दिल्ली में मौसम मां-बाप की लड़ाई सरीखा हो गया है।
दिल्ली की धूप हमारे जमाने के मास्टर की संटी सरीखा करंटी हुआ करती है। हमारे जमाने इसलिए कहा, काहे कि आज के मास्टर बच्चों को कहां पीट पाते हैं?
दिन की धूप में बाप-सा कड़ापन है। होमवर्क नहीं किया, ज्यादा देर खेल लिए, पड़ोसी के बच्चे से लड़ लिए, किसी के पेड़ से अमरूद तोड़ लाए...ले थप्पड़, दे थप्पड़। बस बीच में मां के आंचल की तरह कहीं से झोंका आता है बारिश का...मां का लाड़ बीच में कूद पड़ता है। यों कि अब बाबू जी के अनुशासन और मां के लाड़ के खींचतान में बच्चे की तो दुविधा द्विगुणित हो जाए।
अब धूप का रंग बाबूजी से मिला ही दिया है तो उसके भी कई तेवर हैं...सुबह की धूप, सुबह 11 बजे की धूप, दोपहर की सिर पर तैनात धूप...खेल के वक्त की कनपटी पर पड़ती धूप, ड्रिल मास्टर सरीखी...शाम की धूप विदा कहती प्रेमिका-सी, जाड़े की धूप, भादो के दोपहर की धूप...और न जाने कितने रंग हैं।
रघुवीर सहाय को ये रंग तो कई तरीके का नजर आया हैः
‘एक रंग होता है नीला,
और एक वह जो तेरी देह पर नीला होता है,
इसी तरह लाल भी लाल नहीं है,
बल्कि एक शरीर के रंग पर एक रंग,
दरअसल कोई रंग कोई रंग नहीं है,
सिर्फ तेरे कंधों की रोशनी है,
और कोई एक रंग जो तेरी बांह पर पड़ा हुआ है।’
धूप पिताजी के अवतार में है, पापा के भी, डैडी के भी...अलग अलग लोगों के लिए अलग-अलग संबोधन..अलग चरित्र। मोंटेक की धूप, मनमोहन की धूप, जेटली-मोदी और शाह की धूप, शिवराज की धूप और विजय माल्या की धूप...मेरे, आपके और एक मजदूर की धूप में अंतर तो होगा ना।
धूप में पसीना बहाना...कुछ ऐसा मानो कह रहा हो, आदमी जब तक हारता रहता है जिंदा रहता है। जब जीतने लगता है आदमी नहीं रहता।
लेकिन सवाल अब भी अनुत्तरित ही है...धूप बाप-सा तीखा क्यों हो गया।लेकिन जो भी हो, यह धूप इंसान को लड़ना सिखाता है। कनपटी से बहता पसीनी बेरोकटोक यहां-वहां, जहां-तहां जा रहा है। आपकी मेहनत का द्रवीकृत रूप पसीना है तो वाष्पीकृत रूप आपके देह की गंध।
इस गंध का आनंद लीजिए जब बालो में बेला के फूल खोंसे आपकी प्रेयसी आपसे कान में फुसफुसाते हुए कहे, मुझे तुम्हारी देह की गंध पसंद है, तुम डियो मत लगाया करो।
आखिर में, शाहरुख खान को याद कीजिए, हर घड़ी बदल रही है रूप जिंदगी, धूप है कभी कभी है छांव जिंदगी...जिंदगी में अभी धूप वाला दौर है।
दिल्ली की धूप हमारे जमाने के मास्टर की संटी सरीखा करंटी हुआ करती है। हमारे जमाने इसलिए कहा, काहे कि आज के मास्टर बच्चों को कहां पीट पाते हैं?
दिन की धूप में बाप-सा कड़ापन है। होमवर्क नहीं किया, ज्यादा देर खेल लिए, पड़ोसी के बच्चे से लड़ लिए, किसी के पेड़ से अमरूद तोड़ लाए...ले थप्पड़, दे थप्पड़। बस बीच में मां के आंचल की तरह कहीं से झोंका आता है बारिश का...मां का लाड़ बीच में कूद पड़ता है। यों कि अब बाबू जी के अनुशासन और मां के लाड़ के खींचतान में बच्चे की तो दुविधा द्विगुणित हो जाए।
अब धूप का रंग बाबूजी से मिला ही दिया है तो उसके भी कई तेवर हैं...सुबह की धूप, सुबह 11 बजे की धूप, दोपहर की सिर पर तैनात धूप...खेल के वक्त की कनपटी पर पड़ती धूप, ड्रिल मास्टर सरीखी...शाम की धूप विदा कहती प्रेमिका-सी, जाड़े की धूप, भादो के दोपहर की धूप...और न जाने कितने रंग हैं।
रघुवीर सहाय को ये रंग तो कई तरीके का नजर आया हैः
‘एक रंग होता है नीला,
और एक वह जो तेरी देह पर नीला होता है,
इसी तरह लाल भी लाल नहीं है,
बल्कि एक शरीर के रंग पर एक रंग,
दरअसल कोई रंग कोई रंग नहीं है,
सिर्फ तेरे कंधों की रोशनी है,
और कोई एक रंग जो तेरी बांह पर पड़ा हुआ है।’
धूप पिताजी के अवतार में है, पापा के भी, डैडी के भी...अलग अलग लोगों के लिए अलग-अलग संबोधन..अलग चरित्र। मोंटेक की धूप, मनमोहन की धूप, जेटली-मोदी और शाह की धूप, शिवराज की धूप और विजय माल्या की धूप...मेरे, आपके और एक मजदूर की धूप में अंतर तो होगा ना।
धूप में पसीना बहाना...कुछ ऐसा मानो कह रहा हो, आदमी जब तक हारता रहता है जिंदा रहता है। जब जीतने लगता है आदमी नहीं रहता।
लेकिन सवाल अब भी अनुत्तरित ही है...धूप बाप-सा तीखा क्यों हो गया।लेकिन जो भी हो, यह धूप इंसान को लड़ना सिखाता है। कनपटी से बहता पसीनी बेरोकटोक यहां-वहां, जहां-तहां जा रहा है। आपकी मेहनत का द्रवीकृत रूप पसीना है तो वाष्पीकृत रूप आपके देह की गंध।
इस गंध का आनंद लीजिए जब बालो में बेला के फूल खोंसे आपकी प्रेयसी आपसे कान में फुसफुसाते हुए कहे, मुझे तुम्हारी देह की गंध पसंद है, तुम डियो मत लगाया करो।
आखिर में, शाहरुख खान को याद कीजिए, हर घड़ी बदल रही है रूप जिंदगी, धूप है कभी कभी है छांव जिंदगी...जिंदगी में अभी धूप वाला दौर है।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (15-06-2017) को
ReplyDelete"असुरक्षा और आतंक की ज़मीन" (चर्चा अंक-2645)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक