खुदा का शुक्र है कि इस साल इंद्र भगवान भारत पर अपनी कृपा बनाएंगे. इस साल मौसम विभाग ने मॉनसून सामान्य रहने का अनुमान लगाया है. यह अनुमान कितने राहत से भरा है यह वही लोग बता सकते हैं जिनके खेत में बिवाइयों की दरारें पड़ी हैं या फिर दिल्ली में बैठे नीति-नियंता जो बारिश की बूंदों की उम्मीद चातक की तरह लगाए हैं. अब इन नीति नियंताओं की नीतियों का सूचकांक भी बारिश की नमी से हरा-भरा होगा.
इस साल पिछले दस साल के औसत के मुकाबले 97 फीसदी बारिश होने के आसार हैं. किसानों के लिए ये राहत की खबर है.
बारिश जब होती तब होगी, फिलहाल तो इस अनुमान से ही राहत है क्योंकि दक्षिण भारत के कुछ राज्य पानी के गहरे संकट से जूझ रहे हैं. केरल सरकार 27 मार्च को राज्य के 14 ज़िलों में से 9 ज़िलों को सूखा-ग्रस्त घोषित कर चुकी है. राज्य के प्रभावित ज़िलों में टैंकरों से पानी पहुंचाने के लिए बड़े स्तर पर पहल की गई है. साफ है, केरल के सूखा प्रभावित किसानों को देश में मॉनसून का सबसे ज्यादा इंतजार है.
पिछले साल अक्टूबर से दिसंबर के बीच औसत से कम बारिश हुई है जिसका असर देश के बड़े हिस्से में साफ तौर पर दिख रहा है. सबसे ज्यादा चिंता उत्तर भारत को लेकर है जहां 2013 के बाद से कुछ राज्यों में सूखा पड़ चुका है. इस इलाके के 6 बड़े जलाशयों में सिर्फ 20% पानी बचा है जो पिछले साल इस समय 23% था.
वैसे मॉनसून की बारिश भारत की राजनीति को भी प्रभावित करती है. प्रधानमंत्री कार्यकाल के आखिरी साल में ये खबर उनके लिए भी राहत देने वाली है. फसल अच्छी हुई तो किसानों की नाराजगी कुछ कम होगी.
किसानों की नाराजगी दूर करना बेहद अहम है, क्योंकि भारत में चुनाव दालों और प्याजों की कीमतों के आधार पर जीते और हारे जाते हैं (मंदिर वगैरह तो भावनात्मक मुद्दे हैं)
कुछ साल पहले, तब के आंध्र प्रदेश में. तेलुगूदेशम पार्टी हैदराबाद को आधुनिक बनाने के चंद्रबाबू नायडू की पुरजोर कोशिशों के बाद भी चुनाव में पटखनी खा गई थी. हाल में, गुजरात में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का जनादेश सिकुड़ गया. दोनों ही मामलों में किसानों और ग्रामीण आबादी की नाराजगी बड़ी वजह बताई गई.
हालांकि ग्रामीण आबादी और खेती को एक दम से एक ही घेरे में नहीं रखा जा सकता, लेकिन यह सच है कि दोनों एक दूसरे से नजदीकी और जरूरी रिश्ता रखते हैं. पिछले कुछ साल से हमारे कृषि विकास के आंकड़े गोते लगा रहे हैं.
ऐसे में, वक्त का तकाजा है कि बारिश की उम्मीदों के साथ ही खेती को आधुनिक बनाने और साथ में कृषि गतिविधियों को थोड़ा तकनीक का साथ मिले. पिछले ब्लॉग में मैंने ग्रीन रिवॉल्यूशन के बाद जीन रिवॉल्यूशन की बात की थी.
अब जरूरत है कि केंद्र सरकार कृषि क्षेत्र में कुछ और नई पहल करे और खेती के विकास को समग्रता की तरफ ले जाए. इन पहलों को लागू करने में राज्यों की सहमति के साथ उनके तर्कों को भी स्थान देना चाहिए. आखिर कृषि राज्य का विषय होने के साथ अलग-अलग राज्यों की जरूरतें भी अलग और स्थानीय किस्म की होती हैं.
भारत में कृषि नीतियों में बदलाव की सोचने से पहले जरा एक नजर अतीत पर डालने की जरूरत है. जवाहर लाल नेहरू के निधन के बाद लाल बहादुर शास्त्री ने अपने कार्यकाल में नीलम संजीव रेड्डी को कृषि मंत्री पद का प्रस्ताव दिया था, जिसे रेड्डी ने ठुकरा दिया.
