नीतीश के पाला बदलने और आनन-फानन में शपथ-ग्रहण करके भाजपा के साथ सरकार बना लेने पर कुछ सवाल उठने लाजिमी है. पहला स्वाभाविक सवाल तो यही उठता है कि आखिर नीतीश प्रधानमंत्री द्वारा किए गए डीएनए वाले बिहारी अस्मिता पर चोट से आहत थे वह फिर से भाजपा की शरण में क्यों आ गए. सवाल है कि आखिर भाजपा ने नीतीश को अपने पाले में क्यों करना चाहा? क्या 2019 के लोकसभा में उसे बिहार में आधार खिसकने का इतना डर था? तीसरा सवाल है कि आखिर नीतीश के विरोधी माने जाने वाले और महागठबंधन से बाहर निकलने की मुखालफत करने वाले शरद यादव का क्या होगा?
चूंकि मोदी युग के उदय के बाद मोदी-शाह के अश्वमेघ यज्ञ में सिर्फ बिहार और दिल्ली विधानचुनाव ही असली कांटे साबित हुए हैं और बिहार का झटका ज्यादा बड़ा था जिसमें भारत की पिछड़ी जातियों के दो बड़े नेता शामिल थे और मंडल से जुड़े हुए थे. ऐसे में बिहार में मोदी की सत्ता स्वीकार्यता का एक विशेष अर्थ है और मोदी की सर्व-व्यापकता की तस्वीर बिना बिहार में एनडीए की सत्ता के पूरी नहीं होती थी. ऐसे में ये जरूरी था कि नीतीश कुमार को अपने पाले में लाया जाए और जिसके लिए वे तनिक-तनिक तैयार भी दिखने का संकेत कर रहे थे.
साथ ही ऑपरेशन बिहार इसलिए भी हड़बड़ी में जरूरी था क्योंकि लालू और नीतीश में जो मतभेद हो रहे थे, उसके बाद राजनीतिक गलियारों में ये कानाफूसी थी कि लालू, जद-यू के कुछ विधायकों पर भी निशाना साधने की तैयारी में थी. इसीलिए आनन-फानन में नीतीश ने इस्तीफा दिया और अगले दिन सुबह-सुबह फिर से शपथ ले ली!
नीतीश कुमार के पाला बदलने के सवाल के कुछ बेहद सामान्य उत्तर हैं, उनमें से एक है नीतीश भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े होने वाली अपनी चट्टानी छवि को नई ऊंचाईयों पर ले जाना चाहते थे. लेकिन यह हिमशैल का सिर्फ दिखने वाला सिरा है. असल में इसकी भीतरी वजहे और भी हैं. सूत्रों के हवाले से खबर है कि लालू प्रसाद ने नीतीश का तख्तापलट करने की तैयारी कर ली थी. इसके साथ ही जेडी-यू में टूट भी हो जाती. जाहिर है, नीतीश ज्यादा तेज निकले और उन्होंने ब्रह्मास्त्र चला दिया. नीतीश कुमार महागठबंधन में मुख्यमंत्री तो थे लेकिन उनकी हैसियत 80 के मुकाबले 71 विधायकों के साथ जूनियर पार्टनर की ही थी. भाजपा के साथ अब नीतीश पहले की तरह बड़े भैया हो जाएंगे.
हालांकि, बिहार भाजपा में हर कोई नए गठजोड़ से खुश नहीं है लेकिन सुशील मोदी एक बार फिर उप-मुख्यमंत्री बनकर प्रसन्नचित्त होंगे. दूसरी बात, उत्तर प्रदेश में भाजपा की प्रचंड जीत को नीतीश ने कायदे से पढ़ लिया है. यूपी में भाजपा को उन पार्टियों ने भी वोट दिया है जिसे समाज में दुर्बल जातियां कहा जाता है. बिहार में नीतीश भी उन्हीं जातियों का प्रतिनिधित्व करते हैं. अगर 2019 में भाजपा यूपी की तरह बिहार में भी उन जातियों को अपने पाले में कर लेती तो नीतीश के पास जमापूंजी क्या रह जाती? क और वजह तेजस्वी यादव भी रहे. नहीं, उन पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप नहीं. नीतीश तेजी से सीखते तेजस्वी को पैर जमाते देख रहे थे और उनको विवादित करके छोटा कर देना भी एक मकसद रहा होगा.
