप पर आ जाती है।

आज से छह-सात साल पहले, केन्द्र में यूपीए की सरकार के शासन के दौरान जब मैं ग्रामीण विकास से जुड़े रिपोर्ताज बनाने गांवों का दौरा किया करता था, तब रघुवंश प्रसाद सिंह ग्रामीण विकास मंत्री हुआ करते थे और उन्होंने भी निर्मल ग्राम परियोजना शुरू की थी। लेकिन नतीजे सिफ़र थे।

ज्यादातर सरकारी कर्मचारियों और पंचायत स्तर के नेताओं में इस विषय में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। मान लीजिए कि उस वक्त ग्रामीण विकास के काम में स्वच्छता की कोई खास अहमियत नहीं थी।

प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी ने गांधी जयंती पर ‘स्वच्छ भारत अभियान’ शुरू कर दिया था। मैं यह भी मानता हूं कि इस अभियान से किसी भी सियासी दल को कोई खास राजनीतिक फायदा नहीं मिलेगा। फिर भी, आज की तारीख में सफाई भारत के सर्वोच्च राजनैतिक एजेंडा है तो इसके कुछ मायने होने चाहिए, और वह भी सकारात्मक मायने।

इस वक्त, प्रधानमंत्री खुद इस अभियान में निजी तौर पर दिलचस्पी लेते हैं, और जाहिर है, यह दूरदराज तक के अधिकारिओं और बाबुओं में, चर्चा का विषय बन रहा है। ताज़ा आंकड़ें बताते हैं कि अगर देश में इसी रफ्तार से शौचालय बनते रहे तो अगले साल अक्तूबर महीने तक देश के अस्सी फीसद से अधिक घरों में टॉयलेट बन जाएंगे।

इस उपलब्धि को कमतर आंकना गलत होगा। लेकिन, इसके बावजूद, मैं मानता हूं कि सिर्फ शौचालय बनाकर ही हम ग्रामीण स्वास्थ्य में बेहतरी के लक्ष्य को नहीं पा सकते। हमें ज्यादा से ज्यादा तादाद में शौचालय बनवाने के साथ ही, कुछ और कदम भी उठाने होंगे।

मसलन, किसी घर में शौचालय होने भर का यह मतलब नहीं है कि उसका इस्तेमाल भी हो रहा है। खुद उत्तरी बिहार के मेरे गांव में, तकरीबन हर घर में शौचालय है लेकिन लोग खेतों में जाना पसंद करते हैं। मुझे आजतक इसका मतलब समझ में नहीं आया है।

यह भी हो सकता है कि शौचालय का इस्तेमाल दिन के किसी समय में, परिवार के कुछ ही सदस्यों द्वारा या सिर्फ किसी खास मौसम में ही किया जा रहा हो। यह पूरे भारत की बड़ी अलहदा किस्म की समस्या है। भारत में ग्रामीण स्वच्छता की कमान स्थानीय समुदाय के हाथों में देने की ज़रूरत है ताकि स्थानीय जरूरतों और परंपराओं को स्वच्छता के हिसाब से ढाला जा सके। मुख्तसर यह कि हमें इस मामले में व्यावहारिक चीजों पर ध्यान देना होगा। हमें हर हाल में, बुनियादी ढांचे की उपलब्धता और इसकी उपयोगिता के बीच का फासला कम करना होगा।

देश भर में ‘स्वच्छ भारत मिशन’ को मिल रही प्राथमिकता ठीकहै, और कम अवधि के छोटे-छोटे लक्ष्य भी तय किए गए हैं। लेकिन ऐसी जल्दबाजी काम की रफ्तार को तेज तो करेगी, लेकिन आम लोगों की आदतों और बरताव में इतनी जल्दी बदलाव लाना मुश्किल है। दरअसल, यह समस्या इस बात से भी उजागर होती है कि पूरे मिशन में प्रचार-प्रसार और जागरूकता फैलाने के लिए बजट में कितने कम खर्च का प्रावधान रखा गया है।

इस अभियान में, ठोस और तरल कचरे और मल का प्रबंधन और उनका निपटान के लिए ठोस योजना की जरूरत है।

