Wednesday, April 4, 2018

कृषि में ग्रीन के बाद अब जीन क्रांति का वक्त

महाराष्ट्र के किसान जब बिवाई फटे पैरों के साथ नासिक से मुंबई पहुंचे तो सोशल मीडिया में जैसे जाग पड़ गई. सोशल मीडिया पर उधड़ी चमड़ी वाले पैरों की तस्वीरों ने बताया कि बुलेट ट्रेन के सपनों के बाजार में नंगे पैरों से रोटी और राजा का फासला नापते किसानों का कदमताल भारतीय लोकतंत्र का वह विहंगम दृश्य है, जिस पर समय शर्मिंदा है. 21वीं सदी के 18वें बरस के मचान से अपने अन्नदाताओं के पैरों से रिसता हुआ खून पूरा देश देख रहा था.

लेकिन असल सवाल यह नहीं है. यह बेहद फौरी-सा सवाल है, जिसका अर्थ कत्तई कर्जमाफी जैसे छोटे उपायों में नहीं ढूंढा जाना चाहिए. किसानों को मछली देने की बजाय, उन्हें मछली पकड़ना सिखाना होगा.

देश जिस कृषि संकट से गुजर रहा है, जहां गुजरात में पानी की कमी की वजह से बुवाई पर रोक है और कहीं अधिक पैदावार की वजह से उपज की बाजिव कीमत नहीं मिल पा रही है तो वहां किसान तिलमिलाए न तो क्या करे?

भारत में आज की तारीख में भी, जब सेवा क्षेत्र के विस्तार और संभावनाओं की कहानियां कही और सुनाई जा रही हैं, करीब 65 करोड़ लोग अपनी आजीविका के लिए खेती या इससे जुडे क्षेत्रों पर निर्भर हैं. यह संख्या देश की आबादी का तकरीबन 50 फीसदी है. साठ के दशक के मध्य से भारत में हरित, श्वेत, पीली और नीली क्रांतियां हो चुकी हैं और भारत खाद्यान्न आयात करने वाले से खाद्यान्न उत्पादन करने वाले ताकतवर देश में बदल चुका है. भारत एफएओ यानी खाद्य और कृषि संगठन में सबसे अधिक अनाज दान करने वाला देश है. लेकिन तथ्य यह भी है कि दुनिया की एक चौथाई भूखी और गरीब आबादी भारत में रहती है.

करीब 12 करोड़ किसान परिवार सबसे गरीब तबके में आते हैं और खेती तथा गैर-खेतिहरों के बीच आमदनी की खाई करीब 1:4 तक बढ़ गई है. औसतन कृषि उत्पादन और कुल कारक उत्पादकता वृद्धि तो कम है ही. एक ओर तो जमीन, पानी, जैव विविधता, और दूसरे प्राकृतिक संसाधन लगातार छीज रहे हैं, दूसरी तरफ भारत बहुत तेजी से, यानी अगले पांच साल में, दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाला देश बनने की दिशा में अग्रसर है.

इन सबके बरअक्स जलवायु परिवर्तन से खेती पर पड़ने वाला असर अलग ही है.

राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और वैश्विक विश्लेषण बताते हैं कि भारत जैसे खेती पर निर्भर या कृषि के लिए महत्वपूर्ण देशों में खेती का विकास गरीबी और भुखमरी के खात्मे में तिगुना अधिक प्रभावी साबित होते हैं, जबकि दूसरे सेक्टर में विकास से यह फर्क उतना अधिक नहीं पड़ता.

अब जिस तरह के कृषि संकट से देश दो-चार है, ऐसे में भारतीय कृषि को एक नए बदलाव की जरूरत है. इसे अधिक समावेशी होना होगा. इसके लिए एमएलएम समीकरण इसे अपनाना होगा, मोर फ्रॉम लेस फॉर मोर यानी कम संसाधनों में अधिक लोगों के लिए अधिक उत्पादन.

इसके लिए खेती-किसानी में आधुनिकता लानी होगी, इसमें उत्पादकता बढ़ाने के लिए वैल्यू चेन का समुचित होना होगा. इसे ही हम इनपुट यूज एफिशिएंसी या इनपुट के इस्तेमाल की अधिकतम योग्यता कहते हैं. खेती को जाहिर है लाभदायक बनाना होगा, जिसके लिए कीमतों का स्थिरीकरण और किसानों का बाजार से सीधे जुड़ाव जरूरी है. खेती को टिकाऊ बनाना होगा यानी इसमें संसाधनों के संरक्षण, उसे बचाने और वृद्धि करने के विकल्प के साथ आगे बढ़ना होगा. खेती में समानता लानी होगी, खेती को हर हालत में गरीबों के पक्ष में और किसान हितैषी बनाना ही होगा. इसमें एक लक्ष्य 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करना भी है.


खेती में आधुनिकीकरण का रास्ता

ग्रीन रिवॉल्यूशन का दौर तो बीत गया. अब जीन रिवॉल्यूशन का दौर आने वाला है. आपको बीटी कॉटन की याद है? एक संकर बीज? भारत में आज की तारीख में कुल 1.2 करोड़ हेक्टेयर में कपास की खेती होती है इसमें से 1.1 करोड़ हेक्टेयर में बीटी कॉटन उगाया जाता है. बीटी कॉटन करीब 70 लाख लघु और सीमांत किसानों के हित में उठाया गया एक कामयाब कदम माना जा सकता है.

इसकी वजह से कपास उत्पादन में कीटनाशकों के इस्तेमाल में सात गुना कमी आई है, दूसरी तरफ, 2001-02 में कोई 4 करोड़ कपास की गांठों का उत्पादन होता था जो अब 14 करोड गांठों तक बढ़ गया है. प्रति हेक्टेयर उत्पादन भी 278 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से बढ़कर 570 किग्रा प्रति हेक्टेयर हो गया है. रूपयों-पैसों के मामले में इसे बताएं तो यह 60 अरब डॉलर का नफा है. इससे भारत कपास के निर्यातकों में पहले और दूसरे पायदान पर आ गया है.

नीतियों और उसके क्रियान्वयन की जड़ता की वजह से साथ ही तकनीक बदलाव में पीढ़ीगत जड़ता की वजह से ऐसे फायदे दूसरी फसलों में नहीं उठाए जा सके हैं. समावेशी रूप से जैवसुरक्षा और संरक्षा को अपनाकर भारत को विज्ञान की अगुआई वाली बायोटेक नीति को लागू करना चाहिए, लेकिन इसका एक मानवीय पहलू होना चाहिए.

ऐसा कर पाए तो समूचे खाद्य और कृषि सेक्टर में इसका फायदा मिलेगा और इस क्षेत्र की अगुआ तकनीकों का फायदा नई खोजी जा रही तकनीकों के जरिए उठाकर जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुक्सान को कम किया जा सकेगा.

(यह लेख इंडिया टुडे में प्रकाशित हो चुका है)

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