दूसरी तरफ, भाजपा के लिए 2019 से भी फौरी जरूरत थी गुजरात के चुनाव. भाजपा गुजरात विधानसभा को खोने नहीं देने के लिए कितनी बेताब है इसका अंदाजा हालिया महीनों में वहां बढ़ गए प्रधानमंत्री के दौरों से लग जाता है. गुजरात में भाजपा के वोट बैंक रहे पटेल पार्टी से नाराज चल रहे हैं और सड़कों पर सरकार के खिलाफ पटेलों की उमड़ी भीड़ भाजपा के लिए अनिष्टसूचक प्रतीत हो रही थी. गलियारों में चर्चा थी कि हार्दिक पटेल के सिर पर नीतीश कुमार का हाथ था. अब यह महज संयोग नहीं होगा कि नीतीश कुमार उन्हीं कुर्मियों के नेता हैं, जिसे गुजरात में पटेल कहा जाता है. भाजपा को उम्मीद है कि इससे गुजरात में पटेलों के विरोध को एक हद तक साधा जा सकेगा. इस बात को भी संयोग नहीं माना जा सकता है कि राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार (और अब राष्ट्रपति) रामनाथ कोविंद कोली जाति के हैं, जिसकी तादाद गुजरात में करीब 18 फीसदी है. नीतीश के साथ कोविंद के मीठे संबंध रहे हैं.
अब बच रहे शरद यादव. शरद यादव के बारे में बिना हील-हुज्जत के यह माना जा सकता है कि वह अपने सियासी करियर के आखिरी दौर से गुजर रहे हैं. हालांकि शरद महागठबंधन तोड़ने की मुखालफत कर रहे थे लेकिन उनके राजनीतिक जीवन में वसंत तभी आएगा जब वह भाजपा के साथ जद-यू के इस गठजोड़ को मान लेंगे. जद-यू के अंदरूनी सूत्रों का मानना है कि केंद्र सरकार में शरद यादव के लिए कबीना मंत्री के पद का प्रस्ताव है और शरद इसके लिए सहमत भी हैं.
वैसे राजनीतिक पंडित इस बात के कयास लगा रहे हैं कि जद-यू के 18 मुस्लिम और यादव विधायक टूट के लिए तैयार हैं. लेकिन वैधानिक टूट के लिए 24 विधायकों का होना जरूरी है. अगर यह टूट हुई और कुछ न्य विधायकों को जोड़कर लालू सरकार बनाने का दावा भी करें तो भी शरद यादव को राज्यसभा सीट गंवानी पड़ेगी. उनको दोबारा राज्यसभा में भेजना कठिन होगा. आरजेडी ने मायावती को राज्य सभा में भेजने का वचन पहले ही दे दिया है. ऐसे में बस एक और नाम ख्याल में आता है ममता बनर्जी का, जो मायावती को राज्य सभा भेजने पर हामी भर सकती हैं. लेकिन यह गणित सियासी खामख्याली भी हो सकती है, क्योंकि विश्वस्त सूत्र दावा कर रहे हैं कि शरद जल्दी ही कैबिनेट मंत्री के रूप में शपथ ले सकते हैं. दूसरी तरफ, आरजेडी के कई विधायक तेजस्वी का इस्तीफा चाहते थे और इस टूट से नाराज होकर उन्होंने गुरुवार की बैठक में मौजूद रहना मुनासिब नहीं समझा. एक और कोण कांग्रेस का है और अगर जेडी-यू में कोई टूट होती है तो कांग्रेस में भी तोड़-फोड़ होगी. अभी भाजपा 2019 की तरफ देख रही है तो नीतीश की नजर उससे आगे 2020 (बिहार विधानसभा चुनाव) पर भी होगी. कुल मिलाकर मामला दिलचस्प है, कुछ-कुछ अंकगणित और ज्यामिति के मिले-जुले समीकरण जैसा.