स्वच्छता मिशन के तहत या तो शौचालय बनवाए जा रहे हैं या लोगों से सफाई की उम्मीद की जा रही है। लेकिन सफाई का यह स्वयंसेवा मोड ज्यादा टिकाऊ साबित नहीं होगा। मिसाल के तौर पर, मैं अपने घर-आंगन और मुहल्ले में झाड़ू लगाकर कचरा इकट्ठा कर सकता हूं, लेकिन इकट्ठा किए कचरे के लिए कूड़ेदान, उस कूड़ेदान से कूड़ा उठाकर ले जाने की मशीनरी और इस जमा कचरे को ठिकाना लगाकर उसकी रिसाइक्लिंग की व्यवस्था तो सरकार या निकायों को ही करनी होगी।

‘स्वच्छ भारत मिशन’ के तहत की गई कोशिशों में घर और आसपास की स्वच्छता पर काफी ध्यान है। लेकिन संस्थागत व्यवस्था पर चुनौती के मुताबिक उतना ध्यान नहीं है। शौचालयों की मरम्मत और रखरखाव के लिए भी कोई कदम नहीं उठाए गए हैं।

पुराने स्वच्छता अभियानों की तुलना में इसके तहत उल्लेखनीय सुधार हुआ है। मगर स्वच्छ भारत की यह महत्वाकांक्षी योजना एक और कदम की अपेक्षा करती है। एक नए सामाजिक नियम की जरूरत है जिससे खुले में शौच करना एकदम अस्वीकार्य हो जाए। साथ ही साथ पर्यावरण की स्वच्छता को भी उतना ही महत्वपूर्ण बनाया जाए जितना घर के भीतर की साफ-सफाई।

अब स्वच्छता में ईश्वर बसते हैं ऐसी हमारी परंपरा कहती है तो ऐसी सफाई सिर्फ दीवाली-दशहरे में क्यों हो? साल भर यह परंपरा कायम रहनी चाहिए। लेकिन ऐसा सरकारी योजनाओं के साथ तभी मुमकिन हो पाएगा, जब हम और आप इसमें सरकार के कदमों के साथ कदम मिलाकर चलें। हमारा गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार इस योजना की अब तक की कामयाबियों पर कूड़ा फेर सकता है।



मंजीत ठाकुर

Wednesday, October 5, 2016

आवारा झोंकेः दो

समंदर के पानी में हज़ार मछलियां
लेकिन हर मछली
तन्हा है। 


जंगल में होते हैं हज़ार पेड़
पर हर पेड़ मिट्टी में धंसा
और तन्हा है।
आसमान में उड़ते बादल के दोस्त भी
बरस कर मिल जाते मिट्टी में
और एक बादल रह जाता है पीछे
हवा में झूमता
तन्हा है।

आवारा झोंकेः एक

जब भी रंगता हूं अपना घर,
बड़े ब्रांड्स के रंगों से सजाता हूं
कि जैसे कोई इंद्रधनुष हो
पर एक कमरा रह जाता है खाली
काली दीवारों वाला
जहां रहता हूं मैं,
तन्हा
खुद के साथ।

Monday, October 3, 2016

मोदी का मास्टर स्ट्रोक है सर्जिकल स्ट्राइक

पाकिस्तानी आतंकी गुटों के खिलाफ एलओसी पार करके सर्जिकल स्ट्राइक भारत ने किया, उस दौरान मैं एक बार फिर से जंगल महल के उन इलाकों में था जहां मलेरिया अब भी जानलेवा है, जहां सड़कें बन कर तैयार हैं तो लोगों को लगा कि विकास हो गया, और जहां करीब साढ़े तीन साल से कोई राजनीतिक हत्या (पढ़ें- नक्सली हिंसा) नहीं हुई है।

पाकिस्तान ने जब उरी में भारतीय सैन्य शिविर पर हमला कर दिया और हमारे 18 (अब 19) जवान शहीद हो गए, तब से हम में से अधिकतर लोगों के ख़ून उबल रहे थे। देश पर युद्धोन्माद-सा छा गया था और टीवी चैनल लग रहा था, सीधे पाकिस्तान पर ही हमला बोल देंगे।

