Tuesday, December 19, 2017

क्या शेर का क़द वाक़ई एक बिलान छोटा हो गया है?

गुजरात विधानसभा में भाजपा की सरकार बन गई है. 22 साल से गुजरात में सत्ता से दूर कांग्रेस फिर से विपक्ष में बैठेगी. लेकिन गुजरात के चुनाव ने साफ कर दिया है कि कांग्रेस अध्यक्ष बने राहुल गांधी हार कर बाजीगर बने या न बने हों, लेकिन मोदी की लहर की दहक कहीं न कहीं कमजोर हुई है.

मेरी इस बात से कुछ लोग इत्तफाक नहीं रखेंगे और कहेंगे कि जीत तो आखिर जीत होती है.

लेकिन, गुजरात मोदी का है. पार्ट टाइम मुख्यमंत्री बनने से लेकर 2014 में लोकसभा में प्रचंड बहुमत पाने तक मोदी एक लहर थे. मुझे याद है एक दफा गुजरात में नीलोफर नाम के तूफान आऩे का खतरा था और तब राजकोट में मुझे एक चाय की दुकान पर किसी ने कहा थाः कोई तूफान नहीं आएगा, क्योंकि यहां का तूफान तो दिल्ली चला गया.

उस चायवाले का यह बयान कहता था कि गुजरात का आम आदमी मोदी पर किस कदर गर्व करता था. उस जगह पर मोदी की भाजपा अगर 115 के पुराने (2012 चुनाव) के आसन से नीचे खिसकती है तो इसको गुजरात के शेर के कद का एक बिलान कम होना ही मानिए.

ज़रा वोट प्रतिशत की तरफ ही ध्यान दीजिए. एग्जिट पोल के परिणाम यही बता रहे थे कि राहुल गांधी की मेहनत गुजरात में कांग्रेस का वोट प्रतिशत बढ़ाने वाली है. नतीजों से भी साफ है कि टीम राहुल ने समाज के सभी वर्गों को साथ लाकर न केवल पार्टी का वोट बैंक और वोट शेयर बढ़ाया है बल्कि गुजरात विकास के मॉडल को भी सवालों के घेरे में खड़ा किया है.  

खासकर गांवों में तो कांग्रेस ने अपना वोट शेयर और सीटें दोनों में ही इजाफा किया है. गांवों से खिसकते जनाधार और गांव और शहर के अलग मिजाज़ से वोट करने के क्या सियासी मायने हैं और उसके क्या नतीजे होंगे, वह एक अलग विमर्श की विषय वस्तु है.

पिछले विधानसभा में भाजपा को 47.85 फीसदी, कांग्रेस को 38.93 फीसदी और अन्य को 13 फीसदी वोट मिले थे. यानी कांग्रेस भाजपा से महज 9 फीसदी वोटों से पीछे थी. 2017 के एग्जिट पोल के मुताबिक बीजेपी को 47 फीसदी वोट मिलने की संभावना है जबकि कांग्रेस को 42 फीसदी वोट की. अभी तक के आंकड़ों के मुताबिक कांग्रेस को 41.4 फीसदी वोट मिले हैं. हार के बावजूद कांग्रेस के वोट शेयर में भाजपा की तुलना में बढोत्तरी हुई है. हालांकि वोट शेयर भाजपा का भी बढ़ा है लेकिन पिछले चुनाव की तुलना में सीटें कम हो रही हैं.

इस गुजरात को जीतने के लिए मोदी को अपने पसंदीदा विकास के मुद्दे से बेपटरी होना पड़ा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भी अधिकांश चुनावी रैलियों में विकास की बजाय राहुल गांधी पर निजी हमले करते रहे. इसकी बजाय राहुल ने सायास अपनी छवि मृदुभाषी युवा की बनाई. जाहिर है, उनकी टीम ने राहुल की छवि गढ़ने पर बहुत मेहनत की क्योंकि पिछले चुनावों में कीचड़ राहुल पर उछलकर उनकी छवि खराब की गई थी.

इस तमाम मेहनत के बावजूद अमित शाह 150 सीटों के अपने लक्ष्य से काफी दूर ही रुक गए.

जबकि गुजरात में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हर रैली में इस चुनाव को खुद से जोड़ा और खुद ही जिताने की अपील की. नरेंद्र मोदी ने गुजरात में कुल 36 रैलियां की थी. अपनी रैलियों में मोदी ने नोटबंदी, जीएसटी, पाटीदार, दलित हर मुद्दे पर आक्रामक रुख अपनाया और सरकार पर लगे आरोपों का बचाव तो किया ही सख्ती से जवाब भी दिया.

गुजरात का चुनाव शुरू तो हुआ था विकास के नारों के साथ, लेकिन जाति में दुष्चक्र में फंस गया, मणिशंकर अय्यर के नीच वाले बयान को भाजपाई ले उड़े. माफीनामे और राहुल गांधी की सफाई के बावजूद प्रधानमंत्री ने इसे गुजराती अस्मिता से जोड़ दिया. जाहिर है, भाजपा के करीब सौ सीटों में इस भावना के रसायन ने बखूबी काम किया.

गुजरात जीतने के लिए मोदी को पाकिस्तान को भी बीच में घसीटना पड़ा. इस आरोप में प्रधानमंत्री ने डॉ मनमोहन सिंह से लेकर बहुत सारे नेताओं को लपेट लिया. यह और बात है कि ऐसे आरोप किसी चुनावी मंच से लगाने चाहिए या नहीं, खासकर देश के सबसे जिम्मेदार पद पर बैठे करिश्माई नेता से, लेकिन नतीजों में कुछ हिस्सा तो पाकिस्तान का भी ठहरा.

चुनाव प्रचार में कांग्रेस सॉफ्ट हिंदुत्व का दामन थामना चाह रही थी. अब भाजपा को उसी के टर्निंग विकेट पर हराना मुश्किल था. फिर उसमें मंदिर यात्राओं के दौरान राहुल का नाम किस रजिस्टर में दर्ज है यह भी खूब उछला. फिर राहुल के 'जनेऊधारी' होने के बयान भी आए. इसे कुछ यूं समझ लीजिए कि कांग्रेस की तेज़ गेंदबाजी से बचने के लिए भाजपा ने विकेट की घास साफ करवा दी.

फिर राम मंदिर के मुददे पर कपिल सिब्बल की बयानबाजी और पाटीदार आंदोलन की लहर को थामने की कांग्रेस की कोशिश में बाकी जातियों के खिसक जाने को वजहें बताई जा सकती हैं. लेकिन पटेल वोटों के बिखराव को भाजपा ने दोनों हाथों से समेटा. पटेल फैक्टर वाले 37 में से करीब 20 सीटों पर भाजपा जीत रही है.

लेकिन, फिर सवाल वही घूमकर आता है. क्या गुजरात चुनाव ने ठोस मुद्दे को घुमा-घुमाकर अमूर्त मसलों (हिंदुत्व, जनेऊ वगैरह) पर लाकर, निजी हमले करके. पाकिस्तान को बीच में लाने की जो मजबूरी भाजपा को दिखानी पड़ी, उससे यह नहीं लगता कि नरेंद्र मोदी की ताकतवर दहाड़ने वाले नेता का करिश्मा कहीं चुक तो नहीं गया!

क्या शेर का क़द वाक़ई एक बिलान छोटा हो गया है?

मंजीत ठाकुर

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