जी हां, सही कह रहा हूं मैं। देश भर में सरकार स्वच्छ भारत अभियान के तहत शौचालय बनवाने पर काफी जोर दे रही है। सरकारी दावे हैं, और अगर सही हैं तो काफी उत्साहवर्धक बात है, कि पिछले साल भर में देश में दो लाख स्कूलों में बच्चों के लिए शौचालय बना दिए गए हैं। ग्रामीण विकास मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने स्पष्ट किया है, कि इन शौचालयों में पानी की उपलब्धता सुनिश्चित की जा रही है।
ग्रामीण इलाकों में स्वच्छता की आदतें विकसित करने के लिए सरकार की यह कोशिश सराहनीय है। लेकिन शौचालय बनाने और इसके लिए जागरूकता फैलाने के विज्ञापन अभियानों में बड़ी नायिकाओं के ज़रिए टीवी पर संदेश दिखाने के बाद, मेरी राय में, सरकार की जिम्मेदारी खत्म हो जाती है और यह जिम्मेदारी हम पर, आप पर आ जाती है।
आज से छह-सात साल पहले, केन्द्र में यूपीए की सरकार के शासन के दौरान जब मैं ग्रामीण विकास से जुड़े रिपोर्ताज बनाने गांवों का दौरा किया करता था, तब रघुवंश प्रसाद सिंह ग्रामीण विकास मंत्री हुआ करते थे और उन्होंने भी निर्मल ग्राम परियोजना शुरू की थी। लेकिन नतीजे सिफ़र थे।
ज्यादातर सरकारी कर्मचारियों और पंचायत स्तर के नेताओं में इस विषय में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। मान लीजिए कि उस वक्त ग्रामीण विकास के काम में स्वच्छता की कोई खास अहमियत नहीं थी।
प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी ने गांधी जयंती पर ‘स्वच्छ भारत अभियान’ शुरू कर दिया था। मैं यह भी मानता हूं कि इस अभियान से किसी भी सियासी दल को कोई खास राजनीतिक फायदा नहीं मिलेगा। फिर भी, आज की तारीख में सफाई भारत के सर्वोच्च राजनैतिक एजेंडा है तो इसके कुछ मायने होने चाहिए, और वह भी सकारात्मक मायने।
इस वक्त, प्रधानमंत्री खुद इस अभियान में निजी तौर पर दिलचस्पी लेते हैं, और जाहिर है, यह दूरदराज तक के अधिकारिओं और बाबुओं में, चर्चा का विषय बन रहा है। ताज़ा आंकड़ें बताते हैं कि अगर देश में इसी रफ्तार से शौचालय बनते रहे तो अगले साल अक्तूबर महीने तक देश के अस्सी फीसद से अधिक घरों में टॉयलेट बन जाएंगे।
इस उपलब्धि को कमतर आंकना गलत होगा। लेकिन, इसके बावजूद, मैं मानता हूं कि सिर्फ शौचालय बनाकर ही हम ग्रामीण स्वास्थ्य में बेहतरी के लक्ष्य को नहीं पा सकते। हमें ज्यादा से ज्यादा तादाद में शौचालय बनवाने के साथ ही, कुछ और कदम भी उठाने होंगे।
मसलन, किसी घर में शौचालय होने भर का यह मतलब नहीं है कि उसका इस्तेमाल भी हो रहा है। खुद उत्तरी बिहार के मेरे गांव में, तकरीबन हर घर में शौचालय है लेकिन लोग खेतों में जाना पसंद करते हैं। मुझे आजतक इसका मतलब समझ में नहीं आया है।
यह भी हो सकता है कि शौचालय का इस्तेमाल दिन के किसी समय में, परिवार के कुछ ही सदस्यों द्वारा या सिर्फ किसी खास मौसम में ही किया जा रहा हो। यह पूरे भारत की बड़ी अलहदा किस्म की समस्या है। भारत में ग्रामीण स्वच्छता की कमान स्थानीय समुदाय के हाथों में देने की ज़रूरत है ताकि स्थानीय जरूरतों और परंपराओं को स्वच्छता के हिसाब से ढाला जा सके। मुख्तसर यह कि हमें इस मामले में व्यावहारिक चीजों पर ध्यान देना होगा। हमें हर हाल में, बुनियादी ढांचे की उपलब्धता और इसकी उपयोगिता के बीच का फासला कम करना होगा।
देश भर में ‘स्वच्छ भारत मिशन’ को मिल रही प्राथमिकता ठीकहै, और कम अवधि के छोटे-छोटे लक्ष्य भी तय किए गए हैं। लेकिन ऐसी जल्दबाजी काम की रफ्तार को तेज तो करेगी, लेकिन आम लोगों की आदतों और बरताव में इतनी जल्दी बदलाव लाना मुश्किल है। दरअसल, यह समस्या इस बात से भी उजागर होती है कि पूरे मिशन में प्रचार-प्रसार और जागरूकता फैलाने के लिए बजट में कितने कम खर्च का प्रावधान रखा गया है।