उन्हीं दिनो, साइबर विश्व के नागरिक और खबरों से नजदीकी रखने वाले लोग जानते होंगे कि एक खबरिया वेबसाईट ने सर्जिकल स्ट्राइक की खबर फोड़ी। रात भर जानकार दोस्त इस पर विचार-विमर्श पर चर्चा करते रहे और सामान्य बुद्धि यही कहती थी कि अगर, ऐसा कोई सर्जिकल स्ट्राइक हुआ भी तो वह संयुक्त राष्ट्र में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के बयान के बाद ही होगा। हुआ भी यही।

लेकिन उससे पहले, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दोनों देशों, भारत और पाकिस्तान को मिलकर गरीबी के खिलाफ लड़ने का आह्वान किया था।

वक्त और जगह तय हम करेंगे, यह बयान संभवतया अतिशयोक्तिपूर्ण हो सकता है लेकिन यह मान लेने में कोई दो राय नहीं है कि उरी पर आतंकी हमले के बाद मोदी सामरिक से कहीं ज्यादा राजनैतिक और कूटनीतिक उलझन में रहे होंगे। अपनी विदेश नीति में प्रधानमंत्री मोदी ने भारत को नई तरह क कूटनीतिक तेवर दिए हैं। पाकिस्तान के साथ अगर उलझाव लंबा चला तो इन तेवरों की दिशा भी बदल सकती है।

यह सही है कि भारत की विदेश नीति का केन्द्र पिछले कई दशकों से पाकिस्तान के साथ रिश्ते रहे हैं और भारत ने पाकिस्तान से दुश्मनी को केन्द्र में रखकर ही, या पाकिस्तान ने भी भारत को केन्द्र में रखकर अपने दोस्त या दुश्मन तय किए।

पाकिस्तान के साथ रिश्ते नरम करने की पहल अटल बिहारी वाजपेयी ने की थी। वाजपेयी का जिक्र इसलिए क्योंकि दक्षिणपंथी पार्टी के प्रधानमंत्री होने के नाते पाकिस्तान के साथ रिश्ते खराब होने की सबको आशंका थी, लेकिन वाजपेयी ने पहल करके सबको चौंका दिया था। यह बात और है कि उसका नतीजा करगिल युद्ध के रूप में निकला।

अब जबकि, दुनिया भर में सन् 1999 के मुकाबले भारत अधिक ताकतवर है, मोदी ने भी वाजपेयी की उस पहले को अधिक तेज़ी दी थी। खुद नवाज शरीफ की पोती के शादी में अनौपचारिक रूप से पहुंचकर, या अपने मंत्रिमंडल के शपथ ग्रहण में पाकिस्तान को भी आमंत्रित करके, या यूं ही सेहत का हाल-चाल पूछकर, मोदी ने रिश्तों को अनौपचारिक रूप देने की कोशिश की।

लेकिन, पटानकोट और उरी के हमलों के बाद पाकिस्तान को उत्तर देना जरूरी था। हालांकि, भारत ने पठानकोट के बाद संयम और सूझबूझ का परिचय दिया।

लेकिन उरी के बाद सर्जिकल स्ट्राइक करके मोदी ने यह भी साबित किया कि 1999 में जहां वाजपेयी एलओसी पार नहीं कर पाए थे, वहीं मोदी ने मुंहतोड़ जवाब भी दिया और नियंत्रण रेखा के पार भी गए।

तो एक बात समझिए कि पाकिस्तान को नाथने की यह कोशिश पहले से ही लोकप्रिय नरेन्द्र मोदी को कुछ उसी तरह और भी ऊंचे स्थान पर ले जाएगी, जिसतरह सन इकहत्तर के युद्ध के बाद इंदिरा गांधी को खास लोकप्रियता मिली थी। इंदिरा, दुर्गा का अवतार मानी गईं थीं। मोदी का फ़ैसलाकुन अंदाज़ जनता को पसंद आएगा, यह तय मानिए।

मैंने पहले कहा था, उरी के हमले के बाद भी मोदी ने गरीबी के खिलाफ युद्ध का आह्वान किया था और ऐसा करके मोदी ने भगवा ब्रिगेड के कट्टरपंथियों की बनिस्बत अपनी राजनीतिक संजीदगी साबित की। पाकिस्तान के साथ अगली झड़पें मोदी के लिए राजनीतिक रूप से फायदेमंद साबित होंगी और मोदी लार्ज-दैन-लाइफ किरदार में उभर सकते हैं।