वजहः उनके पूर्ववर्ती, जयराम दास दौलतराम दास, के.एम. मुंशी और रफी अहमद किदवई जैसे कृषि मंत्री कृषि क्षेत्र के भले के लिए नगण्य उपलब्धियां ही हासिल कर पाए थे. ऐसे में शास्त्री जी ने उद्योगों के मुकाबले कमजोर दिख रहे इस सेक्टर की कमान तब भारी उद्योग मंत्री रहे सी.सुब्रह्मण्यम को सौंपी थी.
पहले तो सी.सुब्रह्मण्यम को लगा कि उनका डिमोशन कर दिया गया है लेकिन उसके बाद एम.एस. स्वामीनाथन और एस. शिवरामन के साथ इस तिकड़ी ने भारतीय कृषि की किस्मत बदलने की नींव रखनी शुरू कर दी थी.
साल 2000 तक हरित क्रांति अपनी रफ्तार से चलती रही, जब तक कि नए नई राष्ट्रीय कृषि नीति (एनएपी) की नींव तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने नहीं रखी. एनएपी का लक्ष्य सालाना 4 फीसदी कृषि विकास दर हासिल करने का था (जो कभी हासिल नहीं किया जा सका) और किसानों को बेहतर जीवन शैली मुहैया कराने के लिए ग्रामीण बुनियादी ढांचे को मजबूत करना था.
बहरहाल, इस कदम के बाद यूपीए सरकार ने किसानों के लिए एक राष्ट्रीय आयोग का गठन 2004 में किया था और इसकी रिपोर्ट 2006 में आई.
इतनी बातों का मर्म यही है कि इतनी रस्साकस्सी के बाद भी देश में कृषि को लेकर एक समग्र नीतिगत फ्रेमवर्क नहीं बन पाया है, ताकि कृषि, पशुपालन, और इससे जुड़े अन्य क्षेत्रों को आगे बढ़ाया जा सके.
इसी कमी का नतीजा है कि कृषि उत्पादन को लेकर देश भर में असमानता है. हम हर बार बारिश और मौसम पूर्वानुमानों के आधार पर शेयर बाजार की बढ़त और घटत की ओर टकटकी लगाए रहते हैं.
जलवायु परिवर्तन के दौर में खेती को नए नजरिए की दरकार है. जिसमें तकनीक और बाकी जरूरतों का ख्याल रखा जाए. एक मजबूत फ्रेमवर्क ही जीन क्रांति समेत कृषि से जुड़ी अन्य जरूरतों का ख्याल रख सकता है.
***
इस साल पिछले दस साल के औसत के मुकाबले 97 फीसदी बारिश होने के आसार हैं. किसानों के लिए ये राहत की खबर है.
बारिश जब होती तब होगी, फिलहाल तो इस अनुमान से ही राहत है क्योंकि दक्षिण भारत के कुछ राज्य पानी के गहरे संकट से जूझ रहे हैं. केरल सरकार 27 मार्च को राज्य के 14 ज़िलों में से 9 ज़िलों को सूखा-ग्रस्त घोषित कर चुकी है. राज्य के प्रभावित ज़िलों में टैंकरों से पानी पहुंचाने के लिए बड़े स्तर पर पहल की गई है. साफ है, केरल के सूखा प्रभावित किसानों को देश में मॉनसून का सबसे ज्यादा इंतजार है.
पिछले साल अक्टूबर से दिसंबर के बीच औसत से कम बारिश हुई है जिसका असर देश के बड़े हिस्से में साफ तौर पर दिख रहा है. सबसे ज्यादा चिंता उत्तर भारत को लेकर है जहां 2013 के बाद से कुछ राज्यों में सूखा पड़ चुका है. इस इलाके के 6 बड़े जलाशयों में सिर्फ 20% पानी बचा है जो पिछले साल इस समय 23% था.
वैसे मॉनसून की बारिश भारत की राजनीति को भी प्रभावित करती है. प्रधानमंत्री कार्यकाल के आखिरी साल में ये खबर उनके लिए भी राहत देने वाली है. फसल अच्छी हुई तो किसानों की नाराजगी कुछ कम होगी.