मंजीत ठाकुर
चूंकि मोदी युग के उदय के बाद मोदी-शाह के अश्वमेघ यज्ञ में सिर्फ बिहार और दिल्ली विधानचुनाव ही असली कांटे साबित हुए हैं और बिहार का झटका ज्यादा बड़ा था जिसमें भारत की पिछड़ी जातियों के दो बड़े नेता शामिल थे और मंडल से जुड़े हुए थे. ऐसे में बिहार में मोदी की सत्ता स्वीकार्यता का एक विशेष अर्थ है और मोदी की सर्व-व्यापकता की तस्वीर बिना बिहार में एनडीए की सत्ता के पूरी नहीं होती थी. ऐसे में ये जरूरी था कि नीतीश कुमार को अपने पाले में लाया जाए और जिसके लिए वे तनिक-तनिक तैयार भी दिखने का संकेत कर रहे थे.
साथ ही ऑपरेशन बिहार इसलिए भी हड़बड़ी में जरूरी था क्योंकि लालू और नीतीश में जो मतभेद हो रहे थे, उसके बाद राजनीतिक गलियारों में ये कानाफूसी थी कि लालू, जद-यू के कुछ विधायकों पर भी निशाना साधने की तैयारी में थी. इसीलिए आनन-फानन में नीतीश ने इस्तीफा दिया और अगले दिन सुबह-सुबह फिर से शपथ ले ली!
नीतीश कुमार के पाला बदलने के सवाल के कुछ बेहद सामान्य उत्तर हैं, उनमें से एक है नीतीश भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े होने वाली अपनी चट्टानी छवि को नई ऊंचाईयों पर ले जाना चाहते थे. लेकिन यह हिमशैल का सिर्फ दिखने वाला सिरा है. असल में इसकी भीतरी वजहे और भी हैं. सूत्रों के हवाले से खबर है कि लालू प्रसाद ने नीतीश का तख्तापलट करने की तैयारी कर ली थी. इसके साथ ही जेडी-यू में टूट भी हो जाती. जाहिर है, नीतीश ज्यादा तेज निकले और उन्होंने ब्रह्मास्त्र चला दिया. नीतीश कुमार महागठबंधन में मुख्यमंत्री तो थे लेकिन उनकी हैसियत 80 के मुकाबले 71 विधायकों के साथ जूनियर पार्टनर की ही थी. भाजपा के साथ अब नीतीश पहले की तरह बड़े भैया हो जाएंगे.
हालांकि, बिहार भाजपा में हर कोई नए गठजोड़ से खुश नहीं है लेकिन सुशील मोदी एक बार फिर उप-मुख्यमंत्री बनकर प्रसन्नचित्त होंगे. दूसरी बात, उत्तर प्रदेश में भाजपा की प्रचंड जीत को नीतीश ने कायदे से पढ़ लिया है. यूपी में भाजपा को उन पार्टियों ने भी वोट दिया है जिसे समाज में दुर्बल जातियां कहा जाता है. बिहार में नीतीश भी उन्हीं जातियों का प्रतिनिधित्व करते हैं. अगर 2019 में भाजपा यूपी की तरह बिहार में भी उन जातियों को अपने पाले में कर लेती तो नीतीश के पास जमापूंजी क्या रह जाती? क और वजह तेजस्वी यादव भी रहे. नहीं, उन पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप नहीं. नीतीश तेजी से सीखते तेजस्वी को पैर जमाते देख रहे थे और उनको विवादित करके छोटा कर देना भी एक मकसद रहा होगा.