अगर पाकिस्तान के साथ लड़ाई हुई तो बिखरा हुआ पाकिस्तान पहले से अधिक बिखर जाएगा, और जैसी कि इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने भविष्यवाणी की है, बीजेपी का राजनैतिक वर्चस्व अगले 15-20 बरस तक के लिए कायम हो जाएगा।

पाकिस्तानी चालबाज़ियों के खिलाफ इस सर्जिकल स्ट्राइक ने यह भी तय किया है कि चीन को भी एक चेतावनी मिले, जो अमूमन भारतीय क्षेत्रों में घुसपैठ कर लेता है। अब यह बात सवालों के घेरे में है कि हम चीन के मुकाबले सैन्य शक्ति में कहां ठहरते हैं भला? लेकिन वह सवाल बाद का है, धौंसपट्टी नहीं सही जाएगी, यह आज की कूटनीति है।

जहां तक मोदी का प्रश्न है, उनकी उंगलियो की इस हल्की जुंबिश से यूपी और उत्तराखंड चुनाव पर असर पड़ेगा यह तो तय है ही, बात-बात पर अपनी एटमी शक्ति की शेखी बघारने वाले पाकिस्तान को भी विश्व भर में नीचा देखना पड़ रहा है।

मंजीत ठाकुर

Saturday, October 1, 2016

पानी पर गुत्थमगुत्था

पिछले कुछ हफ्तों में कावेरी और तमिलनाडु में कावेरी जल बंटवारे पर काफी घमासान दिखा था। बसों को जलाना अपने देश में विरोध प्रदर्शन का सबसे मुफीद तरीका है, सो बसें जलाईं गईं, सड़को पर टायर जलाए गए और हो-हल्ला हुआ।

इसके पीछे मसला क्या था? असल में, कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कावेरी नदी के पानी के बंटवारे को लेकर एक समझौता है। समझौते का इतिहास हालांकि बहुत पुराना है लेकिन पिछले दो दशकों में यही हुआ कि जल विवाद को सुलझाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 1990 में अंतर-राज्य जल विवाद अधिनियम के तहत एक पंचाट का गठन किया। साल 2007 में इस पंचाट ने जल विवाद पर पानी के बंटवारे से संबंधित अपनी आखिरी सिफारिश या फ़ैसला दिया। 2013 में केन्द्र द्वारा इसकी अधिसूचना जारी किए जाने के तीसरे वर्ष ही कर्नाटक के उस इलाके में, जहां से कावेरी अपना जल ग्रहण करती है सूखा पड़ गया।

इस साल कर्नाटक के कोडागू जिला, जहां से कावेरी अपना जल ग्रहण करती है, 33 फीसद कम बरसात हुई। नताजतन, कर्नाटक मे कावेरी के जलाशयों, केआरएस, काबिनी, हारंगी और हेमवती बांधों, में अपनी क्षमता से कम पानी मौजूद था। सामान्य तौर पर इस वक्त यह जलभंडार 216 टीएमसी फुट होता है, जबकि इस साल यह भंडार महज 115 फुट था।

कावेरी जल विवाद निपटारा पंचाट का फैसला था कि सामान्य बारिश वाले वर्ष में, कर्नाटक को तमिलनाडु के लिए 193 टीएमसी फीट पानी छोड़ देना चाहिए। जून में 10 टीएमसी फुट, 34 टीएमसी फुट जुलाई में, 50 टीएमसी फुट अगस्त में, 40 टीएमसी फुट सितंबर में और 22 टीएमसी फुट अक्तूबर में। जब कर्नाटक ने जुलाई और अगस्त में जरूरी पानी नहीं छोड़ा, तब तमिलनाडु ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

सुप्रीम कोर्ट ने 5 सितंबर को अपनी सुनवाई कर्नाटक को निर्देश दिया कि वह अगले 10 दिनों तक रोज़ 15 हजार क्यूसेक पानी छोड़ें। कर्नाटक ने इस निर्देश के खिलाफ अपील की, लेकिन तमिलनाडु के लिए पानी भी छोड़ दिया। लेकिन दोनों ही राज्यों में पानी के लिए विरोध-प्रदर्शनों को दौर शुरू हो गया।