इस अभियान में, ठोस और तरल कचरे और मल का प्रबंधन और उनका निपटान के लिए ठोस योजना की जरूरत है।
स्वच्छता मिशन के तहत या तो शौचालय बनवाए जा रहे हैं या लोगों से सफाई की उम्मीद की जा रही है। लेकिन सफाई का यह स्वयंसेवा मोड ज्यादा टिकाऊ साबित नहीं होगा। मिसाल के तौर पर, मैं अपने घर-आंगन और मुहल्ले में झाड़ू लगाकर कचरा इकट्ठा कर सकता हूं, लेकिन इकट्ठा किए कचरे के लिए कूड़ेदान, उस कूड़ेदान से कूड़ा उठाकर ले जाने की मशीनरी और इस जमा कचरे को ठिकाना लगाकर उसकी रिसाइक्लिंग की व्यवस्था तो सरकार या निकायों को ही करनी होगी।
‘स्वच्छ भारत मिशन’ के तहत की गई कोशिशों में घर और आसपास की स्वच्छता पर काफी ध्यान है। लेकिन संस्थागत व्यवस्था पर चुनौती के मुताबिक उतना ध्यान नहीं है। शौचालयों की मरम्मत और रखरखाव के लिए भी कोई कदम नहीं उठाए गए हैं।
पुराने स्वच्छता अभियानों की तुलना में इसके तहत उल्लेखनीय सुधार हुआ है। मगर स्वच्छ भारत की यह महत्वाकांक्षी योजना एक और कदम की अपेक्षा करती है। एक नए सामाजिक नियम की जरूरत है जिससे खुले में शौच करना एकदम अस्वीकार्य हो जाए। साथ ही साथ पर्यावरण की स्वच्छता को भी उतना ही महत्वपूर्ण बनाया जाए जितना घर के भीतर की साफ-सफाई।
अब स्वच्छता में ईश्वर बसते हैं ऐसी हमारी परंपरा कहती है तो ऐसी सफाई सिर्फ दीवाली-दशहरे में क्यों हो? साल भर यह परंपरा कायम रहनी चाहिए। लेकिन ऐसा सरकारी योजनाओं के साथ तभी मुमकिन हो पाएगा, जब हम और आप इसमें सरकार के कदमों के साथ कदम मिलाकर चलें। हमारा गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार इस योजना की अब तक की कामयाबियों पर कूड़ा फेर सकता है।
मंजीत ठाकुर
ग्रामीण इलाकों में स्वच्छता की आदतें विकसित करने के लिए सरकार की यह कोशिश सराहनीय है। लेकिन शौचालय बनाने और इसके लिए जागरूकता फैलाने के विज्ञापन अभियानों में बड़ी नायिकाओं के ज़रिए टीवी पर संदेश दिखाने के बाद, मेरी राय में, सरकार की जिम्मेदारी खत्म हो जाती है और यह जिम्मेदारी हम पर, आप पर आ जाती है।
आज से छह-सात साल पहले, केन्द्र में यूपीए की सरकार के शासन के दौरान जब मैं ग्रामीण विकास से जुड़े रिपोर्ताज बनाने गांवों का दौरा किया करता था, तब रघुवंश प्रसाद सिंह ग्रामीण विकास मंत्री हुआ करते थे और उन्होंने भी निर्मल ग्राम परियोजना शुरू की थी। लेकिन नतीजे सिफ़र थे।
ज्यादातर सरकारी कर्मचारियों और पंचायत स्तर के नेताओं में इस विषय में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। मान लीजिए कि उस वक्त ग्रामीण विकास के काम में स्वच्छता की कोई खास अहमियत नहीं थी।
प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी ने गांधी जयंती पर ‘स्वच्छ भारत अभियान’ शुरू कर दिया था। मैं यह भी मानता हूं कि इस अभियान से किसी भी सियासी दल को कोई खास राजनीतिक फायदा नहीं मिलेगा। फिर भी, आज की तारीख में सफाई भारत के सर्वोच्च राजनैतिक एजेंडा है तो इसके कुछ मायने होने चाहिए, और वह भी सकारात्मक मायने।
इस वक्त, प्रधानमंत्री खुद इस अभियान में निजी तौर पर दिलचस्पी लेते हैं, और जाहिर है, यह दूरदराज तक के अधिकारिओं और बाबुओं में, चर्चा का विषय बन रहा है। ताज़ा आंकड़ें बताते हैं कि अगर देश में इसी रफ्तार से शौचालय बनते रहे तो अगले साल अक्तूबर महीने तक देश के अस्सी फीसद से अधिक घरों में टॉयलेट बन जाएंगे।