किसानों की नाराजगी दूर करना बेहद अहम है, क्योंकि भारत में चुनाव दालों और प्याजों की कीमतों के आधार पर जीते और हारे जाते हैं (मंदिर वगैरह तो भावनात्मक मुद्दे हैं)
कुछ साल पहले, तब के आंध्र प्रदेश में. तेलुगूदेशम पार्टी हैदराबाद को आधुनिक बनाने के चंद्रबाबू नायडू की पुरजोर कोशिशों के बाद भी चुनाव में पटखनी खा गई थी. हाल में, गुजरात में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का जनादेश सिकुड़ गया. दोनों ही मामलों में किसानों और ग्रामीण आबादी की नाराजगी बड़ी वजह बताई गई.
हालांकि ग्रामीण आबादी और खेती को एक दम से एक ही घेरे में नहीं रखा जा सकता, लेकिन यह सच है कि दोनों एक दूसरे से नजदीकी और जरूरी रिश्ता रखते हैं. पिछले कुछ साल से हमारे कृषि विकास के आंकड़े गोते लगा रहे हैं.
ऐसे में, वक्त का तकाजा है कि बारिश की उम्मीदों के साथ ही खेती को आधुनिक बनाने और साथ में कृषि गतिविधियों को थोड़ा तकनीक का साथ मिले. पिछले ब्लॉग में मैंने ग्रीन रिवॉल्यूशन के बाद जीन रिवॉल्यूशन की बात की थी.
अब जरूरत है कि केंद्र सरकार कृषि क्षेत्र में कुछ और नई पहल करे और खेती के विकास को समग्रता की तरफ ले जाए. इन पहलों को लागू करने में राज्यों की सहमति के साथ उनके तर्कों को भी स्थान देना चाहिए. आखिर कृषि राज्य का विषय होने के साथ अलग-अलग राज्यों की जरूरतें भी अलग और स्थानीय किस्म की होती हैं.
भारत में कृषि नीतियों में बदलाव की सोचने से पहले जरा एक नजर अतीत पर डालने की जरूरत है. जवाहर लाल नेहरू के निधन के बाद लाल बहादुर शास्त्री ने अपने कार्यकाल में नीलम संजीव रेड्डी को कृषि मंत्री पद का प्रस्ताव दिया था, जिसे रेड्डी ने ठुकरा दिया.
वजहः उनके पूर्ववर्ती, जयराम दास दौलतराम दास, के.एम. मुंशी और रफी अहमद किदवई जैसे कृषि मंत्री कृषि क्षेत्र के भले के लिए नगण्य उपलब्धियां ही हासिल कर पाए थे. ऐसे में शास्त्री जी ने उद्योगों के मुकाबले कमजोर दिख रहे इस सेक्टर की कमान तब भारी उद्योग मंत्री रहे सी.सुब्रह्मण्यम को सौंपी थी.
पहले तो सी.सुब्रह्मण्यम को लगा कि उनका डिमोशन कर दिया गया है लेकिन उसके बाद एम.एस. स्वामीनाथन और एस. शिवरामन के साथ इस तिकड़ी ने भारतीय कृषि की किस्मत बदलने की नींव रखनी शुरू कर दी थी.
साल 2000 तक हरित क्रांति अपनी रफ्तार से चलती रही, जब तक कि नए नई राष्ट्रीय कृषि नीति (एनएपी) की नींव तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने नहीं रखी. एनएपी का लक्ष्य सालाना 4 फीसदी कृषि विकास दर हासिल करने का था (जो कभी हासिल नहीं किया जा सका) और किसानों को बेहतर जीवन शैली मुहैया कराने के लिए ग्रामीण बुनियादी ढांचे को मजबूत करना था.
बहरहाल, इस कदम के बाद यूपीए सरकार ने किसानों के लिए एक राष्ट्रीय आयोग का गठन 2004 में किया था और इसकी रिपोर्ट 2006 में आई.
इतनी बातों का मर्म यही है कि इतनी रस्साकस्सी के बाद भी देश में कृषि को लेकर एक समग्र नीतिगत फ्रेमवर्क नहीं बन पाया है, ताकि कृषि, पशुपालन, और इससे जुड़े अन्य क्षेत्रों को आगे बढ़ाया जा सके.
इसी कमी का नतीजा है कि कृषि उत्पादन को लेकर देश भर में असमानता है. हम हर बार बारिश और मौसम पूर्वानुमानों के आधार पर शेयर बाजार की बढ़त और घटत की ओर टकटकी लगाए रहते हैं.
जलवायु परिवर्तन के दौर में खेती को नए नजरिए की दरकार है. जिसमें तकनीक और बाकी जरूरतों का ख्याल रखा जाए. एक मजबूत फ्रेमवर्क ही जीन क्रांति समेत कृषि से जुड़ी अन्य जरूरतों का ख्याल रख सकता है.
***