वैसे, कावेरी के पानी में कर्नाटक का योगदान 462 टीएमसी फुट का होता है लेकिन उसे 270 टीएमसी फुट के इस्तेमाल करने का हक है। जबकि तमिलनाडु सिर्फ 227 टीएमसी फुट का योगदान करके 419 टीएमसी फुट का इस्तेमाल कर सकता है।

यह अजीब सा विभाजन इसलिए हुआ क्योंकि 1924 में जब कावेरी जल का पहला बंटवारा हुआ, उस वक्त तमिलनाडु कावेरी के 80 फीसद पानी का उपयोग कर रहा था। तमिलनाडु के किसानों को पहले उपयोग करने का फायदा मिला।

बहरहाल, पानी के लिए तीसरा विश्वयुद्ध लड़ा जाएगा इसके बारे में कई विद्वानों ने पहले ही आशंकाएं और भविष्यवाणियां कर रखी हैं। लेकिन इस युद्ध को टालने, या पानी पर झगड़ों को खत्म करने का क्या कोई उपाय नहीं हो सकता?

हो सकता है। मैं हमेशा से पानी के आयात को खत्म या बेहद कम करने के पक्ष में रहा हूं। पूरे भारत में रेगिस्तानी इलाकों को छोड़ दें, तो कोई भी इलाका ऐसा नहीं है जहां पीने या इस्तेमाल के लायक पानी नहीं बरसता हो। यह बात और है कि हम लोग उस बारिश के पानी को रोकते नहीं, उसको बचाकर नहीं रखते र हमारी बारिश बर्षा आधारित ही है, लेकिन बर्षा से कम, बरसात आधारित ज्यादा है।

तमिलनाडु की औसत वार्षिक वर्षा करीब 95 सेमी है तो कर्नाटक की करीब 124 सेमी। इसकी एक वजह है कि तमिलनाडु में दक्षिण-पश्चिमी मॉनसून से बरसात नहीं होती, बल्कि उसके पूर्वी तट पर तब बरसात होती है, जिसे हम मॉनसून की वापसी कहते हैं।

फिर भी, जलछाजन योजनाओं के ज़रिए पानी की बचत की जा सकती है। तालाबों की तमिलनाडु में पुरानी परंपरा रही है, उसको पुनर्जीवित करके और ज्यादा पानी खर्च करने वाली फसलों की जगह कम पानी वाली फसलों का चयन करके पानी की बचत की जा सकती है।

पानी के किफायती इस्तेमाल करके भी पानी के आयात को कम किया जा सकता है। जलछाजन योजना में आसपास के दो सबसे ऊंची जगहों के बीच की जगह को वॉटरशेड एरिया या जलछाजन क्षेत्र कहा जाता है। यह इलाका 50 हेक्टेयर से लेकर 50 हजार हेक्टेयर के बीच के आकार का हो सकता है।

इसमें चैक-डैम, छोटी बंधियां और सड़को के, खेतों के किनारे नाले बनाकर बरसात के पानी को सही जगह रोका जाता है। और वॉटरशेड इलाके में पानी की उपलब्धता के आधार पर बोई जाने वाली फसलों का चयन किया जाता है।

बूंद सिंचाई और स्प्रिंकल सिंचाई के जरिए भी पानी की बचत की जा सकती है।

लेकिन पानी की बचत से अधिक ज़रूरी है कि पानी के लिए खून न बहाया जाए।

दोनों राज्यों के नेताओं को अपने अहंकार को तिलांजलि देकर और बरसात की मकी वाले वर्षों में पानी के बंटवारे का कोई फॉर्मूला निकालेना होगा। पिछले नौ वर्षों से कम मॉनसून के वक्त पानी के बंटवारे का कोई फॉर्मूला नहीं निकाला जा सका है। कावेरी पंचाट ने अपना आखिरी फैसला 5 फरवरी, 2007 को सुनाया था, तब से अब तक कोई सर्वानुमति नहीं हुई है कि मॉनसून खराब रहने पर पानी का बंटवारा कैसे किया जाएगा।

अकाल में मिलकर चलना जरूरी होता है, वरना अकेले पड़ जाने पर नुकसान अधिक होता है, खतरा भी।

मंजीत ठाकुर