Tuesday, December 19, 2017

मेरा मधुपुरः शिक्षकों के हाफिज सईद थे हेड सर

तिलक कला मध्य विद्यालय सरकारी स्कूल था. जब हमने स्कूल की चौथी कक्षा में एडमिशन लिया था, वह सन् 87' का साल था. देश भर में सूखा पड़ा था. मास्टर साहेब लोग अखबार बांचकर बताते थे कि कोई अल-नीनो प्रभाव है. हमारे पल्ले कुछ नहीं पड़ता था. लेकिन उस अकाल के मद्देनजर सरकार ने यूनिसेफ से प्रायोजित दोपहर का भोजन किस्म की योजना चलाई थी.

हर दोपहर पांचवीं कक्षा के हमारे क्लास टीचर अशोक पत्रलेख पूरी कक्षा में हर बच्चे को कतार में खड़ा कर भिंगोया हुआ चना देते थे. हालांकि, ज्यादातर चना उनके घर में घुघनी (बंगाली में छोले को घुघनी कहते हैं) बनाने के काम आता था.

अशोक पत्रलेख से जुड़ा एक वाक़या हमारे सीनियर पंकज पीयूष ने फेसबुक पर शेयर किया है. पंकज भैया ने मुझे पढ़ाया भी है. वह भी तिलक विद्यालय के छात्र थे. मुझसे करीब एक दशक पहले. उनका दौर था सन् 1979 से 1982 तक. उन दिनों महेंद्र बाबू (अब स्वर्गीय) स्कूल के हेड मास्टर हुआ करते थे. उन दिनों गजानन सर, महानंद सर, अशोक पत्रलेख, विजय सिंह सर के अलावा आरिफ सर और मौलाना सर भी थे. और तब पंकज भैया शायद सातवीं क्लास में थे.

वह याद करते हुए बताते हैं कि उन दिनों यानी सन् 1981 में निर्मल सर और ख़ुशी सर ने हाल-हाल ही में जॉइन किया था. पंकज भैया ने लिखा है, "मुझे याद है कि जिस पूजा के दिन जैसे विश्वकर्मा पूजा, अनंत चतुर्दशी, कर्मा, सरहुल आदि के दिन स्कूल में छुट्टी घोषित नहीं रहती थी, तो क्लास में हाज़िरी बनने के बाद, अशोक सर मुझसे छुट्टी का आवेदन लिखवाकर हर क्लास के 5-5 बच्चों से हस्ताक्षर करवाने भेजते थे और फिर मैं डरते हुए उस आवेदन को लेकर हेड सर के चैम्बर में जाता था. वे मुझे और इस आवेदन को देखकर मुस्कराते हुए जानबूझ कर पूछते थे कि अशोक (सर) ने लिखवाया है?"

हालांकि पंकज भैया इनकार करते थे लेकिन सच तो सबको पता था.

उनके साथियों में यह भरोसा भी था कि स्कूल में छुट्टी जल्दी करानी हो तो दोनों आंख से पलकों के बाल निकाल कर टीचर के जूते में डाल दो... देखना छुट्टी की घंटी बज़ जाएगी,

यह फॉर्मूला कितना सही होता था यह तो पंकज भैया और उनके साथी ही जानें लेकिन एक दशक बाद के छात्रों में, यानी हम लोगों तक आते-आते मासूमियत थोड़ी क्रूरता में बदलने लगी थी. 1989 के दौर के छात्र तिलक विद्यालय के बड़े से अहाते में कभी कभार कबड्डी और अमूमन रबर की गेंद से एक दूसरे को पीटने वाला क्रूर खेल बम-पार्टी खेला करते थे. हमारी पीठ पर गेंदो की मार से निशान और चकत्ते उभर आते. लेकिन वो दाग़ अच्छे थे.

स्कूल के अहाते में यूकेलिप्टस के कई ऊंचे-मोटे पेड़ थे. जिनकी जड़ों के पास दो खोमचे वाले अपना खोमचा लगाते. ये खोमचे वाले भुने चने को कई तरह से स्वादिष्ट बनाकर बेचते. उनके पास मटर के छोले होते, खसिया (आधा उबले चने को नमक मिर्च के साथ धूप में सुखाने के बाद बनाया गया खाद्य) फुचका, जिसे गुपचुप कहा जाता या बाद में जाना कि असली नाम गोलगप्पे हैं. वैसे मधुपुर का गुपचुप लखनऊ में पानी बताशा, मुंबई में पानीपूरी, दिल्ली में गोलगप्पे और कोलकाता में फुचका के नाम से मशहूर है. लेकिन जो स्वाद गुपचुप में था वह इसके किसी और अपररूप में नहीं.

इन्हीं ठेलों पर बिकता था एक बेहद खट्टा नींबू जिसे काले नमक के साथ खाया जाता था. यह मुझे कत्तई पसंद न था. खट्टा खाना मुझे आज भी नापसंद है.

अहाते में कई पेड़ अमड़े के भी थे. अमड़ा जिसे अंग्रेजी में वाइल्ड मैंगो या हॉग प्लम भी कहते हैं. हिंदी में इसको अम्बाडा कहते हैं.

मधुपुर में बांगला भाषा का बहुत असर था, इसलिए हम इसे अमड़ा ही कहते. इसके फूल वसंत की शुरुआत में आते थे. इनके फूल भी हम कचर जाते. हल्का खट्टापन, हल्का मीठापन... सोंधापन फाव में.

अमडा जब फल जाता तो उसकी खट्टी और मीठी चटनी बनाई जाती. यह हमारे स्कूल के आसपास का खाद्य संग्रह था...डार्विन ने अगर शुरुआती मानवों को खाद्यसंग्राहक माना था तो हम उसे पूरी तरह सच साबित कर रहे थे.

लेकिन, इन खाद्यसंग्रहों के बीच पढ़ाई अपने तरीके से चल रही थी...पढ़ाई का तरीका कुछ वैसा ही था जैसा 19वीं सदी की शुरुआत में हुआ करता होगा.

हम लोग हाथों में मध्यावकाश तक पढ़ाई जाने वाली चार किताबें और कॉपियां लेकर स्कूल जाते. बस्ते का तो सवाल ही नहीं था. भोजनावकाश में दौड़कर घर जाते, खाना खाकर, वापस स्कूल लौटने की जल्दी होती.

हम जितनी जल्दी लौटते उतना ही वक्त हमें खेलने के लिए मिलता. लड़कियां इस खाली वक्त में पंचगोट्टा खेलतीं थी. पांच पत्थर के टुकड़े, हथेलियों में उंगलियों के बीच से बाहर निकालने का खास खेल, हम बम पार्टी या कबड्डी खेलते... क्रिकेट के लिए शाम का वक्त सुरक्षित रखा जाता.

इन्हीं में विभिन्न मास्टर साहबों के करतब थे, जिनकी चर्चा अगली पोस्ट में करूंगा. निर्मल सर, खुशी सर, विजय सर से लेकर चंद्रमौलेश्वर सिंह यानी हमारे वक्त के हेड मास्टर साहेब...

वह इन सभी आतंकवादी मास्टरों के सरगना थे. समझिए शिक्षकों के हाफिज सईद.



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