इस उपलब्धि को कमतर आंकना गलत होगा। लेकिन, इसके बावजूद, मैं मानता हूं कि सिर्फ शौचालय बनाकर ही हम ग्रामीण स्वास्थ्य में बेहतरी के लक्ष्य को नहीं पा सकते। हमें ज्यादा से ज्यादा तादाद में शौचालय बनवाने के साथ ही, कुछ और कदम भी उठाने होंगे।
मसलन, किसी घर में शौचालय होने भर का यह मतलब नहीं है कि उसका इस्तेमाल भी हो रहा है। खुद उत्तरी बिहार के मेरे गांव में, तकरीबन हर घर में शौचालय है लेकिन लोग खेतों में जाना पसंद करते हैं। मुझे आजतक इसका मतलब समझ में नहीं आया है।
यह भी हो सकता है कि शौचालय का इस्तेमाल दिन के किसी समय में, परिवार के कुछ ही सदस्यों द्वारा या सिर्फ किसी खास मौसम में ही किया जा रहा हो। यह पूरे भारत की बड़ी अलहदा किस्म की समस्या है। भारत में ग्रामीण स्वच्छता की कमान स्थानीय समुदाय के हाथों में देने की ज़रूरत है ताकि स्थानीय जरूरतों और परंपराओं को स्वच्छता के हिसाब से ढाला जा सके। मुख्तसर यह कि हमें इस मामले में व्यावहारिक चीजों पर ध्यान देना होगा। हमें हर हाल में, बुनियादी ढांचे की उपलब्धता और इसकी उपयोगिता के बीच का फासला कम करना होगा।
देश भर में ‘स्वच्छ भारत मिशन’ को मिल रही प्राथमिकता ठीकहै, और कम अवधि के छोटे-छोटे लक्ष्य भी तय किए गए हैं। लेकिन ऐसी जल्दबाजी काम की रफ्तार को तेज तो करेगी, लेकिन आम लोगों की आदतों और बरताव में इतनी जल्दी बदलाव लाना मुश्किल है। दरअसल, यह समस्या इस बात से भी उजागर होती है कि पूरे मिशन में प्रचार-प्रसार और जागरूकता फैलाने के लिए बजट में कितने कम खर्च का प्रावधान रखा गया है।
इस अभियान में, ठोस और तरल कचरे और मल का प्रबंधन और उनका निपटान के लिए ठोस योजना की जरूरत है।
स्वच्छता मिशन के तहत या तो शौचालय बनवाए जा रहे हैं या लोगों से सफाई की उम्मीद की जा रही है। लेकिन सफाई का यह स्वयंसेवा मोड ज्यादा टिकाऊ साबित नहीं होगा। मिसाल के तौर पर, मैं अपने घर-आंगन और मुहल्ले में झाड़ू लगाकर कचरा इकट्ठा कर सकता हूं, लेकिन इकट्ठा किए कचरे के लिए कूड़ेदान, उस कूड़ेदान से कूड़ा उठाकर ले जाने की मशीनरी और इस जमा कचरे को ठिकाना लगाकर उसकी रिसाइक्लिंग की व्यवस्था तो सरकार या निकायों को ही करनी होगी।
‘स्वच्छ भारत मिशन’ के तहत की गई कोशिशों में घर और आसपास की स्वच्छता पर काफी ध्यान है। लेकिन संस्थागत व्यवस्था पर चुनौती के मुताबिक उतना ध्यान नहीं है। शौचालयों की मरम्मत और रखरखाव के लिए भी कोई कदम नहीं उठाए गए हैं।
पुराने स्वच्छता अभियानों की तुलना में इसके तहत उल्लेखनीय सुधार हुआ है। मगर स्वच्छ भारत की यह महत्वाकांक्षी योजना एक और कदम की अपेक्षा करती है। एक नए सामाजिक नियम की जरूरत है जिससे खुले में शौच करना एकदम अस्वीकार्य हो जाए। साथ ही साथ पर्यावरण की स्वच्छता को भी उतना ही महत्वपूर्ण बनाया जाए जितना घर के भीतर की साफ-सफाई।
अब स्वच्छता में ईश्वर बसते हैं ऐसी हमारी परंपरा कहती है तो ऐसी सफाई सिर्फ दीवाली-दशहरे में क्यों हो? साल भर यह परंपरा कायम रहनी चाहिए। लेकिन ऐसा सरकारी योजनाओं के साथ तभी मुमकिन हो पाएगा, जब हम और आप इसमें सरकार के कदमों के साथ कदम मिलाकर चलें। हमारा गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार इस योजना की अब तक की कामयाबियों पर कूड़ा फेर सकता है।
मंजीत ठाकुर
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल रविवार (09-10-2016) के चर्चा मंच "मातृ-शक्ति की छाँव" (चर्चा अंक-2490) पर भी होगी!
ReplyDeleteशारदेय नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ठोस और तरल कचरे और मल का प्रबंधन और उनका निपटान के लिए ठोस योजना की जरूरत है
ReplyDeleteउम्दा प्रस्तुति
ReplyDeletesirf kachra
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