दूसरी तरफ, भाजपा के लिए 2019 से भी फौरी जरूरत थी गुजरात के चुनाव. भाजपा गुजरात विधानसभा को खोने नहीं देने के लिए कितनी बेताब है इसका अंदाजा हालिया महीनों में वहां बढ़ गए प्रधानमंत्री के दौरों से लग जाता है. गुजरात में भाजपा के वोट बैंक रहे पटेल पार्टी से नाराज चल रहे हैं और सड़कों पर सरकार के खिलाफ पटेलों की उमड़ी भीड़ भाजपा के लिए अनिष्टसूचक प्रतीत हो रही थी. गलियारों में चर्चा थी कि हार्दिक पटेल के सिर पर नीतीश कुमार का हाथ था. अब यह महज संयोग नहीं होगा कि नीतीश कुमार उन्हीं कुर्मियों के नेता हैं, जिसे गुजरात में पटेल कहा जाता है. भाजपा को उम्मीद है कि इससे गुजरात में पटेलों के विरोध को एक हद तक साधा जा सकेगा. इस बात को भी संयोग नहीं माना जा सकता है कि राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार (और अब राष्ट्रपति) रामनाथ कोविंद कोली जाति के हैं, जिसकी तादाद गुजरात में करीब 18 फीसदी है. नीतीश के साथ कोविंद के मीठे संबंध रहे हैं.
अब बच रहे शरद यादव. शरद यादव के बारे में बिना हील-हुज्जत के यह माना जा सकता है कि वह अपने सियासी करियर के आखिरी दौर से गुजर रहे हैं. हालांकि शरद महागठबंधन तोड़ने की मुखालफत कर रहे थे लेकिन उनके राजनीतिक जीवन में वसंत तभी आएगा जब वह भाजपा के साथ जद-यू के इस गठजोड़ को मान लेंगे. जद-यू के अंदरूनी सूत्रों का मानना है कि केंद्र सरकार में शरद यादव के लिए कबीना मंत्री के पद का प्रस्ताव है और शरद इसके लिए सहमत भी हैं.
वैसे राजनीतिक पंडित इस बात के कयास लगा रहे हैं कि जद-यू के 18 मुस्लिम और यादव विधायक टूट के लिए तैयार हैं. लेकिन वैधानिक टूट के लिए 24 विधायकों का होना जरूरी है. अगर यह टूट हुई और कुछ न्य विधायकों को जोड़कर लालू सरकार बनाने का दावा भी करें तो भी शरद यादव को राज्यसभा सीट गंवानी पड़ेगी. उनको दोबारा राज्यसभा में भेजना कठिन होगा. आरजेडी ने मायावती को राज्य सभा में भेजने का वचन पहले ही दे दिया है. ऐसे में बस एक और नाम ख्याल में आता है ममता बनर्जी का, जो मायावती को राज्य सभा भेजने पर हामी भर सकती हैं. लेकिन यह गणित सियासी खामख्याली भी हो सकती है, क्योंकि विश्वस्त सूत्र दावा कर रहे हैं कि शरद जल्दी ही कैबिनेट मंत्री के रूप में शपथ ले सकते हैं. दूसरी तरफ, आरजेडी के कई विधायक तेजस्वी का इस्तीफा चाहते थे और इस टूट से नाराज होकर उन्होंने गुरुवार की बैठक में मौजूद रहना मुनासिब नहीं समझा. एक और कोण कांग्रेस का है और अगर जेडी-यू में कोई टूट होती है तो कांग्रेस में भी तोड़-फोड़ होगी. अभी भाजपा 2019 की तरफ देख रही है तो नीतीश की नजर उससे आगे 2020 (बिहार विधानसभा चुनाव) पर भी होगी. कुल मिलाकर मामला दिलचस्प है, कुछ-कुछ अंकगणित और ज्यामिति के मिले-जुले समीकरण जैसा.
मंजीत ठाकुर
सुन्दर लेख,
ReplyDeleteस्वागत है मेरे नए ब्लॉग पोस्ट #भगवान पर|
https://hindikavitamanch.blogspot.in/2017/07/god.html
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (29-07-2017) को "तरीक़े तलाश रहा हूँ" (चर्चा अंक 2681) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शरद यादव का क्या होना है, दिन बदले, दिल्ली दरबार में सुशोभित होना है
ReplyDeletewaah bahut khoob bahut sahi kahaa apne mai apke vichaaron se sehmat hoon
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